दिवंगत कलाकारों का श्रद्धा सम्मान, जिन्होंने हुनर से सींचा पहाड़ की संस्कृति का गुलिस्तान
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड की संस्कृति जितनी समृद्ध है, उतने ही मन को मोहने वाले यहां के लोकगीत-नृत्य भी हैं। यहां लोक की विरासत समुद्र की भांति है, जो अपने आप में विभिन्न रंग और रत्न समेटे हुए है। हालांकि, वक्त की चकाचौंध में अधिकांश लोकनृत्य कालातीत हो गए, बावजूद इसके उपलब्ध नृत्यों का अद्भुत सम्मोहन है। उत्तराखंडी लोकजीवन अलग ही सुर-ताल लिए हुए है, जिसकी छाप यहां के लोकगीत-नृत्यों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उत्तराखंडी लोकगीत-नृत्य महज मनोरंजन का ही जरिया नहीं हैं, बल्कि वह लोकजीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेने की प्रेरणा भी देते हैं। हालांकि, समय के साथ बहुत से लोकगीत-नृत्य विलुप्त हो गए, लेकिन बचे हुए लोकगीत-नृत्यों की भी अपनी विशिष्ट पहचान है।
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उत्तराखंड में लगभग दर्जनभर लोक विधाएं आज भी अस्तित्व में हैं, जिनमें चैती गीत यानी चौंफला, चांचड़ी और झुमैलो जैसे समूह में किए जाने वाले गीत-नृत्य आते हैं। इन तीनों ही गीतों में महिला-पुरुष की टोली एक ही घेरे में नृत्य करती है। हालांकि, तीनों की नृत्य शैली भिन्न है, लेकिन तीनों में ही श्रृंगार एवं भाव की प्रधानता होती है।उत्तराखंड की संस्कृति को जिंदा रखने के लिए लोक कलाकार लंबे समय से काम कर रहे हैं. अपनी संस्कृति को जिंदा रखने वाले कलाकार अमर होते हैं।पितृपक्ष में लोग अपने पूर्वजों को याद कर रहे हैं और उनकी आत्मा की शांति के लिए पूजा-अर्चना कर रहे हैं। वहीं पहाड़ के चन्द्र सिंह रही, गोपाल बाबू गोस्वामी, मिनी उनियाल, प्रह्लाद मेहरा जैसे दिग्गजों को भी अपने बुजुर्गों की तरह अब याद किया जाएगा।
उत्तराखंड की संस्कृति पर काम करने वाली संस्था’ने दिवंगत कलाकारों को याद करते हुए श्रद्धा सम्मान कार्यक्रम आयोजित किया। कार्यक्रम में उनकी आत्मा की शांति के लिए पूजा-अर्चना की गई।कार्यक्रम संयोजक और निर्देशक जानकारी देते हुए कहा कि हमने संकल्प लिया था कि हम पितृपक्ष में अपने दिवंगत कलाकारों को याद करेंगे।इसका उद्देश्य था कि हम पहाड़ के सांस्कृतिक कर्मियों को सम्मान दे सकें। वैसे कलाकार कभी नहीं मरते हैं, वे हमेशा जीवित रहते हैं लेकिन जिन लोगों के गानों पर आज दुनिया नाचती हैं, जिनसे सीखती आई है, उनके लिए न तो कोई संग्रहालय बनाए गए हैं, न ही उन्हें याद करने के लिए कोई स्मारक बनाया गया।यही वजह है कि आने वाली पीढ़ी को लोक कलाकारों के योगदान के बारे में बताने और उन्हें श्रद्धा अर्पित करने के लिए पिछले साल से हमने इस कार्यक्रम की शुरुआत की थी।
इस बार 22 सितंबर को देहरादून के सर्वे चौक स्थित आईआरटीडी भवन में दोपहर 2 बजे से कार्यक्रम आयोजित किया गया।इसमें दिवंगत कलाकारों के परिवारों को भी बुलाया गया. उत्तराखंड फिल्म नीति पर भी चर्चा की गई, जो क्षेत्रीय फिल्मों को आगे बढ़ाने के लिए मील का पत्थर साबित होगी। कला, साहित्य और संस्कृति के संरक्षकों का स्मरणनरेंद्र रौथाण ने कहा कि हमारे लिए यह गौरव की बात है कि हमारे सांस्कृतिक कलाकारों ने हमेशा वैश्विक पटल पर उत्तराखंड का नाम ऊंचा किया है और जीवन भर संस्कृति को बढ़ावा देने का काम किया है. इनमें से कुछ कलाकार ऐसे भी रहे हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन संस्कृति को ही समर्पित कर दिया. आज वे हमारे बीच नहीं रहे, इसलिए पितृपक्ष में एक दिन उन सभी दिवंगत कलाकारों को याद किया जाना चाहिए और उनके लिए शांति पाठ और श्रद्धांजलि सभा का कार्यक्रम आयोजित किया जाना चाहिए, जहां हम सब मिलकर उनके गीतों को गाएं और झूमें।
उन्होंने आगे कहा कि बरसों से कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े परंपरागत लोक कलाकार कई समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनकी हालातों को समझना होगा और उनकी पीड़ा को भी जानना होगा।इन सभी पहलुओं पर विचार विमर्श के बाद काम करने से पहाड़ के अंचल से जुड़े कलाकार, साहित्यकार और तकनीकी विशेषज्ञ पूरी निष्ठा से संस्कृति के लिए काम करेंगे, जिससे संस्कृति विलुप्त होने से बचेगी. फिल्म नीति पर उत्तराखण्ड फिल्म विकास परिषद के नोडल अधिकारी एवं संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने विस्तार से अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि फिल्म उद्योग को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा फिल्म नीति 2024 लागू की गई है, जिसकी देशभर के फिल्म निर्माता एवं निर्देशक सराहना कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि अनेक फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों की शूटिंग उत्तराखण्ड में कर रहे है, जबकि उत्तराखण्ड की भाषा बोली के फिल्म निर्माण में बहुत तेजी आयी है।
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उत्तराखंड की गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी भाषा की फिल्मों को 50 प्रतिशत अनुदान, जो अधिकतम 2 करोड़ रुपए की धनराशि दी जा रही है। इससे बड़ी संख्या में स्थानीय फ़िल्म निर्माता फिल्में बना रहे है।फ़िल्म पर चर्चा करते हुए फ़िल्म निर्देशक अनुज जोशी ने कहा कि राज्य सरकार द्वारा बेहतरीन फ़िल्म नीति बनाई गई है। उन्होंने कहा कि नई फिल्म नीति के आने के बाद से स्थानीय फिल्मो के निर्माण में बहुत तेजी आई है। फ़िल्म समीक्षक ने कहा कि नई फिल्म नीति में अनुदान की राशि 2 करोड़ तक कि गई है, जो सराहनीय है। उन्होंने कहा कि स्थानीय फ़िल्म निर्माताओ को फिल्मो के प्रचार प्रसार में काफी कठिनाई आती है, इसका भी फ़िल्म नीति में ध्यान रखा जाय। फ़िल्म निर्माता वैभव गोयल ने कहा कि आने वाला दौर तकनीक का दौर है, जिसे देखते स्थानीय फिल्मो के निर्माण में और अधिक तकनीक को शामिल करने की जरूरत है। (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं