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पहाड़ी सोना: औषधि गुणों का खजाना है उत्तराखंडी अनाज झंगोरा (Jhangora)

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पहाड़ी सोना: औषधि गुणों का खजाना है उत्तराखंडी अनाज झंगोरा (Jhangora)

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

झंगोरा एक ऐसा छोटे दानेदार वाला अनाज है जिसे हम बिना पीसे साबुत खाने के उपयोग में लाते हैं। बाजरा तो सभी जानते ही हैं, तो ये समझे कि ये भी उसी परिवार का एक हिस्सा है, बस झंगोरे में बाजरे की अपेक्षा अधिक फाइबर होता है यानी कि सेहत और पौष्टिकता के मामले में झंगोरा पहले पायदान पर है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ उत्तराखंड में ही लोग इसे पहचानते  है, अपितु देश के अन्य हिस्सों में भी इसे खूब पहचान मिली है। इसे लोग समा या श्यामक के चावल जबकि देश के दक्षिणी हिस्से में इसे ऊधलु, कुथीरवली और अन्य नाम से भी पहचानते है। इसे व्रत या उपवास में खाया जाने वाला अनाज भी माना गया है। सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु चीन, अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में भी इसकी
खेती की जाती है। उत्तराखंड के इस परंपरागत अनाज की खास बात तो ये एक तरीके से प्रकृति पोषित अनाज है, जिसपर अधिक देखरेख की आवश्यकता नहीं होती है, इसे असिंचित भूमि में बो दिया जाता है।

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फरवरी- मार्च में बुआई के साथ अक्टूबर तक झंगोरा तैयार हो जाता है।इसकी फसल यहाँ की भौगोलिक और जलवायु के अनुसार बिल्कुल उपयुक्त है। उत्तराखंड में लोग इसे ऐसे स्थानों पर बोते थे जहाँ पर जमीन उबड़ खाबड़ भी होती थी। इसे पहले लोग अपनी फसल कौणी  के साथ बोते थे या फिर धान की खेती के चारों ओर एक मेड़ की भाँति भी बो दिया करते थे जिसके अनाज से झुंगरियाल और बाकी फसल से पशुओं के लिए घास का प्रबंध कर दिया जाता था। इसे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का अनाज भी समझा जाता था जिसे लोग झंगोरे को सिर्फ एक पेट भरने वाला अनाज मात्र समझते रहे। गेंहू और धान चूंकि फसल के अनुसार कभी कम ज्यादा होता था इसीलिए आटा और चावल की अपेक्षा कोदा और झंगोरा को अपने आहार में प्रमुख रूप से सम्मिलित कर लिया। यहाँ तक कि पहले उत्तराखंड में भी प्रचलित था कि ‘लड़की का विवाह वहाँ करना चाहिए जहाँ गेंहू और धान अधिक मिले, झंगोरा तो प्राय: हर कहीं हो ही जाता है’, आशय यह है कि गेँहू और धान बड़ी फसल होती थी जिसे कि संपन्न परिवार के रूप में माना जाता था किंतु आज के समय में इसके सेवन से जो स्वास्थ्य लाभ मिल रहे हैं, उन्हीं के कारण अब एक बार पुन: ये उत्तराखंड का एक प्रचलित अनाज हो गया है, जिसे अब लोग बड़े चाव से बो भी रहे है और खा भी रहे हैं।

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अब तो शादी समारोह में भी ये एक शाही पकवान के रूप में परोसा जा रहा है। कोई झंगोरे की खिचड़ी तो कोई खीर परोस रहा है।जगह जगह पहाड़ी उत्पादों की प्रदर्शनी लग रही है, दुकाने सज रही हैं, कोई पहाड़ी अनाज तो कोई अनाज से बने व्यंजन बेच रहा है। उत्तराखंड के सिर्फ पहाड़ी क्षेत्र में ही नहीं अपितु देहरादून जैसे शहर में भी विभिन्न जगह पर झंगोरा आसानी से  मिल जाता है। खासकर, उत्तराखंड के युवा भी अब पहाड़ी उत्पादों को बढ़ावा देकर रोजगार का अच्छा स्रोत मान रहे हैं। हमारे एक मित्र अनुपम डंगवाल भी उत्तराखण्ड किसान  मंडी के नाम से
देहरादून में पहाड़ी उत्पादों का व्यापार करते हैं और बताते हैं कि झंगोरा यहाँ के आम लोगों के बीच में एक लोकप्रिय अनाज बन गया है और पौष्टिकता के कारण इसकी बिक्री भी पहले से अधिक हो रही है। झंगोरा एक ऐसा शानदार पौष्टिक अनाज है जो खनिजों का भंडार है। इसमें लौह तत्व की मात्रा अधिक होती है। ये भोजन को गैर अम्लीय रूप में पचाने की क्षमता रखता है, मतलब कि सबसे अधिक सुपाच्य श्रेणी का अनाज है, झंगोरा।

मधुमेह के रोगी भी इसे अपना आहार बनाते हैं क्योंकि इस अनाज में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम और फाइबर की मात्रा अधिक होती है जिससे
कि शरीर में ग्लूकोज़ की मात्रा संतुलित रहती है।झंगोरा अनाज की एक और खूबी है और वो यह है कि ये एक ग्लूटेन मुक्त अनाज है। ग्लूटेन एक प्रकार का प्रोटीन होता है जो गेँहू, राई और ओट्स जैसे अनाज में पाया जाता है और अब कुछ लोगों को इन अनाजों के खाने से भी बीमारी हो जाती है जिसे सेलिएक कहा जाता है। इस बीमारी में ग्लूटेन खाने से छोटी आंत को नुकसान पहुँचता है, इसीलिए झंगोरा एक बेहतर विकल्प है, ग्लूटेन मुक्त भोजन के लिए। अब जब इतनी सारी खूबियां इस अनाज में है तो उत्तराखंड के इस सुपरफूड को बिलियन डालर ग्रास नाम गलत तो बिल्कुल नहीं दिया है।  झंगोरा एक ऐसा अनाज है जिसका स्वाद नमकीन और मीठा दोनों व्यंजनों के रूप में लिया जाता है। चूंकि अब उत्तराखंड अपने पारंपरिक व्यंजनों को भी बढ़ावा दे रहा है तो अब झंगोरे में भी नये नये प्रयोग हो रहे हैं, जैसे कि कोई इसे पीस कर डोसा, उत्तपम और तो कोई उपमा जैसे व्यंजन बना कर झंगोरे का एक नया रूप सामने ला रहा है।

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उत्तराखंड के होटल भी यहाँ के पारंपरिक व्यंजनों को लेकर नये नये रूप में अपने मेहमानों को परोस रहे हैं कहीं इसे झंगोरे की खीर तो कहीं इसे झंगोरा पुडिंग तो कहीं झंगोरा लाप्सी के नाम से इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। प्रदेश की तरक्की के लिए खेती-बाड़ी ही एक अच्छा साधन है। इसके लिए नए सिरे से सोचने की जरूरत है। श्री अन्न और माइनर फसलों के लिए उत्तराखंड विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है। जापान वाले भी मानते हैं कि यहां का मोटा अनाज बेबी फूड के लिए अत्यधिक फायदेमंद है, क्योंकि इसमें प्रचुर मात्रा में कैल्शियम है। कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान बच्चे से लेकर बूढ़ों तक की जुबां पर यह नारा आम था। लेकिन, राज्य गठन के 23 वर्षों बाद प्रदेश में कोदा-झंगोरा मिलना किस कदर मुश्किल हो चला है, यह बात महिला और बाल विकास परियोजना से जुड़े विभिन्न समूहों से बेहतर और कौन जानता होगा।

असल में शासन ने प्रदेश के आंगनबाड़ी केंद्रों में दिए जाने वाले टेक-होम राशन की सूची में संशोधन कर कोदा(मंडुवा) और झंगोरा के साथ ही गहथ और काला भट जैसी स्थानीय दालों को अनिवार्य कर दिया है। यही आदेश अब योजना के संचालन में गले की फांस बन रहा है। तमाम प्रयासों के बावजूद समूह पर्याप्त मात्रा में इन उत्पादों का इंतजाम नहीं कर पा रहे। कुपोषण के अंधेरे को दूर करने और जनसामान्य को कुपोषण के दूरगामी दुष्प्रभावों से परिचित कराकर आंगनबाड़ी केंद्रों में बच्चों, गर्भवती और धात्री महिलाओं और अतिकुपोषित बच्चों को राशन देने का कार्य शुरू किया गया है। शुरुआती दौर में टेक-होम राशन में कोदा- झंगोरा जैसे उत्पाद नहीं थे, लेकिन अब शासन ने कोदा-झंगोरा के साथ ही गहथ और काला भट जैसी स्थानीय दालों को भी टेक-होम राशन में अनिवार्य कर दिया है। पिछले दिनों शासन की ओर से इस संबंध में आदेश भी जारी कर दिया गया। तब से महिला और बाल विकास परियोजना में हड़कंप मचा हुआ है। मुश्किल यह है कि कोदा-झंगोरा सहित अन्य उत्पादों की व्यवस्था कैसे और कहां से की जाए। आदिकाल से पहाड़ में मोटे अनाज की भरमार हुआ करती थी। लेकिन तब मोटे अनाज को खाने वालों को दूसरे दर्जे का समझा जाता था। उस समय मोटे अनाज की उपयोगिता और इसके गुणों से लोग ज्यादा विंज्ञ नही थे।जानकारी का भी अभाव था।

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समय के साथ साथ मोटे अनाज की पैदावार भी कम होने लगी, क्योंकि लोगों ने मोटे अनाज की जगह दूसरी फसलों को तबज्जो देना शुरू कर दिया और समाज की धारणा के अनुसार लोग चावल धान की फसल की ओर बढ़ गए। समय फिर लौट के आया और स्वस्थ स्वास्थ्य के लिए मोटे अनाज के भरपूर गुणों से लोग परिचित हुए।सेहत के लिए सभी तरह से फायदेमंद होने व लाइलाज बीमारी के इलाज में मोटे अनाज का सेवन रामबाण साबित होता है। इसलिए फिर से बाजार में इस पहाड़ी मोटे अनाज की भारी मांग होने लगी है। बाजार में मोटे अनाज की डिमांड मांग ज्यादा होने लगी तो मोटा अनाज फिर से खेतों में लौटने लगा।ग्रामीण भी मोटे अनाज की फसलों को उगाने में रुचि दिखाने लगे हैं। आज पहाड़ों के बाजार से मोटा अनाज प्राप्त करना भी अपनेआप में एक चमत्कार है।

बाजार में मोटा अनाज कम और मांग ज्यादा है उत्तराखंडी समाज जिस तरह अपने रीति-रिवाज, परंपराओं, यहां तक कि खान-पान को भी भूल रहा है, जब प्रधानमंत्री ने मोटा अनाज की तारीफ की हो। इससे पहले भी उन्होंने अपने कार्यक्रम ‘मन की बात’ के जरिए मोटा अनाजों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए लोगों से अपील की थी। मोटा अनाज तासीर में गर्म होते हैं। ऐसे में सर्दियों में इसके सेवन से शरीर को गर्माहट मिलती है, जिससे हम ठंड से बचे रहते हैं। इसके अलावा इसमें मौजूद कई पोषक तत्‍व भी शरीर के लिए फायदेमंद होते हैं।मिलेट्स यानी मोटा अनाज खाने से हमारे पाचन तंत्र को भी काफी फायदा मिलता है। दरअसल, इसके सेवन से पेट दुरुस्‍त रहता है, जिससे कब्ज, गैस, एसिडिटी जैसी समस्याओं दूर रहती हैं। इन दिनों डायबिटीज की समस्या काफी आम हो चुकी है। कई लोग इस गंभीर समस्या से परेशान है। ऐसे में मोटा अनाज का सेवन कई तरह के मधुमेह में फायदामंद है। डायबिटीज के मरीजों के लिए गेहूं हानिकारक माना जाता है।ऐसे में बाजरा, रागी,ज्वार आदि ब्लड शुगर को कंट्रोल करने में काफी अहम भूमिका निभाते हैं।इधर उत्तरकाशी के ग्रामीण ने दो कदम आगे बढ़कर इस मोटे अनाज से मिठाई बनाकर नई क्रांति ला दी है।

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इस मोटे अनाज से बनी मिठाई ने बाजार में बनी दूसरी मिठाइयों यानी नकली मावे से बनी मिठाई को चुनौती दे डाली। आज हम सभी का प्रयास होना चाइए कि दयाल सिंह द्वारा मोटे अनाज द्वारा बनी मिठाई को बड़े स्तर पर बाजार में उतारा जाए ताकि लोगों को जहरीली और नकली मावे से बनी मिठाई से निजात मिल सके और लोगों का स्वास्थ्य भी ठीक रहे। पारंपरिक तौर पर उत्तराखंड में मंडुआ के आटे से केवल चून की रोटी, बाड़ी या पल्यो, सीडे़, डिंडके ही बनाए जाते थे, लेकिन धीरे धीरे इसके गुणों को पहचानते हुए इसकी पैदावार बढ़ाई जा रही है और नए नए प्रयोगों के साथ बाजार की मांग के अनुसार आज मंडुआ से बिस्कुट, ब्रेड, नमकीन, मिठाई, हलवा, उपमा, चिप्स, डोसा सब तैयार किया जा रहा है।यानी कि मोटे अनाज का मोटा अनाज और मिठाई की मिठाई।

इस मोटे अनाज की बनी मिठाई को सरकार द्वारा जी 20 की उत्तराखण्ड में बैठकों में आमंत्रित विदेशी मेहमानों की थाली में परोसने की पहल उतारा है। इधर मोटे अनाज के खाने पकाने के परंपरागत तरीकों में भी बदलाव आने लगा। झंगोरा को सामान्य चावल की तरह खाने की बजाय । ‘झंगोरे की खीर’ लोकप्रिय और प्रचलित हो गई। झंगोरा की खीर गांव की थाली से होकर बाजार के होटलों से होते हुए फाइव स्टार तक पहुंच गई।। शादी समारोह और पार्टियों में मोटे अनाज से बने खाद्य महत्वपूर्ण डिश हो गए। कंडाली की सब्जी, कोदे की रोटी, गहत का गहतवाणी/सूप, गहत का फाणू किसी भी समारोह में स्टेटस सिंबल बन गया है।गरीब पहाड़ी ग्रामीण की थाली से मोटा अनाज आज प्रधानमंत्री की थाली
तक जा पहुंचा।

 ( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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