डा० राजेंद्र कुकसाल
प्रधानमंत्री की पन्द्रह हजार करोड़ रुपए की इस महत्वाकांक्षी योजना के क्रियान्वयन में नहीं हो रहा भारत सरकार की गाइडलाइंस तथा स्वीकृत कार्ययोजना का अनुपालन।
योजना का उद्देश्य लघु एवं सीमांत क्षेणी के पर्वतीय एवं वर्षा पर आधारित क्षेत्र के कृषकों की आर्थिक मदद कर स्थानीय परम्परागत फसलों को जैविक मोड में लाकर कृषकों की आय बढ़ाना
स्वयं जैविक बीज खाद व कीट व्याधि नाशक दवाओं के उत्पादन हेतु किसानों को कभी भी प्रेरित नहीं किया गया और न ही उन्हें इस कार्य हेतु प्रोत्साहन धनराशि उपलब्ध कराई गई।
जैविक के नाम पर उद्यान विभाग किसानों को योजना में बांट रहे हैं निम्न स्तर के फल पौध, बीज, दवा, खाद व अन्य सामग्री।
जैविक कृषि विधेयक-2019 विधानसभा में पारित होने के साथ ही उत्तराखंड जैविक एक्ट लाने वाला देश का पहला प्रदेश बन गया है। हालांकि, सिक्किम पहला जैविक राज्य है, लेकिन वहां ‘एग्रीकल्चर, हॉर्टिकल्चर इनपुट एंड लाइवस्टॉक फीड रेगुलेटरी एक्ट-2014Ó के तहत कदम उठाए गए। उत्तराखंड में जैविक खेती की संभावनाओं को देखते हुए इस दिशा में बर्ष 2003 से ही प्रयास शुरू हो गये थे। 1 अप्रैल, 2003 को तत्कालीन प्रमुख सचिव एवं आयुक्त, वन एवं ग्राम्य विकास उत्तराखंड शासन की अध्यक्षता में आयोजित जैविक कृषि से संबंधित बैठक का आयोजन किया गया। उत्तरांचल शासन, कृषि एवं कृषि विपणन अनुभाग, संख्या – 517/कृषि/2002-2003 दिनांक 05 अप्रैल 2003 को उक्त बैठक की कार्यवृत्त जारी हुई। बैठक में निर्णय लिया गया कि प्र्रदेश के वर्षा आधारित पर्वतीय क्षेत्र में शत प्रतिशत जैविक कृषि का कार्य क्रम अपनाया जाए तथा मैदानी क्षेत्रों में कृषकों को जैविक कृषि वैकल्पिक रूप में अपनाने हेतु प्रेरित किया जाए। प्रदेश को जैविक प्रदेश बनाने हेतु लगातार प्रयास होते रहे, जिनके आधार पर प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2017 में केदारनाथ यात्रा के दौरान उत्तराखंड प्रदेश को जैविक प्रदेश बनाने की घोषणा की गई। इसी को मूर्तरूप देने हेतु परंपरागत कृषि विकास योजना राज्य में प्रारंभ की गई। पारंपरिक कृषि विकास योजना का मुख्य उद्देश्य लघु एवं सीमांत क्षेणी के पर्वतीय एवं वर्षा पर आधारित क्षेत्र के कृषकों की आर्थिक मदद कर स्थानीय परम्परागत फसलों को जैविक मोड में लाकर कृषकों की आय बढ़ाना, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके। इस योजना में कलस्टर मोड पर ऑर्गेनिक कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए 50 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की दर से धनराशि किसानों को दी जाती है, जो तीन वर्षों के लिए देय होती है।
योजना में डी.बी.टी. (सीधे कृषक के खाते में) के माध्यम से निवेशों हेतु प्रोत्साहन धनराशि 10000/ है0 कृषकों को देने का प्राविधान है। परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत जैविक खेती को सहभागिता प्रतिभूति प्रणाली यानी पी.जी.एस. (पार्टिसिपेट्री गारंटी सिस्टम) और क्लस्टर पद्धति से जोड़ा गया है। पी.जी.एस. में लघु जोत किसान या उत्पादक एक-दूसरे की जैविक उत्पादन प्रक्रिया का मूल्यांकन, निरीक्षण व जांच कर सम्मिलित रूप में पूरे समूह की कुल जोत को जैविक प्रमाणीकृत करने का प्राविधान हैं। कृषि निदेशालय उत्तराखंड, देहरादून के पत्रांक- कृ0नि0/25/जैविक/ पी0के0वी0वाई0/2020- 21/देहरादून दिनांक 09 अप्रैल 2020 के द्वारा परंपरागत कृषि विकास योजना 2019-20 हेतु भारत सरकार द्वारा प्रथम किस्त के रूप में रुपए 3550.53 लाख की धनराशि अवमुक्त की गई है।
परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत राज्य में औद्यानिकी विकास के लिए उद्यान विभाग को 1241 क्लस्टर विकसित करने का जिम्मा सौंपा गया है। इनमें 1206 औद्यानिकी और 35 जड़ी-बूटी के क्लस्टर हैं। वर्ष 2018-19 से पी.के.वी.वाई. में उद्यान विभाग को अब तक 40.27 करोड़ की धनराशि जारी की जा चुकी है। शासन द्वारा विभागों को समय-समय पर स्वयंम सहायता समूहों से कम्पोस्ट खाद केचुयें की खाद बनाने व योजनाओं में उन्हें क्रय करने तथा स्थानीय उत्पादों के जैविक बीज उत्पादन हेतु निर्देश दिए जाते रहे हैं। उद्यान विभाग द्वारा जैविक खेती के नाम पर आवंटित बजट से केवल और केवल टेंडर प्रक्रिया से निम्न स्तर के बीज दवा, खाद व अन्य सामग्री क्रय कर किसानों को बांटा है। किसानों से स्वयं जैविक बीज खाद व कीट व्याधि नाशक दवाओं के उत्पादन हेतु कभी भी प्रेरित नहीं किया गया और न ही उन्हें इस कार्य हेतु प्रोत्साहन धनराशि उपलब्ध कराई गई।
पारम्परिक कृषि विकास योजना का जो प्रस्ताव, जिसके आधार पर योजना को स्वीकृति मिली, उसका सारांश निम्नवत् है:-
उत्तराखंड प्रदेश, प्राकृतिक दृष्टि से परम्परागत कृषि के लिए उपयुक्त हैं। प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 54 प्रतिशत पर्वतीय एवं वर्षा आधारित क्षेत्र है। जलवायु विविधता के कारण यहां कई प्रकारकी *स्थानीय* फसलें फल ,जड़ी- बूटी,पुष्प, सुगन्धित पौधे आदि की खेती की जाती है। प्रदेश में उगाई जाने वाली परम्परागत फसलें पौष्टिक होने के साथ साथ औषधीय गुणों से भरपूर है। इन उत्पादों को जैविक मोड़ में उगाया जाता है तो इनका महत्व एवं व्यापारिक संभावनाएं और अधिक बढ़ जाती है। प्रस्ताव से स्पष्ट है कि उद्यान विभाग द्वारा स्थानीय परम्परागत औद्यानिक फसलें यथा आलू, अदरक, प्याज, लहसुन, अरबी, मसाला मिर्च, राई, गोल मूला आदि जिनका पर्वतीय क्षेत्र के किसान पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवसायिक खेती करते आ रहे हैं, के बीजों से ही जैविक क्लस्टर विकसित किए जाने थे। वर्षा आधारित पहाड़ी क्षेत्रों में उगाई जाने वाली परंपरागत फसलें क्षेत्र विशेष की भूमि में रचे-बसे होते हैं, इनमें सूखा व अधिक वर्षा सहने की क्षमता अधिक होती है, कीट व्याधि का प्रकोप भी इन पर कम होता है। इन फसलों के उत्पाद पौष्टिक होने के साथ साथ औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। इन उत्पादों को जैविक मोड में उगाया जाता है, तो इनका महत्व एवं व्यापारिक संभावनाएं और अधिक बढ़ जाती है। विभाग द्वारा कहीं-कहीं अदरक, हल्दी, लहसुन, आलू व मसाला मिर्च के जैविक कलस्टर विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं, किंतु वहां पर भी अधिकतर निम्न स्तर के बीज बाहर के राज्यों से लाकर परंपरागत फसलों के बीजों को नष्ट किया जा रहा है। सभी जनपदों में विभाग की अन्य योजनाओं की भांति ही प्रधानमंत्री की इस महत्वाकांक्षी योजना में भी निम्न स्तर के बीज, फल पौध, जैविक खाद, जैविक कीट व व्याधिनाशक दवायें व अन्य निवेश खरीद कर कृषकों को वितरित कर इस महत्वाकांक्षी योजना की इतिश्री की जा रही है, जो कि भारत सरकार से स्वीकृत कार्य योजना के विपरीत है। यह एक घोर वित्तीय अनियमिता है। पहले ही विभाग द्वारा अन्य योजनाओं में टेंडर प्रक्रिया से निम्न स्तर के अदरक, लहसुन, मिर्च व प्याज बीज मंगा कर क्षेत्र विशेष में इन फसलों के परम्परागत बीजों को नष्ट करने का प्रयास किया गया है।
प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी परम्परागत कृषि विकास योजना का मुख्य उद्देश्य क्षेत्र विशेष में उत्पादित स्थानीय परम्परागत फसलों यथा अनाज, दलहन, फल, सब्जी, पुष्प, जड़ी बूटी एवं संगध पाद आदि का चयन, संरक्षण व संमवर्धन कर उत्पादन बढ़ाना तथा इन उत्पाद को जैविक मोड में कर विपणन की व्यवस्था करना है, जिससे कृषकों की आय में वृद्धि हो सके, किंतु विभाग इसके विपरीत योजना में बाहरी क्षेत्रों से विना परीक्षण व संस्तुति के जैविक बीज के नाम पर बीज मंगा कर यहां की परम्परागत फसलों को नष्ट करने का प्रयास कर रहा है। परंपरागत कृषि विकास योजना में कृषकों को वितरित की जाने वाली जैविक दवायें निम्न स्तर की है। इन दवाओं में उपलब्ध जीवाणु व बीषाणु कम समय तक सक्रिय रहते हैं। अधिक व कम तापमान पर ये शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। जब से राज्य बना जैविक के नाम पर रुद्रपुर, काशीपुर, व विकास नगर में स्थापित कुछ कंपनियों विभागीय अधिकारियों से मिलकर टेंडर प्रक्रिया से अपनी दरें अनुमोदित कराकर विभाग को योजनाओं में निम्न स्तर की इन दवाओं की आपूर्ति करती आ रही है। इन दवाओं का प्रयोग कृषक नहीं करते। कभी-कभी तो दवा के ये पैकैट गाड़ गधेरों में पड़े मिलते हैं। यही नहीं इनमें से कई कंपनियों ने तो गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) भी बना रखे हैं तथा विभागीय अधिकारियों से सांठ-गांठ कर विभिन्न जनपदों में परम्परागत कृषि विकास योजना का संचालन भी कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री की पन्द्रह हजार करोड़ रुपए की इस महत्वाकांक्षी योजना, जिसका उद्देश्य लघु एवं सीमांत क्षेणी के पर्वतीय एवं वर्षा पर आधारित क्षेत्र के कृषकों की आर्थिक मदद से स्थानी परंपरागत फसलों को जैविक मोड में कर कृषकों की आय दोगुनी करने का है। कृषकों की आय तो दोगनी होने से रही नौकरशाह व बीज दवा खाद आपूर्ति करने वालों की आय अवश्य कई गुना बढ़ेगी। परंपरागत कृषि विकास योजना में औद्यानिक कार्यों की थर्ड पार्टी द्वारा जांच की बात सरकार कर रही है, किंतु जब विभागों के नौकरशाह (शासन प्रशासन) निवेश आपूर्ति करता फर्में व निवेश क्रय करने वाले विभागों की ही टेस्टिंग लैब विगत बीस वर्षो से साथ मिलकर काम कर रहे हों, जांच निष्पक्ष व प्रभावी होगी, उम्मीद करना बेमानी है।
उत्तराखंड में कार्यदाई विभागों द्वारा जैविक खेती के नाम पर कृषकों को टेंडर प्रक्रिया से क्रय किए गए निम्न स्तर के बीज, दवा, खाद आदि सामाग्री बांट कर योजना की इतिश्री कर दी जाती है। कभी भी सिक्किम राज्य की तरह किसानों को स्वयं जैविक बीज-खाद उत्पादन हेतु प्रेरित नहीं किया गया।
राज्य में परंपरागत कृषि विकास योजना से कृषकों की आय कैसे दोगनी हो रही है पढ़ें निम्न रिपोर्ट :-
वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र सिंह रावत ने लिखा है कि उत्तराखंड बागवानी विभाग का कमीशन करिश्मा, घटिया टमाटर के बीज से किसानों की लाखों की मेहनत पर पानी फेरा…! इसीलिए प्रदेश का कोई भी बागवान अनुदान के बावजूद बागवानी विभाग से नहीं लेता, बीज, खाद व कीटनाशक। मोटा कमीशन लेकर घटिया कम्पनियों से होती है, करोड़ों की खरीद। यों लुटता है जनता का पैसा और चौपट होती हैं फसलें। हिमाचल प्रदेश में सिर्फ नामी और प्रतिष्ठित कंपनियों से होती है खरीद। लगता है इस सरकारी महा घोटाले के खिलाफ हाईकोर्ट की शरण में जाना पड़ेगा और जिम्मेदार अधिकारियों पर ठोका जाएगा किसानों की बर्बादी का करोड़ों का मुकदमा…!
वरिष्ठ पत्रकार नीरज उत्तराखंडी ने लिखा है कि बोलती तस्वीर! … खराब निकले टमाटर के बीज ने काश्तकारों की मेहनत और उम्मीदों पर फेरा पानी। आसमान से छूटे खजूर पर अटके
उत्तराखंडी ने आगे लिखा है कि जी हां! ऐसी ही कुछ हालत है टमाटर की फसल खराब हुए किसानों की। उद्यान विभाग की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी किसानों की आजीविका पर भारी पड़ रही है। उद्यान विभाग द्वारा काश्तकारों को निम्न गुणवत्ता का बीज दिये जाने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है। किसानों ने उद्यान अधिकारी को ज्ञापन भेजकर उचित मुआवजे की मांग की है।
जनपद देहरादून के पर्वतीय जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर की तहसील त्यूनी के ग्राम पंचायत कुल्हा के विऊलोग तथा मुन्धोल ग्राम पंचायत के चांदनी वस्ती खेड़ा में एक दर्जन से अधिक किसानों ने टमाटर की नगदी फसल की खेती इस उम्मीद से की थी कि उनकी आर्थिक मजबूत होगी और घर का खर्चा भी चलेगा साथ ही दवा खाद का व्यय भी वसूल होगा, लेकिन उन्हें क्या पता था कि उद्यान विभाग ने जो टमाटर का कथित जैविक बीज उन्हें उपलब्ध करवाया है, वह निम्न गुणवत्ता का होगा और उनकी मेहनत और उम्मीद पर पानी फेर देगा।
बताते चलें कि उद्यान विभाग ने डेढ़ दर्जन से अधिक काश्तकारों को क्षेत्र में पीकेबीवाई के अंतर्गत टमाटर का जो कथित जैविक बीज देकर दावा किया कि यह उत्तम गुणवत्ता का बीज है, इससे पैदावार अच्छी होगी और उन्नत गुणवत्ता के फल लगने से बाजार में इसकी मांग काफी है, जो कम लागत पर अधिक उत्पादन देता है। जिससे आर्थिकी को सम्बल मिलेगा और आय अर्जित करने का एक बड़ा जरिया साबित होगा, लेकिन वक्त ने विभाग के सारे दावे और बीज की हकीकत की पोल खोलकर रख दी। दिन रात पसीने से नहाने वाले किसानों के खून पसीने मेहनत मिट्टी में मिल गई। बीज और फल इतना घटिया निकला कि किसानों को टमाटर खेत में ही छोडऩे को मजबूर होना पड़ा।
टमाटर के मरियम पौध उस पर लगे निम्न गुणवत्ता के टमाटर जिसकी कोई बाजार वैल्यू नहीं। किसानों ने जब विभाग को अवगत कराया तो टीम ने खानपूर्ति के लिए खेतों का निरीक्षण तो किया, लेकिन किसानों को क्षतिपूर्ति की कोई भरपाई की और न ही मुआवजा ही दिया गया।
ज्ञान सिंह, सुरत सिंह, नरेन्द्र, जवाहर सिंह प्रताप सिंह, सुमित्रा देवी, प्रकाश, कमाल चंद, भगत राम हरिमोहन आदि काश्तकारों ने बताया कि विभाग द्वारा उन्हें बीज दिया गया वह घटिया गुणवत्ता का निकला, जिससे उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ा। फसल जब फलन में आई तो उसका फल बेकार निकला जो घटिया गुणवत्ता के चलते बाजार भाव की प्रतिस्पर्धा में पीट गया। घटिया उत्पादन के जलते टमाटर तोडऩा ही छोडऩा। काश्तकारों ने मुख्य उद्यान अधिकारी को ज्ञापन भेजकर उचित मुआवजा दिये जाने की मांग की है। इस संबंध में जब काश्तकारों को दिये गये विभाग के अधिकारी जसोला के मोबाइल नंबर पर उनका पक्ष जानने के लिए सम्पर्क किया गया तो संपर्क नहीं हो सका।
अमूमन यही हाल राज्य के सभी जनपदों के हैं। उच्च स्तर पर योजनाओं का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर होता है कि विभाग को कितना बजट आवंटित हुआ और अब तक कितना खर्च हुआ, राज्य में कोई ऐसा सक्षम और ईमानदार सिस्टम नहीं दिखाई देता, जो धरातल पर योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में सुधार ला सके।
राज्य में जैविक एक्ट लागू कर देश में जैविक एक्ट वाला पहला प्रदेश उत्तराखंड कह कर राज्य जैविक प्रदेश नहीं बनने वाला। जब तक कार्यदायी विभागों के नौकरशाह व दवा बीज कम्पनियों के (माफिया) संगठित भ्रष्टाचार करने वालों को बेनकाब कर सजा नहीं दी जाती तथा योजनाओं के क्रियान्वयन में पारदर्शिता नहीं लाई जाती, उत्तराखंड जैविक प्रदेश बनेगा, यह सोचना बेमानी है।
(लेखक कृषि एवं उद्यान और एकीकृत आजीविका सहयोग परियोजना उत्तराखंड के वरिष्ठ सलाहकार हैं।)