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दरकते पहाड़ धंसती जमीन

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दरकते पहाड़ धंसती जमीन

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हरीश चन्द्र अन्डोला

राज्य का कोई ऐसा पर्वतीय जिला नहीं है, जहां भवनों और सड़कों को भूस्खलन के कारण नुकसान नहीं पहुंचा हो। विशेषज्ञों की मानें तो बारिश का पानी पहाड़ों में रिसकर भूस्खलन का बड़ा कारण बन रहा है। इस वर्ष मार्च में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राष्ट्रीय सुदूर संवेदी केंद्र (एनआरएससी) भूस्खलन पर आधारित मानचित्र रिपोर्ट में उत्तराखंड के सभी 13 जिलों में भूस्खलन से खतरा बताया था।

इस रिपोर्ट के अनुसार, रुद्रप्रयाग जिले को देश में भूस्खलन से सबसे अधिक खतरा है, जबकि भूस्खलन जोखिम के मामले में देश के 10 सबसे अधिक संवेदनशील जिलों में टिहरी दूसरे स्थान पर है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड का 72 प्रतिशत यानि 39 हजार वर्ग किमी क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित है। 1988 और 2022 के बीच उत्तराखंड में भूस्खलन की 11,219 घटनाएं दर्ज की गई हैं। वर्ष 2015 से अब तक उत्तराखंड में भूस्खलन की घटनाओं में 300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इस वर्ष अकेले रुद्रप्रयाग जिले
में 15 जून से अब तक प्राकृतिक आपदाओं में 19 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है।

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केदारनाथ यात्रा मार्ग के पास गौरीकुंड में चार अगस्त को हुए भूस्खलन के बाद से 15 अन्य लोग लापता हैं। वैज्ञानिक और स्थानीय लोग चिंतित हैं, क्योंकि मानसून के एक महीने से अधिक समय शेष रहते हुए पिछले साल की तुलना में लगभग पांच गुना ज्यादा भूस्खलन हुआ है। राज्य आपातकालीन संचालन केंद्र की ओर से जारी डाटा के अनुसार,2022 में 245 की तुलना में इस वर्ष 1,123 भूस्खलन की घटनाएं हुई हैं। बारिश के पैटर्न में बदलाव, बादल फटने, अचानक बाढ़ और मूसलाधार बारिश जैसी मौसम की घटनाओं में वृद्धि भूस्खलन का एक बड़ा कारण हैं। पहाड़ों में निरंतर सड़क और सुरंग निर्माण से जुड़े बुनियादी ढांचे का विकास भी एक बड़ा कारण हैं।

वहीं, उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्यकारी निदेशक का कहना है कि भूस्खलन गुरुत्वाकर्षण के प्रत्यक्ष प्रभाव के तहत मिट्टी और चट्टान के किसी भी ढलान वाले हिस्से को दर्शाता है। एक पहाड़ी राज्य होने के नाते, उत्तराखंड भूस्खलन सहित प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है। बारिश के साथ समस्या बढ़ जाती है, क्योंकि लगातार वर्षा ढलान की प्राकृतिक स्थिरता को बिगाड़ देती है। भूस्खलन और भूधंसाव से 10 मकान व गोशालाएं ध्वस्त हो गए। घरों के गिरने से सामान क्षतिग्रस्त हो गया। ग्रामीणों को पास के गांव के एक स्कूल में शिफ्ट करा दिया गया है। गांव में आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। प्रशासन ने गांव के सभी 35 परिवारों के लगभग 300 लोगों को ग्राम पष्टा स्थित राजकीय प्राथमिक विद्यालय में शिफ्ट कर दिया है।

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पहाड़ों में विकास की योजनाएं बनाते हुए बेहद सावधानी बरतने की जरूरत है। उत्तराखंड में पर्वतीय ढलानों में चट्टानों की बनावट, उसके मिश्रित अन्य कण, मिट्टी का प्रकार हर जगह अलग है। भूस्खलन की एक क्षेत्र की घटना को दूसरी जगह हुई घटना से नहीं जोड़ा जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्र में ढलानों पर निर्माण से बचा जाना चाहिए। चिह्नित संवदेनशील क्षेत्रों में बारिश की चेतावनी संग सावधानी बरतने की जरूरत है। पूरा हिमालयी क्षेत्र भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है। एनआरएसी की रिपोर्ट के आधार पर विस्तृत अध्ययन होना चाहिए। भूस्खलन से वास्तविक नुकसान कितना है। कितनी आबादी को वह प्रभावित कर रहा है। इससे नीति नियामक यह तय कर सकते हैं कि उन्हें किस तरह की योजना बनानी है। 1988 और 2022 के बीच उत्तराखंड में भूस्खलन की 11,219 घटनाएं दर्ज की गई हैं। वर्ष 2015 से अब तक उत्तराखंड में भूस्खलन की घटनाओं में 300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। लैंडस्लाइड और मकानों में दरारें हिमालय में बड़े प्रोजेक्ट का हैं

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भूस्खलन, भूकंप और बाढ़ आदि निश्चित रूप से प्राकृतिक आपदाएं हैं। इन पर काबू पाना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन इन्हें कम जरूर किया जा सकता है। भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं तो इसके पीछे वाजिब कारण भी हैं। उत्तराखंड की त्रासदी के बाद यह एक तरह से स्थापित सत्य मान लिया गया था कि यह आपदा प्राकृतिक से कहीं ज्यादा मानव निर्मितथी।अंध विकास के नाम पर बिना किसी ठोस वैज्ञानिक सोच के नदियों पर बांध बनाना, पहाड़ों पर से पेड़ों और अन्य वनस्पतियों को लगातार काटते जाना, जैव विविधता का खत्म होते जाना, आबादी का विस्तार और अनियंत्रित निर्माण आदि की वजह से पारिस्थितिकी को बहुत नुकसान पहुंच रहा है। जब पहाड़ों पर प्राकृतिक पेड़ और वनस्पतियां ही नहीं बचेंगी और पत्थरों को तोड़कर अन्य कार्यों में उपयोग किया जाता रहेगा तो पहाड़ों का आधार कमजोर होता जाएगा।

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हाल ही में मीडिया से चर्चा में आये जोशीमठ शहर की धंसने एवं यहां के भवनों में आई दरारों का कारण भी वैज्ञानिकों का मानना है कि क्षेत्र में
बन रही जल विद्युत परियोजनाओं की सुरंगें ही हैं। स्थानीय लोगों एवं अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तराखण्ड में कई ऐसी योजनाएं हैं, जैसे सड़कों का चौड़ीकरण, पुल, भवन, जलाशय, सुरंग, रोपवे आदि का निर्माण होने से धरातल में दरारों का आना, भूस्खलन होना आदि की घटनाओं से बाढ़ आती रहती है। विकास के नाम पर हम जिस प्रकार बहुउद्देश्यीय योजनाएं उन क्षेत्रों में बना रहे हैं। जो अत्यंत कमजोर है इसका अभिप्राय यह भी कतई नहीं है कि क्षेत्र में सड़कें पुल, भवन, जल विद्युत योजनाऐं नहीं बननी चाहिए।अतः विकास की किसी भी योजना का कार्यान्वय करने पहले ही स्थानीय आवश्यकताओं के साथ स्थानीय भूगर्भ/भूगोल का खयाल अवश्य रखना चाहिए। यह क्षेत्र चीन/तिब्बत से लगा है सामाजिक दृष्टि से भी संवेदनशील है।

औपचारिकताएं पूरी करने के लिये सरकारों द्वारा मानकों को पूरा किया जाता होगा, क्योंकि चतुर वैज्ञानिकों एवं अवसर वादी स्थानीय नेतृत्व को इस प्रकार की बड़ी योजनाओं के ठेकेदार हमेशा से अपने पक्ष में करते रहे हैं, आर्थिक लाभ एवं पर्यावरणीय नुकसान का आंकलन तटस्थ रूप से होना आवश्यक है। उत्तराखण्ड हिमालय बचेगा, तभी देश के उपजाऊ मैदान बचेंगे, तभी उर्वर मिट्टी बनेगी, जलवायु पर नियंत्रण होगा, शुद्ध जल की आपूर्ति होगी, कार्बन सोखने के जंगल सुरक्षित रहेंगे, तीर्थाटन, साहसिक, पर्यटन हो पायेगा सामाजिक दृष्टि से भी सुरक्षित रहेंगे, यहाँ की संस्कृति एवं परम्परा बच पायेंगी, प्रकृति के सहवासी जीव, जन्तु, औषधीय एवं सुगंध फूल पत्तियां, जड़ी-बूटियां, बुग्याल सुरक्षित रह पायेंगे। अल्प लाभ के कारण स्थानीय पलायन कर संसाधनों की लूट के लिये प्लेटफार्म तैयार कर रहा है। वन्य जीव जंतुओं को जंगलों में भोजन नहीं मिल रहा है तो गॉव/शहरों/वसासतों की ओर आ रहे हैं।

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पलायन के कारणों को स्थानीय स्तर पर समझना होगा। उनको समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर योजनायें भी बनानी होंगी। स्थानीय लोगों को निर्णय में भागीदार बनाना होगा। स्थानीय लोगों को शामिल न करने के कारण उनका उस योजना के रख रखाव में अपनत्व का लगाव ही नहीं होता है। स्थानीय लोगों के साथ बैठकर उन्हीं के लिये योजनाएं बनाई जायेंगी तो शायद हिमालय के जल, जंगल, जमीन के साथ संस्कृति, परम्पराएं, रीति, रिवाज एवं उनको संरक्षित करने वाला हिमालयवावासी सुरक्षित होगा, ऐसे स्वस्थ एवं खुशहाल उत्तराखण्ड के लिये जमीनी स्तर पर कार्य करने की जरूरत है। उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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