राज्य निर्माण की अवधारणा की बुनियाद भी नहीं रख पाए ?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर कई वर्षों तक चले आंदोलन के बाद 9 नवंबर2000 को उत्तराखंड को 27 वें राज्य के रूप में स्वीकृति मिली वह भी अथक संघर्ष और बलिदान के बाद पहाड़ के लोगों की आकांक्षाओं व सपनों का यह राज्य राजनीतिक दृष्टि से
बदलावकारी तो रहा लेकिन जन उम्मीदों पर बहुत खरा नहीं उतरा.उत्तराखंड राज्य को बने 23 साल पूरे हो गये। 42 शहादतों और मुजफ्फरनगर जैसी शर्मनाक घटना को झेलकर बना यह राज्य देश के सर्वश्रेष्ठ और अनुकरणीय प्रान्तों में एक होना चाहिये था। मगर यह भ्रष्टाचार, घोटालों और कुप्रबन्धन का एक घिनौना उदाहरण बन कर रह गया। लक्षण शुरू से ही दिखाई देने लगे थे।
9 नवम्बर 2000 को इस राज्य की स्थापना होनी थी। मगर उस वक्त की भाजपा की अन्तरिम सरकार ने ज्योतिषियों से पूछ कर 9 नवम्बर का लग्न निकाला। अब लगता है कि वह साईत ही गलत रही होगी। 9 नवम्बर की रात्रि जब राज्यपाल अन्तरिम सरकार के मुख्यमंत्री को शपथ ग्रहण करवा रहे थे, तब देहरादून के परेड ग्राउण्ड में राज्य आन्दोलनकारियों के ‘गैरसैंण राजधानी गैरसैंण’ के नारे गूँज रहे थे। जल्दी ही यह प्रदेश ठेकेदार खंड के नाम से जाने जाना लगा। पर्यावरण को ठेंगे पर रख कर बनाई जा रही जल विद्युत परियोजनायें, जो अब ऑल वेदर रोड रोड जैसी विनाशकारी परियोजनाओं तक पहुँच गयी हैं, केदारनाथ जैसी आपदायें पैदा करने लगीं। इस सबके बावजूद इस प्रदेश में ठेकेदारों और अवैध रूप से पैसा कमाने वालों का दबदबा कम नहीं हुआ।
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राज्य बनने के 23 साल बाद भी आज यह प्रदेश जमीनों की लूट-खसोट, लगातार हो रहे पलायन, अनेक भर्ती घोटालों, बेरोजगारों के दमन, स्त्रियों द्वारा सडक पर किये जा रहे प्रसव, हर घर को शराब का बार बना देने की कोशिश, समाज को साम्प्रदायिक विद्वेष की आग में झोंक देने के षड़यंत्र और शासकों के रनिवास के खनन के पट्टे बेचने की दुकान बन जाने जैसी बातों के लिये प्रसिद्ध हो रहा है। मीडिया के पूरी तरह
सत्ता के शरणागत हो जाने के कारण अब खबरें भी उस तरह नहीं फैलतीं कि जनता का व्यापक असंतोष एक संगठित प्रतिरोध में बदल सके। यह स्थिति तब तक जारी रहनी ही है, जब तक 2024 में केन्द्र सरकार के बदलने पर यह सरकार डबल इंजन के बदले सिंगल इंजन की नहीं हो जाती।
उत्तराखंड अपनी 23वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। इन 23 सालों में आज उत्तराखंड कहां खड़ा है? यह प्रश्न आज हम सबके सामने हैं। भविष्य में इसकी दिशा कैसी होनी चाहिए, उस पर मनन का भी यह समय है। उत्तराखंड बनने के पीछे सबसे बड़ी मांग यही थी कि यह पहाड़ी राज्य है और इसकी पारिस्थितिकी, संस्कृति व संसाधन देश के अन्य जगहों से अलग है। साथ में सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि उत्तराखंड की इकोलॉजी देश-दुनिया को पानी, हवा, मिट्टी व जंगल का सबसे बड़ी दाता है।इतना ज़रूर है कि इन 23 वर्षों में उत्तराखंड में बार मुख्यमंत्री बदले गए हैं और अनगिनत लुभावने नारे आ गए हैं, जैसेः देवभूमि, पर्यटन प्रदेश, हर्बल प्रदेश, जैविक प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश आदि-आदि। लेकिन ये नारे सिर्फ छलावा साबित हुए इनके पीछे ठोस समझ, सुचिंतित योजना और अमल में लाने की इच्छाशक्ति नहीं बनी है।
पहाड़ को अपना राज्य इसलिए भी चाहिए था कि लोग कहते थे कि लखनऊ दूर है। अलग राज्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए उत्तराखंड के जनकवि और अलग राज्य निर्माण आंदोलन में सक्रिय रहे कहते हैं, च्च्अलग राज्य इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि गोरखपुर की और गोपेश्वर की एक ही नीति नहीं बन सकती है। इसलिए राज्य अलग बनता है और उसकी व्यवस्था उसी के अनुसार से होती है तो वो सही हो पाएगा वरना नहीं हो पाएगा। लेकिन देहरादून और दूर हो गया है। पहाड़ का आदमी जब कोई काम लेकर लखनऊ जाता था तो उससे सहानुभूति होती थी। वहीं देहरादून में आकर सुदूर पिथौरागढ़ या चंपावत से आया पहाड़ी घिस-घिस कर रह जाता है लेकिन उसका काम नहीं होता।
एक तरफ जहां पहाड़ के गाड, गध्यर, नौले सूखे और गांव के गांव उजड़े तो वहीं दूसरी तरफ बड़े-बड़े महल बने, पानी पर बांध बने और विधायक- मंत्री व मुख्यमंत्री बने। इसलिए उत्तराखंड को जब देखना व समझना हो तो उसे देहरादून और ऋषिकेश से न देखा और न समझा जा सकता है। उसकी इन 20 वर्षों की यात्रा को भी पहाड़ की उन महिलाओं की नजर से देखना होगा जो, चिपको आंदोलन में जंगल को अपना मायका बताती हैं और कुल्हाड़े के आगे आ खड़ी होती हैं। शराब के खिलाफ आंदोलन में बाजार के बाजार बंद करा देती हैं और शराब माफियाओं के सामने दरांती ताने निडर खड़ी हो जाती हैं।
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पृथक राज्य आंदोलन में गोठ-गुठ्यार छोड़ दिल्ली तक हुंकारा भरने के लिए चल पड़ती हैं। उनकी आंखों से भी इसे देखना होगा। तभी उन सपनों को भी समझा जा सकता है जो अलग राज्य की मांग और संकल्पना के साथ जुड़े हुए थे लेकिन वह सपने अब धुंधले हो चुके हैं। वह आंखें आशावान तो हैं लेकिन उम्मीद हारती जा रही हैं। ऐसे में त्रष्ठक्क, बजट, सडक आदि से पहाड़ को कैसे समझा जा सकता है। विकास का यह रेडीमेड मॉडल जिसमें सड़क, शहर और सीमेंट है वह कैसे पहाड़ों में फिट हो सकता है ? क्या यही पहाड़ की जरूरतें हैं? या फिर इन 20 वर्षों में हमारे नीति निर्माता पहाड़ की जरूरतों को समझ ही नहीं पाए।
पर्यटन की असीम संभावनाओं के बावजूद इस दिशा में सरकारों की अकर्मण्यता तारीफे-काबिल है। ऐसी स्थिति में कैसे जश्न मनाया जा सकता है। आखिर इन 23 वर्षों में सिवाय सरकारों के क्या बदला है ! फिर भी राज्य स्थापना दिवस की बधाई देते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मुझे मौजू लगती हैं- मैं बे-पनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं / मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं। हम दुनिया में बढ़ रही जैविक उत्पादों की मांग की पूर्ति करने में सक्षम थे, लेकिन खास नहीं हो पाया। आमदनी के लिए हमारी सरकारों की निर्भरता आबकारी और खनन पर केंद्रित हो गई। इसमें भी भ्रष्टाचार और अनियमितता का बोलबाला व पारदर्शिता का अभाव दिखाई दिया।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )