उत्तराखंड (Uttarakhand) को किसकी नजर लग गई - Mukhyadhara

उत्तराखंड (Uttarakhand) को किसकी नजर लग गई

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उत्तराखंड (Uttarakhand) को किसकी नजर लग गई

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में इस साल का मॉनसून अब तक के सबसे घातक मानसूनों में से एक साबित हो रहा है। दो महीने पहले शुरू हुई बारिश के बाद से प्राकृतिक आपदाओं में 75 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। इनमें से 80% से अधिक की मौत भूस्खलन की वजह से हुई है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण का कहना है कि उत्तराखंड का 72% यानीकि लगभग 39,000 वर्ग किमी क्षेत्र भूस्खलन को लेकर संवेदनशील है। इसरो का भारतीय भूस्खलन एटलस के मुताबिक, साल 1988 और 2022 के बीच उत्तराखंड में सबसे ज्यादा भूस्खलन इस साल आए हैं। यहां भूस्खलनों की संख्या मिजोरम के 12 हजार 385 के बाद 11,219 नंबरों के साथ दूसरे स्थान पर है। पिछले कुछ दशकों से नदियों को हमने इस कदर मार दिया है कि अब तो उसके इलाके/क्षेत्र को भी बेकार का मानकर उस पर इमारतें, उद्योग और दूसरी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को खड़ा कर दिया है, अपनी सुविधा के लिए इसका मार्ग बदल दिया है, बड़े बांधों को बनाकर इनके प्रवाह को रोक दिया है, नहरों के माध्यम से इसके पाने को निकालकर कहीं और बहा दिया है।

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हिमालय के ऊपरी बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में नदियाँ बिजली बनाने का साधन रह गईं हैं। अब तो नदियों से सम्बंधित खबरें भी केवल बाढ़ के समय या फिर नदी-जल विवादों के समय आती है। जब से गंगा मैया ने मोदी जी को बुलाया है, गंगा के प्रदूषण पर चर्चा ख़त्म हो गयी है। यमुना की चर्चा भी केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री और एलजी के आपसी विवाद के समय ही होती है। दरअसल हमारे प्रधानमंत्री वसुधैव कुटुम्बकम का जाप करते-करते केवल अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को ही समस्या मान बैठे हैं, और मीडिया भी यही कर रहा है। अब जलवायु परिवर्तन की चर्चा तो होती है, पर स्थानीय वायु प्रदूषण की चर्चा गायब हो गयी है। अब हम महासागरों की चर्चा करते हैं और अपनी नदियों, झीलों और तालाबों को लूटना तो जानते हैं पर किसी लायक नहीं समझते।पर्यावरण मंत्री भी केवल जलवायु परिवर्तन पर ही कुछ बोलते हैं।

दरअसल बाढ़ और भू-स्खलन का सबसे बड़ा कारण पर्यावरण मंत्रालय का है, यह मंत्रालय पर्यावरण संरक्षण के नहीं बल्कि उद्योगतियों की सेवा और अधिकारियों की जेब भरने के लिए काम करता है। साल में जब नदियों का पानी एक बार बढ़ता है तब नदियाँ कुछ हद तक साफ़ भी हो जाती हैं, वर्ना पर्यावरण मंत्रालय और तमाम प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के लिए नदियों की सफाई का काम तो करोड़ों रुपये की ऊपरी कमाई का एक साधन है उत्तराखंड में होने वाली विनाशकारी घटनाएं वैश्विक और स्थानीय जलवायु कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता को एक बार फिर सामने रखती हैं। विशेषज्ञ वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए ठोस प्रयासों के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर तत्काल अनुकूलन और शमन रणनीतियों की वकालत करते हैं।

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भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक स्थानीय स्तर पर डिसास्टर- प्रूफिंग की आवश्यकता पर जोर देते हैं। वह कहते हैं, स्थानीय स्तर पर जलवायु कार्रवाई और एडाप्टेशन वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर मिटिगेशन के समानांतर चलना चाहिए। हमें उप-जिलावार मूल्यांकन के आधार पर स्थानीय स्तर पर डिसास्टर-प्रूफ करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम तात्कालिक सुरक्षा चिंताओं से कहीं आगे तक फैले हुए हैं। इन क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण पर्यटन और पर्वतारोहण क्षेत्रों को हिमस्खलन, भूस्खलन, बाढ़ और हिमनद झील विस्फोट बाढ़ (जीएलओएफ) जैसे बढ़ते खतरों के कारण पर्याप्त चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु प्रभावों का अंतर्संबंध जलवायु संबंधी आपात स्थितियों से निपटने के लिए एक व्यापक, एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता को उजागर करता है। जैसे- जैसे मानसून के प्रकोप से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन इन क्षेत्रों की संवेदनशीलता को बढ़ा रहा है। तत्काल और निरंतर जलवायु कार्रवाई अब एक विकल्प मात्र नहीं है, बल्किजीवन, आजीविका और हिमालय के नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के लिए अनिवार्य कार्यवाही है।

उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में मानसून सीजन आफत की तरह आता है। इस दौरान भूस्खलन और चट्टानों के दरकने की खबरें आती रहती हैं। उत्तराखंड के लोगों ने आपदा के इतने भयावह दंश झेले हैं विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ों पर सावधानीपूर्वक योजना बनाना जरूरी है क्योंकि बेतरतीब विकास आपदा को न्योता देते हैं। दून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी) के निदेशक कहते हैं कि हिमालयी राज्य चाहे वह उत्तराखंड हो या हिमाचल ढलान पर बने हैं। प्रत्येक क्षेत्र में ढलान, वक्रता, रॉक लिथोलॉजी, रॉक स्ट्रेंथ आदि के अलग-अलग परिमाण होते हैं, इसलिए रिस्क मैप्स, भूस्खलन संवेदनशीलता और भूस्खलन भेद्यता मानचित्र बनाने के लिए एक भू-तकनीकी अध्ययन हिमालय क्षेत्र में भारी वर्षा और भूस्खलन की घटनाओं में सुरक्षा सुनिश्चित कर सकताहै।

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अनुभवी कार्यकर्ता और पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं कि हिमालय के पहाड़ युवा पर्वत हैं और अभी भी बहुत अच्छी तरह से निर्मित नहीं हुए हैं। इसलिए हमें विकास, विशेषकर बुनियादी ढांचे के विकास में सावधानी बरतने की जरूरत है। हमें याद रखना चाहिए कि जंगल पहाड़
के पर्यावरण की रीढ़ हैं लेकिन हाल के दिनों में उत्तराखंड ने सबसे ज्यादा वन भूमि खोई है। इससे पर्वतीय ढलानों की कमज़ोरियाँ उजागर हो गई हैं।चोपड़ा का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से स्थिति गंभीर हो सकती है। पर्यटन को बढ़ावा देने की चाहत में, हमने पर्याप्त भूवैज्ञानिक और पारिस्थितिक देखभाल किए बिना तेजी से प्रमुख हाइवे का निर्माण किया है। परिणामस्वरूप, हमारी ढलानें कमजोर होती जा रही हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के साथ बारिश की तीव्रता बढ़ती है, हम संभवतः उस प्रकार की कई और आपदाएँ देखेंगे जो हमने अब देखना शुरू कर दिया है।

पहाड़ों पर लगातार हो रही बारिश स्‍थानीय लोगों के लिए आफत साबित हो रही है। निरंतर हो रही बरसात के कारण कई सड़क मार्ग बंद हो गए हैं। बरसात के कारण हेलंग उर्गम मोटर मार्ग पिछले 20 दिनों से क्षतिग्रस्त है। इस कारण प्रसिद्ध तीर्थ पंचम केदार कल्पेश्वर महादेव मंदिर और ध्यान बद्री समेत लगभग 20 गांव सड़क मार्ग से कट गए हैं।ग्रामीणों के ऊपर अब रोजमर्रा की सामग्री जुटाने का संकट है। सड़क मार्ग क्षतिग्रस्त होने के कारण गांव तक राशन इत्यादि की पूर्ति नहीं हो पा रही है। गैस सिलेंडर न पहुंचने के कारण ग्रामीणों को खाना बनाने में भी दिक्कत हो रही है। ग्रामीण किसी तरह जंगल की गीली लकड़ी जलाकर जीवन गुजार रहे हैं। सड़क बंद होने के कारण तीर्थ यात्री पंचम केदार भगवान कल्पेश्वर महादेव के दर्शन नहीं कर पा रहे हैं। तीर्थयात्री हेलंग से ही वापस लौट जा रहे हैं।

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नंदी कुंड ट्रैकिंग एंड एडवेंचर ग्रुप देबग्राम के प्रबंधक संदीप नेगी का कहना है कि एडवांस बुकिंग रद्द हो रही है। इस वर्ष घाटी का तीर्थाटन व्यापार चरम सीमा पर था पर सड़क टूटने के कारण बुकिंग रद्द करनी पड़ रही है। हर साल लाखों की संख्या में ट्रैकिंग दल यहां से वंशी नारायण, नंदी कुंड, मद्महेश्वर, रुद्रनाथ, गिन्नी ग्लेशियर, सोना शिखर, चनाप घाटी, भनाई बुग्याल समेत ५० से अधिक ट्रेकिंग रूटों पर ट्रैक करते हैं। इससे स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलता है लेकिन इस वर्ष सड़क टूटने के कारण सारे व्यापार ठप हो गएहैं।! उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

 ( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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