मुनस्यारी की राजमा को मिला जीआई टैग (GI Tag)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
मुनस्यारी शहर (2,200 मीटर), जो जोहार घाटी के प्रवेश द्वार पर स्थित है, यहीं से इसका नाम पड़ा।1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले यह तिब्बत के साथ एक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग था। इन क्षेत्रों में भारी बर्फबारी के कारण, कई बस्तियों में केवल मई से नवंबर की शुरुआत तक ही कब्जा रहता है। राजमा आमतौर पर वसंत ऋतु में एक महत्वपूर्ण खरीफ दाल के रूप में उगाई जाती है। अन्य किस्मों के विपरीत, मुनस्यारी राजमा बड़ा होता है और उसका रंग असामान्य सफेद होता है। ये अपने स्वादिष्ट स्वाद और उच्च प्रोटीन और फाइबर सामग्री के लिए जाने जाते हैं। उत्तराखंड में मुनस्यारी की राजमा का जलवा है। शादी, विवाह हो या फिर कोई अन्य कार्यक्रम सभी में मुनस्यारी की राजमा की मांग रहती है।
इधर अब मुनस्यारी के राजमा को जियोग्राफिकल इंडेकेशन यानी जीआइ टैग मिलने से राजमा के उत्पादन से लेकर गुणवत्ता तक में अधिक सुधार आने के लिए आसार बन चुके हैं। सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले गांव क्वीरी, जीमियां, साईपोलू, ल्वां, बोना, तोमिक, गोल्फा, नामिक, बुई, पातों, निर्तोली, झापुली सहित उच्च हिमालयी आदि गांवों में पैदा होने वाली राजमा को मुनस्यारी के राजमा नाम से जाना जाता है। अपने स्वाद के चलते विशेष पहचान रखती है। मैदानी क्षेत्रों में पैदा होने वाली राजमा से आकार में कुछ बड़ी सीमांत की राजमा पूरी तरह जैविक तरीके से उत्पादित की जाती है। इसके उत्पादन में किसी तरह की रासायनिक खाद का उपयोग नहीं होता है।
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हिमालयी क्षेत्र में उत्पादित यह राजमा पौष्टिक गुणों से भरपूर है। इन्हीं गुणों के चलते पूरे उत्तर भारत में इसकी मांग है, हालांकि मांग की तुलना में उत्पादन सीमित है। इसके चलते मुनस्यारी, पिथौरागढ़ और अब हल्द्वानी के बाजारों तक ही यह पहुंच पाती है। मुनस्यारी के लोग उत्तरभारत के विभिन्न इलाकों मे रहने वाले अपने नाते रिश्तेदारों और परिचितों को राजमा उपलब्ध कराते हैं। मुनस्यारी आने वाले पर्यटक भी मुनस्यारी की राजमा के स्वाद के दीवाने हैं। जिसके चलते मुनस्यारी की राजमा की चर्चा देश ही नहीं विदेशों तक होती है। इस विशिष्ट राजमा का स्वाद अब विदेशियों को भी भाने लगा है। मुनस्यारी पहुंचने वाले विदेशी सैलानियों को जब भोजन में राजमा परोसी जाती है तो वे इसके बारे में जानकारी लेते हैं और इसके बनाने की विधि सीखकर इसे अपने साथ ले जाते हैं।
बीते वर्षों में यहां पहुंचे तमाम विदेशी सैलानी राजमा की खरीदारी कर रहे हैं। मुनस्यारी में राजमा का उत्पादन सदियों से होता आया है। अतीत में मुनस्यारी की राजमा केवल मुनस्यारी के राजमा उत्पादक गांवों तक ही पहचान रखती थी। तब मुनस्यारी तक मोटर मार्ग नहीं थे। यहां तक बाहरी लोगों की आवक नहीं के बराबर रहती थी। यहां पर अलग-अलग रंग की परंतु स्वाद में एक समान राजमा का उत्पादन होता था परंतु उत्पादक इसे अपने घरेलू उपयोग के अलावा नाते, रिश्तेदारों को देने तक ही करते थे। मुनस्यारी तक जब पहुंचना सरल हो गया तो इसका स्वाद अन्य क्षेत्र के लोगों को भी मिलने लगा। इसका स्वाद चखने वाले इसके मुरीद होते गए। आज भी स्थिति यह है कि लोग राजमा की फसल तैयार होते ही राजमा खरीदने के लिए राजमा उत्पादक गांवों तक पहुंच जाते हैं। राजमा उत्पादक काश्तकार हैं।
गोल्फा गांव समुद्रतल से लगभग आठ से साढ़े हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गांव अभी मोटर मार्ग से नहीं जड़ा है। यह गांव राजमा उत्पादक गांव है गोल्फा के राजमा की धाक है। काश्तकार के अलावा गांव के दर्जनों लोग राजमा उत्पादन करते हैं। यहां की राजमा सबसे पहले मदकोट बाजार पहुंचती है। जहां से फिर मुनस्याारी, पिथौरागढ़, जौलजीबी पहुंचती है। इधर अब क्षेत्र के कुछ ग्रामीण राजमा को हल्द्वानी में लगने वाले आयोजनों तक पहुंचाने लगे हैं। राजमा को जीआइ टैग मिलने से खुशी है। काश्तकार बताते हैं कि अब उनकी राजमा को अधिक बाजार मिलेगा और उत्पादन भी बढ़ेगा। गांवों में युवा भी राजमा उत्पादन के प्रति उन्मुख हो रहे हैं।
राजमा मुनस्यारी की परंपरागत खेती है। सदियों से इसका उत्पादन हो रहा है। आज भी हम सबसे महत्व राजमा को ही देते हैं। इसी से रोजी- रोटी जुड़ी है। राजमा उत्पादन में मेहनत अधिक है। मौसम भी कारक रहता है। किसी वर्ष फसल काफी अच्छी तो किसी वर्ष मौसम प्रतिकूल रहने से फसल प्रभावित होती है। राजमा को अब बाजार मिलेगा तो इसका उत्पादन भी बढ़ेगा। काश्तकार इसके लिए प्रयासरत हैं। सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले उच्च हिमालयी आदि गांवों में पैदा होने वाली राजमा को मुनस्यारी के राजमा नाम से जाना जाता है। अपने स्वाद के चलते विशेष पहचान रखती है। मैदानी क्षेत्रों में पैदा होने वाली राजमा से आकार में कुछ बड़ी सीमांत की राजमा पूरी तरह जैविक तरीके से उत्पादित की जाती है। इसके उत्पादन में किसी तरह की रासायनिक खाद का उपयोग नहीं होता है। मुनस्यारी की राजमा में बहुत सारे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और घुलनशील फाइबर से भरपूर होते हैं, साथ ही मुनस्यारी राजमा पोषक तत्वों का एक पावरहाउस है।
इसके अलावा, ये किडनी के आकार की फलियाँ अपनी समृद्ध बनावट और विशिष्ट सुगंध के साथ खाने में एक स्वादिष्ट स्वाद लाती हैं। प्रोटीन से भरपूर ये फलियाँ न केवल शानदार स्वाद प्रदान करती हैं बल्कि शरीर को आवश्यक प्रोटीन भी प्रदान करती हैं और सिस्टम के लचीलेपन को बढ़ाती हैं। मुनस्यारी राजमा भारतीय व्यंजनों में मुख्य भोजन है, जिसे मुख्य रूप से उबले हुए चावल के साथ परोसा जाता है। इसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है, खनिज, मैंगनीज, तांबा का समृद्ध स्रोत होता है और इसमें आहार फाइबर होता है। मुनस्यारी राजमा प्रकृति की देन है। इसमें अन्य दालों और फलियों जैसे मटर और फलियों की तुलना में कम सूखा पदार्थ और लगभग आधा पानी होता है।
राजमा की प्रोटीन युक्त गुणवत्ता भी सभी दालों और फलियों की तुलना में बहुत बेहतर होती है,जिसका श्रेय इसके नाइट्रोजन और अमीनो एसिड के उच्च प्रतिशत को दिया जा सकता महिला किसानों के रूप में पहचानी जाने वाली और इस दाल की खेती करने वाली 80% से अधिक महिलाएँ भोटिया समुदाय की सदस्य हैं। मक्के और आलू के खेतों में राजमा को मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। राजमा की अन्य
किस्मों की तुलना में, इस छोटे आकार के राजमा में एक अद्वितीय और सूक्ष्म बनावट, कोमलता, मिठास और सुगंध होती है और इसे पकाने में 25 से 30 मिनट कम समय लगता है। अब मुनस्यारी की राजमा को जियोग्राफिकल इंडेकेशन यानी जीआइ टैग मिल गया है। इसके बाद मुनस्यारी की राजमा की धाक और बढ़ गयी है। जीआई टैग उन उत्पादों को मिलता है जो विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में पैदा होती हैं।
सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले मुनस्यारी के गांवों में यह राजमा पैदा होती है। अपने स्वाद के लिए विशेष पहचान रखती है। इसका उत्पादन जैविक तरीके से किया जाता है। यह पौष्टिक गुणों से भरपूर है। इन्हीं गुणों के चलते पूरे उत्तर भारत में इसकी मांग है, हालांकि मांग की तुलना में उत्पादन सीमित है। यही वजह है कि यह हल्द्वानी के बाजार तक ही पहुंच पाती है। गांव निवासी गंगा सिंह बताते हैं कि राजमा मुनस्यारी की परंपरागत खेती है। सदियों से इसका उत्पादन हो रहा है। आज भी हम सबसे महत्व राजमा को ही देते हैं। इसी से रोजीरोटी जुड़ी
है। राजमा उत्पादन में मेहनत अधिक है। मौसम भी कारक रहता है। किसी वर्ष फसल काफी अच्छी तो किसी वर्ष मौसम प्रतिकूल रहने से फसल प्रभावित होती है। राजमा को अब बाजार मिलेगा तो इसका उत्पादन भी बढ़ेगा। काश्तकार इसके लिए प्रयासरत हैं। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)