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मोटे अनाज (coarse grains) पोषक तत्वों का भंडार

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मोटे अनाज (coarse grains) पोषक तत्वों का भंडार

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत जैसे देश जहां की जनसंख्या चीन से भी आगे निकल चुकी है, में मोटे अनाज का महत्त्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के साथ प्राकृतिक संसाधनों की कमी होना स्वाभाविक है।ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप हजारों लाखों वर्ष पुराने ग्लेशियर पिघल रहे हैं या पिघलने की कगार पर हैं। इन ग्लेशियर के नीचे लाखों वर्षों से दबे पड़े वायरस नदी-नालों के जरिए हम तक पहुंच कर कभी भी किसी महामारी के रूप में हमला कर सकते हैं। इसलिए हमें हमारे स्वास्थ्य के प्रति सावधान रहने की जरूरत है। जंक फूड को अलविदा कहकर हमें अपने पारंपरिक भोजन की ओर लौटने की नितांत आवश्यकता है।

दूसरी तरफ पर्यावरण के बिगड़ते संतुलन के कारण पृथ्वी पर पानी का संकट गहराता जा रहा है। नदी- नाले व प्राकृतिक स्त्रोत सूख रहे हैं तो भूमि के भीतर जलस्तर नीचे जा रहा है। पोषक तत्वों का भंडार अपने खेत-खलिहानों में ही है। पोषण व पौष्टिक आहार से भरपूर मोटे अनाजों से नाता जोड़ना होगा। यह हमारे पुरखों का भी आहार रहा है। कैल्शियम, फाइबर, विटामिन्स, आयरन और प्रोटीन से भरपूर हमारे भोजन को पौष्टिक बनाते हैं। ऐसे में धान एवं गेहूं की खेती करना किसान के लिए किसी जोखिम से कम नहीं। मोटे अनाज को उगाने के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है। यह फसल पानी की कमी होने पर खराब भी नहीं होती है और ज्यादा बारिश होने पर भी इसे ज्यादा नुकसान नहीं होता है। मोटे अनाज की फसल खराब होने की स्थिति में भी यह पशुओं के चारे के काम आ जाती है। बाजरा और ज्वार जैसी फसलें बहुत कम मेहनत में तैयार हो जाती हैं।

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आर्गेनिक खेती के विकल्प के रूप में भी मोटे अनाज की फसल को देखा जा सकता है क्योंकि मोटे अनाज वाली फसलों में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग करने की जरूरत नहीं होती है। इसी के साथ ही इन फसलों के अवशेष पशुओं के चारे के काम आते हैं। इसलिए इनको धान की पराली की तरह जलाना नहीं पड़ता और पर्यावरण प्रदूषण से भी बचा जा सकता है।कोरोना के बाद मोटे अनाज इम्युनिटी बूस्टर के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। इन्हें सुपरफूड भी कहा जाने लगा है।प्रदेश सरकार को भी मोटे अनाज की फसल को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष प्रकार की योजनाएं बनाने की जरूरत है। साथ में प्रदेश सरकार को मोटे अनाज के सेवन से होने वाले फायदों के विषय में जनता को अवगत करवाने के लिए प्रचार अभियान चलाना चाहिए ताकि मोटे अनाज की मांग बढऩे से आपूर्ति बढ़ाने के लिए किसान भी प्रयास कर सकें।

कर्नाटक, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में मोटे अनाज की बंपर खेती की जाती है। हालांकि हिमाचल का जलवायु ज्वार, बाजरा जैसी खेती के अनुकूल नहीं है, फिर भी रागी जिसे स्थानीय भाषा में मंडल कहा जाता है, उसकी खेती बड़े पैमाने पर की जा सकती है। उसी प्रकार पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय में मोटे अनाज की किस्मों पर अनुसंधान जारी है जो हिमाचल के जलवायु के अनुकूल हैं।

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कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर के वैज्ञानिकों के अनुसार मोटे अनाज में कैल्शियम, आयरन, जिंक, फास्फोरस, मैग्नीशियम, पोटेशियम, फाइबर, विटामिन, कैरोटीन, लेसिथिन आदि तत्त्व होते हैं। मोटे अनाज में ओमेगा थ्री फैटी एसिड की प्रचुर मात्रा होने के कारण यह हमें हृदय रोगों से बचाते हैं। मिलेट शरीर में स्थित अम्लता यानी एसिड दूर करता है। इसमें विटामिन होता है जो शरीर के मेटाबॉलिज्म की प्रक्रिया को ठीक रखता है जिससे कैंसर जैसे रोग नहीं होते हैं। मिलेट टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटीज को रोकने में सक्षम है। अस्थमा रोग में लाभदायक है मिलेट। बाजरा खाने से श्वास से संबंधित सभी रोग दूर होते हैं। यह थायराइड, यूरिक एसिड, किडनी, लिवर, लिपिड रोग और अग्नाशय से संबंधित रोगों में लाभदायक है क्योंकि यह मेटाबोलिक सिंड्रोम दूर करने में सहायक हैं। मिलेट पाचन तंत्र में सुधार करने में मदद करते हैं। इन्हें खाने से गैस, कब्ज, एसिडिटी जैसे पेट के कोई रोग नहीं होते हैं।

मिलेट में एंटीऑक्सीडेंट तत्त्व होते हैं जो शरीर में फ्री रेडिकल्स के प्रभाव को कम करते हैं। यह त्वचा को जवां बनाए रखने में मददगार हैं। मिलेट में केराटिन, प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन और जिंक हैं जो बालों से संबंधित समस्याओं को दूर करते हैं। मिलेट शरीर को डीटॉक्सीफाई करते हैं क्योंकि इसमें क्वेरसेटिन, करक्यूमिन, इलैजिक एसिड कैटिंस जैसे एंटीऑक्सीडेंट होते हैं। सुबह और शाम के नाश्ते में अगर हम मोटे अनाज की निश्चित मात्रा को अपने भोजन में शामिल कर लें तो अनेक रोगों से बचा जा सकता है। बस जरूरत है तो जागरूकता और सरकारी सहयोग की। इस समय पूरी दुनिया में मोटे अनाज की मांग बढ़ रही है। अत: कृषकों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि मोटे अनाज की खेती कम खर्च में की जा सकती है एवं मौसम की मार का जोखिम भी नहीं रहता। यह खेती पर्यावरण हितैषी भी है। भारत के परंपरागत भोजन को पूरी दुनिया में पहचान बनाने के लिए श्री अन्न योजना शुरू करने की बात कही थी।

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भारत में कई प्रकार के श्री अन्न की खेती होती है, जिसमें ज्वार, रागी, बाजरा, कुट्टू, रामदाना, कंगनी, कुटकी, कोदो, चीना और सामा शामिल हैं। 1960 के दशक में हरित क्रांति के नाम पर भारत के परंपरागत भोजन को हटा कर गेहूं, चावल, मक्कई को बढ़ावा दिया गया। मोटा अनाज खाना बंद कर देने से कई तरह के रोगों के साथ ही देश में कुपोषण भी बढ़ा। कोरोना महामारी के बाद मोटे अनाज की महत्ता को देखते हुए पूरी दुनिया का ध्यान मोटे अनाज की पैदावार पर केंद्रित हुआ है  मिलेट्स अत्यंत पोषक, पचने मे आसान तथा उगाने मे भी आसान होते हैं। इनका सही तरीके से उपयोग कई प्रकार की बीमारी से बचाव कर सकता है। अधिक उत्पादन भूख और कुपोषण की समस्या हल करने मे बहुत सहायक हो सकता है। अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेहूं-चावल के बजाय मोटा अनाज देने की जरूरत है। इससे पोषण सुधारने के साथ-साथ मोटे अनाज के उत्पादन और खपत को भी प्रोत्साहन मिलेगा।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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