मुंजा (munja) एक लाभदायक खरपतवार है
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
मुंजा एक बहुवर्षीय घास है, जो गन्ना प्रजाति की होती है। यह ग्रेमिनी कुल की सदस्य है। इसका वैज्ञानिक नाम सेक्करम मूंज है। मूंज को रामशर भी कहते हैं। मुंजा घास नदियों के किनारे, सड़कों , हाईवे, रेलवे लाइनों और तालबों के पास जहाँ खाली जगह हो, वहां पर प्राकृतिक रूप से उग जाती है 7 इसके पौधे, पत्तियां , जड़ व तने स अधिकतर अकृषि योग्य भूमि जहां कोई फसल व पौधा नहीं पनपता, वहां पर यह खरपतवार आसानी से विकसित हो जाती है। यह नदियों के किनारे, सड़कों, हाईवे, रेलवे लाइनों और तालाबों के पास, चरागाहों, गोचर, ओरण आदि के आसपास जहाँ खाली जगह हो वहां पर स्वतः प्राकृतिक रूप से उग जाती है। इसकी पत्तियां बहुत तीक्ष्ण होती हैं। इसकी पत्तियों से हाथ या शरीर का कोई भाग लग जाए तो वह जगह कट सकती है और खून निकल सकता है।
इसकी इस विशेषता के कारण इसको अपने खेत के चारों ओर मेड़ों पर लगाया जाता हैं, जिससे जानवरों से फसल को सुरक्षा मिलती है। इसके पौधे, पत्तियां, जड़ व तने सभी औषधीय या अन्य विभिन्न कार्यों जैसे गाय व भैंस को हरे चारे के रूप में, पत्तियों की कुट्टी करके पशुओं को खिलाने में,रस्सी बनाने में, मूंज फर्नीचर बनाने में उपयोग में लाए जाते हैं। औषधीय या अन्य किसी न किसी प्रकार पयोग में लाए जाते हैं। इसकी हरी पत्तियां पशुओं के चारे के लिए प्रयोग में आती हैं। जब अकाल पड़ता है उस समय इसकी पत्तियों को शुष्क क्षेत्रों में गाय व भैंस को हरे चारे के रूप में खिलाया जाता है। पत्तियों की कुट्टी करके पशुओं को खिलने से हरे चारे की पूर्ति हो जाती है। यह बहुवर्षीय घास भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान के सुखा क्षेत्रों में पायी जाती है। इसकी जड़ों से औषधीयां भी बनाई जाती है। राष्ट्रीय स्तर पर इनकी और खपत बढने की प्रबल संभावनाएं हैं।
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पुराने समय में जब अंग्रेजी दवाईयों का प्रचलन नहीं था तो औषधीय पौधों को वैध और हकीम विभिन्न बीमारियों के उपचार के लिए प्रयोग में लाते थे। हमारे कई ग्रंथों में बहुत सी बहुमूल्य जीवनरक्षक दवाइयां बनाने वाली बूटियों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें सरकंडा (मुंजा) की जड़ों का औषधीय उपयोग का भी उल्लेख है। आधुनिक युग में औषधीय पौधों का प्रचार व उपयोग अत्यधिक बढ़ गया है। इसका सीधा असर इनकी उपलब्धता व गुणवत्ता पर पडा है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बहुत अधिक प्रयोग में लाया पहाड़ों का भू कटाव रोकने के लिए अंज, मुंज और एलोफन घास के रोपे गए बीज कारगर साबित हुए हैं। इसकी जड़ों और पत्तियों का प्रयोग विभिन्न प्रयोग की औषधीयां बनाने में किया जाता है। इसके लाभ ज्यादा हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में इससे भूमिहीन कृषकों और ग्रामिणों को रोजगार मिलता है। भारत, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान आदि देशों में मुंजा से ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 33 प्रतिशत रोजगार मिलता है।
आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शादी – पार्टियों में इससे बने उत्पाद काम में लिए जाते हैं। इसकी रस्सी से बनी चारपाई बीमार व्यक्तियों के स्वास्थ्य के लिए भुत उपयोगी है। मुंजा की रस्सियों से बनी चारपाई पर सोने से कमर दर्द और हाथ – पैर में दर्द नहीं होता है। पशुओं के पैर में हड्डियां टूट जाने पर इसके सरकंडों को मुंजा की रस्सी से चरों तरफ बंधने पर आराम मिलता है। पशुओं व मनुष्यों में इससे बने छप्पर के नीचे सोने पर गर्म लू का प्रभाव कम हो जाता है। मुंज से तैयार सामान की मांग तो बहुत है। लेकिन इसके निर्माण में काफी समय खर्च होते है। इस लंबे समय तक घरेलू खर्च चलाना काफी मुश्किल होता है। नतीजा एक कारीगर चाहकर भी पूरा दिन इसमें नहीं लगा पाती है। अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को जुटाने में वे मेहनत-मजदूरी भी करनी पड़ती है। सरकारी सहायता के अभाव में इन कारीगरों का इस काम से मोह भंग होने लगा है।
उत्तराखंड के ऊधम सिंह नगर जिले की थारू जनजाति महिलाएं भाई-बहनों के त्यौहार के लिए विशेष तरह की राखियां तैयार कर रही है। यह राखियां बेहद ही खास है। ऊधम सिंह नगर जिले के खटीमा की जनजातीय महिलाएं अपने विशेष कृतियों के निर्माण के लिए जानी जाती है। खटीमा की थारू जनजाति की महिलाओं ने इस बार मूंज घास से राखियां बनाईं हैं। इन्हें जिले के अधिकारी खूब पसंद कर रहे हैं। इससे पहले महिलाएं गृहसज्जा, किचन में इस्तेमाल होने वाले सामान, आकर्षक टोकरियां, टोपी, डलियां, फ्लावर पॉट आदि बनातीं थीं। राखी के लिए खटीमा के जीवन ज्योति पहेनिया क्लस्टर से जुड़ी 30 महिलाएं राखियां बना रहीं हैं।
हिंदू धर्म में पवित्र मानी जाने वाली कुश और मूंज घास की राखियां बना रहीं हैं। मूंज घास से बने उत्पाद ऑनलाइन भी बेचे जा रहे हैं। बताया कि घास को पानी वाले रंग से रोगन कर उसमें कई तरह की डिजाइन बनाए जा रहे हैं। रुद्रपुर मुख्यालय में 100 राखियां पहुंचा दी गईं हैं। खटीमा की बारहराणा अन्नपूर्णा संस्था ने भी 100 राखियों की मांग दी है। संस्था की बहनें बनबसा में जाकर बटालियन में रहने वाले सैनिकों को राखियां बांधेंगी.परियोजना निदेशक के माध्यम से राखियां सीएम तक भी पहुंचाई जाएंगी। यह राखियां स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से भी लाभदायक हैं। इससे थारू जनजाति की महिलाओं को रोजगार के भी अधिक अवसर मिले हैं। इन राखियों की कीमत 10, 20, 50, 100 रुपये तक है।
राज्य गठन के बाद बदली परिस्थितियों में अवस्थापना सुविधाओं के विकास, राज्य में पर्यटकों के अवागमन व आनलाइन मार्केटिंग की सुविधा विकसित होने से राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथकरघा, हस्तशिल्प व सोवेनियर उद्योग के उत्पादों की ओर रुझान बढ़ा है। इसे देखते हुए यह माना गया कि यहां के पारंपरिक उद्योगों को समुचित तकनीकी प्रशिक्षण, डिजाइन विकास, कच्चे माल की उपलब्धता व नवोन्मेष के आधार पर फिर से स्थापित किया जाता है तो इन उत्पादों को बाजार में प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकता है। इससे स्थानीय स्तर पर मूल्य संवर्द्धन के साथ ही रोजगार के अधिक अवसर बन सकते हैं।
सचिव उद्योग ने कहा कि उत्तराखंड का हस्तशिल्प देश-दुनिया में मजबूती के साथ खड़ा हो, इसके लिए गंभीरता से प्रयास किए जा रहे हैं। जरूरी नहीं कि सोने के आभूषण ही महिलाओं के शृंगार में चार चांद लगाएं। फैशन के इस दौर में मूंज घास से निर्मित कंगन और मांग टीका सहित अन्य आभूषण सुंदरता को चमका सकती है।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )