राजनीतिक प्रभामण्डल से रमेश चंद्र तिवारी ने अपने को सदैव बाहर रखा
डा. हरीश चंद्र अंडोला
रमेश चंद्र तिवारी के देहावसान का जो छोटा सा समाचार कुछ हिंदी समाचार पत्रों में 25 अगस्त,2024 को प्रकाशित हुआ, उसमें उनका परिचय ‘वरिष्ठ कांग्रेस नेता, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के मुख्यंत्री एवं आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रह चुके स्व. नारायण दत्त तिवारी के छोटे भाई’ के रूप में दिया गया था। जिस समाज में विद्वता, अध्ययनशीलता और ज्ञान साधना, राजनीति के आगे पानी भरा करते हों, उसमें इस परिचय पर हैरान नहीं होना चाहिए। यह अपेक्षा तो कतई नहीं की जानी चाहिए कि नारायण दत्त तिवारी को ‘महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्री तथा बौद्ध धर्म-संस्कृति-दर्शन के सम्मानित विद्वान प्रो रमेश चंद्र तिवारी के बड़े भाई’ के रूप में भी जाना जाता।
1930 में पदमपुरी (बलूटी), जिला नैनीताल में स्वतंत्रता सेनानी पूर्णानंद तिवारी के घर जन्मे रमेश जी, बड़े भाई नारायण दत्त तिवारी से पांच साल छोटे थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद जब नारायण दत्त जी राजनीति के दांव-पेंच चलते हुए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में पहली बार उत्तर प्रदेश विधान सभा में पहुंचे थे, तब रमेश चंद्र जी लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रो राधा कमल मुखर्जी, प्रो धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी, प्रो डी पी मजूमदार और प्रो ए के सरन जैसे प्रख्यात शिक्षकों-चिंतकों के निर्देशन में समाजशास्त्र का अध्ययन करने में व्यस्त थे।
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प्रो राधा कमल मुखर्जी जब योजना आयोग की शहरी सर्वेक्षण परियोजना के निदेशक बने तो उन्होंने रमेश जी को शोध निरीक्षक बनाया। अपनी कुछ पुस्तकों के लिए प्रारम्भिक शोध कार्य भी उन्हें सौंपा था। 1954 के आसपास जब नारायण दत्त जी विधान सभा में प्रखर समाजवादी युवा राजनेता के रूप में पहचाने जा रहे थे, तब रमेश जी लगभग चुपचाप लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल कॉलेज (आज का बप्पाश्री नारायण कॉलेज) में समाजशास्त्र पढ़ाने लगे थे, जहां वे आठ साल तक रहे। 1962 में वे महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के समाजशास्त्र विभाग में पहुंच गए और अगले 28 वर्षों तक वहीं अध्यापन करते हुए शोध कार्य करते-कराते रहे। इस पूरे दौर में नारायण दत्त जी राजनीति और सत्ता की सीढ़ियां चढ़ते हुए प्रदेश व केंद्र में मंत्री, मुख्यमंत्री, आदि पदों पर लम्बे समय तक रहे थे लेकिन रमेश जी ने कभी अपना यह परिचय स्वयं सामने न तो रखा और न किसी ओर से आने दिया। बहुत कम ही लोग उन्हें एन डी तिवारी के भाई के रूप में जानते रहे।
बड़े भाई से उनका कोई दुराव या विरोध नहीं था। दोनों के सम्बंध मधुर थे। भाई-भाभी (डॉ सुशीला तिवारी) की एक सुंदर फोटो उनके कमरे में हमेशा लगी रही। बस, उनके राजनीतिक प्रभामण्डल से रमेश जी ने अपने को सायास बाहर रखा, जबकि कई ऐरे-गैरे ‘प्रोफेसर’ राजनीतिक जुगाड़ से कुलपति या अन्य बड़े पद हथियाते रहे। इसी संकोच में वे अपने वाजिब हक के लिए कहने से भी बचते रहे। वे कतई नहीं चाहते थे कि उन्हें इस पारिवारिक संबंध से कोई भी लाभ लेने के बारे में सुनना पड़ जाए। उतने महत्वाकांक्षी भी वे थे नहीं। दूसरी ओर, बड़े भाई के गैर-राजनीतिक सामाजिक कार्यों में वे पूरी तरह सहयोगी बने रहते थे। जवाहरलाल नेहरू युवा केंद्र तथा सुशीला तिवारी स्मृति आरोग्य संस्थान में वे पर्दे के पीछे से खूब सक्रिय रहते थे। दिसम्बर 2006 में जब निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री एवं बौद्ध विचारक प्रो समदोंग रिनपोछे लखनऊ आए थे तो रमेश ने मुझे नेहरू युवा केंद्र में उनसे मिलवाया था। रमेश के सहयोग से ही तब मैंने और मित्र प्रदीप मिश्र ने प्रो रिनपोछे का इंटरव्यू किया था जो ‘हिंदुस्तान’ अखबार में प्रकाशित हुआ था।
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काशी विद्यापीठ में रहते हुए उनका बौद्ध साहित्य, धर्म और दर्शन की ओर झुकाव प्रेम की सीमा तक बढ़ा। बौद्ध विद्वान व यायावर प्रो कृष्णनाथ तथा अन्य बौद्ध विद्वानों से उनकी निकटता हुई। लेह स्थित केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान ने उनसे उन्हें हिमालयी (लेह-लद्दाख, हिमाचल, उत्तराखण्ड, नेपाल, आदि) क्षेत्र की बौद्ध संस्कृति के क्रमबद्ध अध्ययन का आग्रह किया। उसके लिए प्रो तिवारी ने व्यापक योजना बनाई। काशी विद्यापीठ से अवकाश ग्रहण करने के बाद वे पूरी तरह इसी काम के लिए समर्पित हो गए थे। इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले लद्दाख में रहकर वहां की बौद्ध संस्कृति और परम्परा का अध्ययन किया और छह साल के परिश्रम के बाद प्रथम ‘हिमालयी बौद्ध संस्कृति कोश’ (इनसायक्लोडिया) के प्रारम्भिक दो विशाल ग्रंथ प्रकाशित किए। यह अपने आप में अत्यंत श्रमसाध्य एवं प्रतिष्ठित शोधकार्य है और बुद्ध-पूर्व काल से वर्तमान तक फैला हुआ है।
लद्दाख के बाद वे किन्नौर (हिमाचल प्रदेश) जाकर यही शोध कार्य आगे बढ़ाने लगे लेकिन स्वास्थ्य कारणों से लखनऊ लौट आए। वह काम फिर लेह स्थित संस्थान ने दूसरे विद्वानों से करवाया, जिसमें प्रो तिवारी निरंतर सहयोग देते रहे। बौद्ध धर्म, दर्शन एवं उसके सूत्रों पर उनका काम जारी रहा। पिछले कुछ वर्षों में वे विपरीत स्वास्थ्य के बावजूद ‘सदधर्मपुंडीरका’ और ‘विमलकीर्तिनिर्देश’ जैसे बौद्ध सूत्रों के अध्ययन में लगे रहे थे। उनके कई शोध लेख प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय ग्रंथों में शामिल किए जाते रहे, जिनके संदर्भ और उल्लेख बौद्ध साहित्य के अध्येताओं के लिए लगभग अनिवार्य होते हैं। इंटरनेट पर भी कुछ सामग्री देखी जा सकती है।
उन्होंने कई ग्रंथों/पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया, जिनमें काशी विद्यापीठ के समाजशास्त्र विभाग की ‘सामाजिकी’, प्रो एक के सरन के अभिनंदन ग्रंथ, प्रो सरन के शोध लेखों के संकलनों के दस खण्ड, प्रो राजाराम शास्त्री के लेखों का संग्रह, आदि शामिल हैं। चौदहवें दलाई लामा तेंजिंग ग्यात्सो के साठवें जन्म दिन पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ का सम्पादन भी उन्होंने किया था। ‘द इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसायटी’, दिल्ली ने उन्हें समाजशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध कार्यों के लिए ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ प्रदान किया था।
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उनके बारे में ये मेरी सीमित व जानकारियां हैं, जो यदा-कदा उनके घर पर दीवारों पर टंगे सम्मान/अभिनंदन पत्रों से नोट कर ली गई थीं। अपने बारे में वे अधिक कुछ बताते नहीं थे और बौद्ध धर्म व दर्शन पर चर्चा करने की मेरी लेशमात्र योग्यता थी नहीं। उनमें एक साधक के दर्शन होते थे। उतने ही अत्यंत विनम्र और स्नेहिल थे। बहुत प्यार से मिलते और घर की घंटी बजाने पर बहुधा धीरे-धीरे चलकर स्वयं गेट खोलने आ जाते थे। बच्चे बाहर थे और महानगर वाले मकान में पति-पत्नी अकेले ही रहते थे। कोविड काल के बाद उनसे मिलना नहीं हो पाया। कभी मोबाइल की घंटी बजाई तो बात नहीं हो पाई थी। इधर उनके ज़्यादा बीमार होने की खबर भी न लगी। निधन की खबर भी दूसरे दिन मिल पाई थी।
उनका जाना एक विद्वान साधक का ही नहीं, अत्यंत दुर्लभ सज्जन का जाना भी है। वे स्मृति में बने रहेंगे।