विधायक मनोज रावत की कलम से
कुछ दिन पहले मुझे किसी ने व्हाट्सएप भेज कर बताया कि आजकल उत्तराखंड के युवा नया और ताकतवर भू-कानून बनाने के लिए सभी उपलब्ध सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक नई और महत्वपूर्ण मुहिम चला रहे हैं। वे चाहते थे कि मैं भी इस विषय पर कुछ लिखूँ।
मुझे बहुत खुशी हुई ये अभियान बहुत पहले हो जाना चाहिए था, पर हुआ नहीं। 6-7 दिसंबर 2018 को पहाड़ों में उबाल आ जाना चाहिए था, पर तब नही आया। 6 दिसंबर 2018 को जिस दिन प्रदेश की भाजपा सरकार ने उत्तराखंड की विधानसभा में उत्तराखंड(उत्तर प्रदेश)जमींदारी विनाश एवम भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 (ZARL) में धारा 143(क) और 154 में धारा – 2 का प्रतिस्थापन किया गया था। उसके अगले दिन उत्तराखंड के पहाड़ी जिलो के लोगों को सड़कों पर उतर जाना चाहिए था, पर तब न विधानसभा के भीतर न अखबारों या चैनलों में और न ही समाज, युवाओं और बुद्धिजीवियों के बीच इन परिवर्तनों पर छपा, चला या आंदोलन तो दूर घंटाघर तक कैंडल मार्च भी नही हुआ।
उस दिन विधानसभा में इस विधेयक के विरोध में केवल मैं ही बोल पाया था, क्योंकि विधायकों को बिल की कॉपी बांटी नही गयी थी।
मैने भी जब उस दिन विधानसभा की कार्यसूची देखी और उसमें (ZARL) में परिवर्तन के लिए 1 महीने पहले लाये महामहिम के ordinance को बिल के रूप में लाने का मद देखा तो मैं नेता प्रतिपक्ष स्वर्गीय इंदिरा ह्रदयेश जी के पास गया और पूछा कि बिल की कॉपी तो मिली ही नही है, चर्चा कैसे करेंगे? उनको कॉपी दी गयी थी, मैंने उनसे कॉपी मांगी। समय कम था 10 मिनट बाद बिल पर चर्चा होनी थी, मैंने बाहर जाकर कुछ तैयारी की और जो बन पड़ता था बोला। पत्रकार जय सिंह रावत जी और कुछ सेवानिवृत्त राजस्व अधिकारियों से ही मेरी इतने कम समय में बात हो पाई थी।
विधानसभा या संसद में कैसे किसी विवादित बिल को सरकारें पास करवाती हैं, इसका उदाहरण ये बिल और संसद में पास कराया गया कृषि कानून है। 5 दिसंबर और 6 दिसंबर 2018 को इस काले कानून को पास करवाने के लिए अंदरखाने क्या-क्या हुआ, इसे मैं कभी भविष्य में पूरा खुल कर लिखूंगा, परंतु समझ लीजिए कि सब कुछ पहले से सेट था। भाजपा सरकार जानती थी कि उत्तराखंड के पहाड़ों को नीलाम करने का षड्यंत्र, उत्तराखंड के लोग सहन नही कर पाएंगे, इसलिए सरकार की कई दिनों की तैयारी थी। सरकार की रणनीति थी कि 6 अक्टूबर 2018 को राज्यपाल के अध्यादेश द्वारा लाये इन परिवर्तनों को तो वह बहुमत के सहारे पास करवा ही देगी ही, लेकिन पहाड़ में इस नीलामी के विरोध में उबाल नही आना चाहिए। इसलिए उसने पर्दे के पीछे और पर्दे के आगे की सारी तैयारियां पूरी कर रखी थी।
स्वर्गीय प्रकाश पंत जी ने जब ये बिल पेश किया तो ऐसा दिखाया जैसे कि कुछ हो ही नही रहा हो और अगर हो भी रहा हो तो उत्तराखंड की बेहतरी के लिए, बिकास के लिए या कंहें अमूल-चूल परिवर्तन के लिए ही उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश) जमींदारी विनाश एवम भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 में धारा 143(क) और 154 में धारा – 2 में परिवर्तन किए जा रहे हैं। उनके भाषण में सपने ऐसे दिखाए गए थे कि जैसे इन सुधारों के बाद उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में इन्वेस्टमेंट की गंगा बह जाएगी।
इंदिरा जी ने तो बिल को पेश करते समय स्वर्गीय प्रकाश पंत जी के भावुक भाषण से इस बिल को उत्तराखंड को स्वर्ग बनाने वाला बिल समझ कर उनके भाषण समाप्त करते ही इसे हल्द्वानी और रामनगर के भाभर इलाके में भी लागू करने की शिफारिश कर दी थी।
फिर मैंने उपलब्ध जानकारियों के हिसाब से बोलना शुरू किया, जितना समय मुझे मिला, मैंने सरकार के पहाड़ों को बेचने के इस षड्यंत्र का पूरा विरोध किया। उस दिन बरिष्ठ विधायक और कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह जी भी इस बिल पर बोलना चाहते थे, पर उन्हें तैयारी का समय ही नही मिला। वे हिमांचल के भू-कानून के व्याहारिक पहलू को वंहा के नजदीकी होने के कारण जानते थे, पर अचानक लाये गए इस बिल से वे भी भौंचक्के थे। उन्होंने मेरा साथ दिया मेरे जबाब के बाद सदन में मेरी नेता इंदिरा जी भी सरकार के पहाड़ों को बेचने के षड्यंत्र को समझ गयी थी। सरकार 57 के बहुमत के सहारे बिल पास करवाने पर आमादा थी, इसलिए हम संख्या में केवल 11 विधायकों के पास बहिर्गमन के अलावा कोई चारा नहीं था।
उस दिन की सदन की कार्यवाही भी संलग्न की जा रही है, ताकि रुचि रखने वाले लोग इसे भी पढ़ सके।