मैती आंदोलन (Meiti movement) वह कभी पुरस्कारों के पीछे नहीं
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
मैती आंदोलन शुरु करने वाले कल्याण सिंह रावत को इस साल पद्मश्री अवॉर्ड्स से सम्मानित करने का ऐलान किया गया है। कुछ लोगों का मानना है कि इसके लिए देर हो गई है हालांकि कल्याण सिंह रावत कहते हैं कि वह कभी पुरस्कारों के पीछे नहीं भागे। ऐसा कहते तो कई लोग हैं लेकिन सिर्फ़ भारत में ही 5 लाख से ज़्यादा पेड़ लगाने वाले मैती आंदोलन के प्रणेता जब यह कहते हैं कि तो इस बात पर विश्वास होता है। पद्मश्री मिलने के बाद कल्याण सिंह रावत के बारे में बहुत कुछ कहा-लिखा जा रहा है लेकिन कम ही लोग जानते हैं मैती आंदोलन शुरु करने के 21 साल बाद उन्होंने इसे एक संगठन का रूप दिया है और वह भी मजबूरी में मैती आंदोलन इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी 1995 में चमोली गोपेश्वर से छात्र जीवन में चिपको आंदोलन में शामिल रह चुके कल्याण सिंह रावत तब ग्वालदम इंटर कॉलेज में जीव विज्ञान के शिक्षक थे। उन्होंने अपने विचार को कॉलेज के छात्र-छात्राओं के साथ साझा किया तो उत्साह जनक प्रतिक्रिया मिली। इसके बाद विदाई के समय दुल्हन और दूल्हे के हाथ बांज का पेड़ लगाकर इस आंदोलन की शुरुआत की गई।
शुरुआत में कॉलेज के छात्र-छात्राओं के माध्यम से ही यह अभियान गांव-गांव पहुंचा और उसके बाद धीरे-धीरे राज्य के अन्य क्षेत्रों में। कल्याण सिंह रावत बताते हैं कि आज यह आंदोलन 15 से अधिक राज्यों में और कनाडा, ब्रिटेन, इंडोनेशिया समेत कई देशों तक पहुंच गया है। कई विदेशी छात्र-छात्राओं ने इस अनूठे आंदोलन पर शोध किया है। मैती आंदोलन की सफलता इसका भावनात्मक पक्ष है। उत्तराखंड में मायके को ‘मैत’ कहते हैं। किसी भी लड़की के अपने मायके से संबंध को ध्यान में रखते हुए कल्याण सिंह रावत यह अभिनव प्रयोग किया। वह कहते हैं कि जब बेटी मायके में कोई पौधा लगाकर ससुराल जाती है तो मां कभी भी उसे सूखने नहीं देती। वह पेड़ मां और बेटी के प्रेम और भावनात्मक संबंधों का प्रतीक होता है और इसलिए अभिसिंचित होता रहता है।
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मायके में पौधा लगाने से शुरु हुआ यह अभियान बाद में ससुराल में भी पहुंचा और गांव या कस्बे के जल स्रोत की पूजा करने के बाद एक पौधा लगाते हैं। उस पौधे की देखभाल और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी नवदंपत्ति की होती है। करीब 21 साल तक मैती अभियान को सामाजिक, पर्यावरणीय आंदोलन की तरह चलाने के बाद 2016 में कल्याण सिंह रावत और उनके साथियों ने मैती संस्था को एक संगठन का रूप दिया और इसका रजिस्ट्रेशन करवाया। लेकिन इतने सालों बाद इसकी ज़रूरत क्या पड़ी? कल्याण सिंह रावत को गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) के काम करने का तरीका पसंद नहीं था। मैती आंदोलन का विचार आने से पहले वह देख चुके थे कि क्या सरकारी, क्या गैर सरकारी संगठन सभी पर्यावरण संरक्षण के लिए काम खानापूर्ति की तरह करते हैं। इसीलिए उन्होंने इतने लंबे समय तक इसका रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया और कोशिश की यह स्वतः स्फूर्त आंदोलन बने। यह बना भी और लोग इसके बारे में जानकर खुद ही सामने आने लगे और शादियों में यादगार स्वरूप पौधे लगाए जाने लगे। लेकिन इस बीच कुछ स्वार्थी लोगों ने इस नाम का दुरुपयोग करना शुरु कर दिया।
यह बात जब कल्याण सिंह रावत तक पहुंची तो उन्होंने 2016 में मैती संस्था का रजिस्ट्रेशन करवाया। देश और दुनिया भर में करोड़ों लोग मैती आंदोलन की वजह से कल्याण सिंह रावत को जानते है। पर्यावरण सरंक्षण और संवर्द्धन के इस अनूठे अभियान का अध्ययन भारत ही नहीं कई देशों के विश्वविद्यालय में किया गया है। ऐसे में यह नहीं लगता कि उन्हें पद्मश्री सम्मान दिए जाने में देर हो गई? कल्याण सिंह रावत कहते हैं कि वह कभी पुरस्कार के पीछे नहीं भागे, कभी कोशिश ही नहीं की तो देर-जल्दी का सवाल पैदा ही नहीं होता।
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रावत बताते हैं कि जब फ़ोन पर उन्हें यह सम्मान दिए जाने की सूचना मिली तो वह अपनी पत्नी के साथ टहल रहे थे। पहले पहल उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन फिर यह बात माननी पड़ी। 1995 में, अपनी भतीजी की शादी के लिए ग्वालधाम की यात्रा पर, कल्याण दुल्हन की अपने पैतृक घर से विदाई को और अधिक विशेष बनाने का एक अनूठा विचार लेकर आए। ‘शादी का जश्न खत्म होने के बाद, मैंने अपनी भतीजी से उसके माता-पिता के प्रति उसके प्यार और उसके प्रति उनके प्यार के प्रतीक के रूप में उसके मैत, या माँ के आँगन में एक कोमल पौधा लगाने के लिए कहा। ‘उनका तर्क सरल था,’जब एक दुल्हन अपने माता-पिता का घर छोड़कर ससुराल जाती है और एक पौधा लगाती है, तो दुल्हन की मां निश्चित रूप से अपनी बेटी के इस विदाई उपहार की देखभाल करेगी और परिवार पेड़ का पालन-पोषण करेगा और उसे किसी भी नुकसान से बचाएगा और ऐसा करके वे हरियाली वापस लाएंगे।’यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान फिर जंगल की आग की तरह फैल गया।
विशेषकर उन महिलाओं में, जिन्होंने इस विचार से तुरंत भावनात्मक जुड़ाव पाया। यहीं से ‘मैती आंदोलन’ का बीजारोपण हुआ। ‘मैती’ शब्द वास्तव में गढ़वाली/कुमाऊंनी शब्द मैत से लिया गया है जिसका अर्थ है दुल्हन का पैतृक घर। इस नवोन्वेषी वनीकरण अभियान ने न केवल अपने जन्मस्थान उत्तराखंड में, बल्कि अंतरराज्यीय सीमाओं को पार करते हुए नेपाल, दुबई, इंडोनेशिया और कनाडा के विदेशी तटों में भी
अपनी पकड़ बना ली है।विशुद्ध रूप से भावनाओं पर आधारित ‘मैती’ परंपरा आज किसी भी सहकारी घराने या बड़े पैमाने पर राज्य सरकार से किसी भी मौद्रिक सहायता या सहायता के बिना तेजी से बढ़ी है। जो एक व्यक्ति के मिशन के रूप में शुरू हुआ था, वह अब एक जन आंदोलन में बदल गया है, अकेले उत्तराखंड में करीब दो लाख पेड़ लगाए गए हैं और कवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट की पंक्तियाँ हैं, ‘और मेरे सोने से पहले
मीलों चलना है, और मेरे सोने से पहले मीलों चलना है’ सो जाओ,’कल्याण सिंह रावत के मैती आंदोलन के लिए सच है।
पेशे से शिक्षक कल्याण सिंह रावत ने ये महसूस किया कि हर साल लाखों की संख्या में पेड़ लगाए जाते हैं। जबकि उनकी देखभाल करने के लिए जरूरी इंतजाम नहीं किए जाते। लोग पेड़ लगाते हैं और उसे भूल जाते हैं। लोग पेड़ों की देखभाल के लिए उससे जुड़े नहीं रहते हैं। जिसके कारण वृक्ष लगाओ अभियान के दिन लाखो-करोड़ों की संख्या में लगने वाले पेड़ों में कितने जीवित रहते हैं, इसका कोई पता नहीं चलता है।कल्याण सिंह रावत ने सकारात्मक वृक्षारोपण के लिए लोगों की भावनाओं के साथ पेड़ों को जोड़ने के लिए एक उपाय सोचा। उनके मन में ख्याल आया कि पहाड़ों पर सबसे गहरा भावनात्मक संबंध मां और बेटी का होता है। एक बेटी अपनी मां के साथ हर सुख-दुख में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहती है। बेटी की शादी के बाद जिस दिन उसकी विदाई हो जाती है, उस दिन मां को उसका गम सबसे ज्यादा महसूस होता है। अगर इन भावनाओं को बांधकर एक पेड़ लगाने से जोड़ दिया जाए तो कुछ अच्छा काम हो सकता है। कोई और नहीं तो मां जरूर अपनी बेटी के लगाए गए पेड़ को हमेशा याद रखेगी और उसकी देखभाल करती रहेगी।
इसके बाद चमोली जिले के ग्वालदम कस्बे से कल्याण सिंह रावत ने मैती आंदोलन शुरू किया। ‘मैत’ का अर्थ होता है मायका और इसलिए उन्होंने शादी के दिन दूल्हा और दुल्हन से पेड़ लगाने का आंदोलन शुरू कर दिया। इस तरह वह पेड़ पूरे परिवार और गांव का पेड़ बन जाता है। लड़की के भाई और पिता सहित सभी गांव वाले उस पेड़ के माली बन जाते हैं। कल्याण सिंह रावत का कहना है कि हर गांव में हर साल कम से कम 10 शादियां तो होती ही हैं। इस तरह अगर देखा जाए तो कितने पेड़ लगाए जाएंगे और उनको बचाने के लिए कई लोग सामने आएंगे। इस तरह से गांव में प्राकृतिक समृद्धि बढ़ेगी। हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ रही मानवीय गतिविधियों पर चिंता जताते हुए कहा कि पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए आम जनमानस की भूमिका को मजबूती के साथ बढ़ाए जाने की आवश्यकता है, इससे जल, जंगल, जीवन सभी संरक्षित रहेंगे। हमें अपनी नई पीढ़ियों के लिए इसे संरक्षित रखना होगा।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)