कांसे (bronze) का सदियों पुराना व्यापार
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
एक लोकप्रिय कहावत है जो बताती है-‘ओल्ड इज़ गोल्ड’। यह निश्चित रूप से कांस्य बर्तनों के लिए सच है जो 20वीं शताब्दी में कहीं बाहर हो जाने के बाद वापसी कर रहा है। एक सुनहरे कठोर पदार्थ के रूप में जो कांस्य को एक भंगुर धातु बनाता है, कांस्य अत्यधिक लचीला होता है। धातुओं में कांसे के बर्तन सर्वोत्तम माने जाते हैं। वे भोजन के लगभग 97 प्रतिशत पोषक तत्व को बरकरार रखते हैं। यही वह पहलू है जिसने कांस्य बर्तन को फिर से सुर्खियों में ला दिया है। कई चिकित्सा शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों ने इस पहलू को महसूस किया है और इसके गुणों की प्रशंसा करना शुरू कर दिया है। कांसा (कांसा) तांबे का एक मिश्र धातु है जो 78 प्रतिशत और 22 प्रतिशत टिन बनाता है। दोनों को एक साथ गर्म करने पर 700 सेंटीग्रेड तक शुद्ध कांस्य बनता है। कांसा थाली, कटोरे, गिलास आदि जैसे कांसा रसोई के बर्तन सदियों से भारतीय घरों का एक अभिन्न अंग रहे हैं।
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ऐसा कहा जाता है कि पुराने दिनों में, पूरे देश में एक भी घर ऐसा नहीं था जो कंसा बरतन के बिना हो। हालाँकि, दुख की बात है कि सदियों से समय बीतने के साथ, कंस, एक प्राचीन धातु ने जल्द ही अपनी आभा खो दी और धीरे-धीरे अधिकांश भारतीय घरों से बाहर हो गई। शुक्र है, हाल के वर्षों में चिकित्सा अध्ययनों ने इसके मूल्य को उजागर करना और इसके चिकित्सीय और स्वास्थ्य गुणों की प्रशंसा करना शुरू कर दिया है, जिनके बारे में उनका मानना है कि यह कई बीमारियों को ठीक करने या ठीक करने में मदद करता है।
आयुर्वेद के अनुसार, कंस को वात को शांत करने वाला कहा जाता है (जिसमें शुष्क त्वचा, तंत्रिका स्वभाव और चिड़चिड़ापन शामिल है); और पित्त. इसके अतिरिक्त, यह मोटापा कम करने में भी मदद करता है; और आंखों की रोशनी और त्वचा की स्थिति में सुधार होता है। कांसे के बर्तनों के उपयोग के फायदे प्रकृति के नियमों के अनुसार, धातुएं और खनिज मानव शरीर के लिए महत्वपूर्ण हैं। कांसे के बर्तनों का उल्लेख प्राचीन काल से ही मिलता है। ऐसे बर्तन प्राचीन सभ्यताओं से जुड़े स्थलों जैसे – ईरान, सुमेर, मिस्र तथा हड़प्पा, मोहन जोदड़ो, लोथल समेत भारत के अन्य जगहों पर मिले हैं। उस समय ये बर्तन प्राय ढालकर या चद्दर को पीटकर बनाए जाते थे। धीरे-धीरे इन पर उभारदार काम भी होने लगा था।
भारतीय रसोई में तो इनके पात्रों का बहुत अधिक महत्त्व रहा है। किसी जमाने में भारतीय रसोई में कांसे, तांबे, पीतल और मिट्टी के बर्तन ही पाए जाते थे। आज भी कांस्य आदि के बर्तनों का उपयोग अच्छा माना जाता है। कांसे के बर्तन जीवाणुओं और विषाणुओं को मारने की क्षमता रखते हैं। कांसे के बर्तनों में भोजन करना आरोग्यप्रद, असंक्रमण, रक्त तथा त्वचा रोगों से बचाव करने वाला बताया गया है। कब्ज और अम्लपित्त की स्थिति में इनमें खाना फायदेमंद होता है। इन पात्रों में खाद्य पदार्थों का सेवन करना रुचि, बुद्धि, मेधा वर्धक और सौभाग्य प्रदाता कहा गया है तथा यकृत, प्लीहा के रोगों में फायदेमंद है।
आयुर्वेद के रस शास्त्र के ग्रंथों में लगभग आठ भाग ताम्र तथा दो भाग रांगा को मिलाकर कांस्य बनाया जाता था। आज भी सामान्यतया: 79 फीसदी ताम्र एवं 21 फीसदी रांगा मिलाकर कांस्य बनाया जाता है।कांस्य का आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथों चरक संहिता, सुश्रुत संहिता एवं अष्टांग हृदय में बर्तन, घंटी, मूर्तियों के साथ रस शास्त्र में औषध के रूप में अनेक जगह उल्लेख है।आठवीं शती के बाद तो औषध के रूप में कांस्य का प्रयोग अधिक होने लगा था, जो कमोबेश आज तक अनवरत हो रहा है। रस शास्त्र के आयुर्वेद प्रकाश ग्रंथ में कांस्य का निर्माण, प्रकार, शोधन, गुण तथा औषध बनाने के बारे में बताया गया है।कांसे के पात्रों का सामाजिक समारोहों व समुदायों में काफी महत्व है। शादी-विवाह के मौके पर आज भी कन्या पक्ष की ओर से वर पक्ष को कांस्य के पात्र में धन, धान्य आदि भरकर सम्मानपूर्वक भेंट किया जाता है। ऐसे अवसरों पर कांसे के कटोरे, थाली, गिलास भेंट करना शुभ माना जाता है। साथ ही जब कन्या विवाह के बाद पहली बार वर के गृह में प्रवेश करती है, उस
समय कांसे की थाली से तिलक लगाया जाता है।
आम लोगों को अपनी परंपरा, संस्कृति से जोडऩे और कांस्य के फायदे को आमजन तक पहुंचाने के लिए कंसारा मेटलेक्स ने पीढिय़ों से हासिल ज्ञान और अनुभव के आधार पर कांस्य से जुड़े बर्तनों की शृंखला, मंदिर की घंटी और कांसे के उपहार बाजार में उतारकर इन्हें खास महत्त्व दिया है।चिकित्सा के रूप में कांस्य भस्म हल्की, उष्ण तथा शरीर की वसा को कम करने वाली मानी गई है। भस्म तथा अनेक औषधियों के साथ संयोजन करने पर कांस्य कृमि रोग, चर्म रोग, कुष्ठ रोग तथा नेत्र रोगों में गुणकारी माना गया है। कांस्य भस्म से चिन्तामणि रस, नित्यानन्द रस, मकर ध्वज वटी तथा मेघनाथ रस जैसे अनेक आयुर्वेदीय औषध योग बनाए जाते हैं। कांस्य का उल्लेख धार्मिक कार्यों में प्राचीन काल से मिलता है। मंदिरों की घंटियां एवं बड़े घंटे कांस्य से बनाए जाते रहे हैं।
कांस्य ही ऐसी धातु है जिसकी घंटी या घंटे के रूप में आवाज मृदु, स्निग्ध और तेज स्वर में निकलती है और सुनने में मन को प्रसन्न करती है। पूजा पाठ एवं धार्मिक कार्यों में कांसे की थाली, लोटे आदि का ज्यादा प्रयोग किया जाता है। कांसे के पात्रों का प्रयोग धार्मिक कार्यों में करना शुभ माना जाता है। धातु से निर्मित बर्तनों के दाम प्रतिकिलो के भाव से तय किए जाते हैं। चमकदार दिखने वाले बर्तन लोगों को आकर्षित करते हैं। साथ ही तांबे व पीतल में भोजन करना भी सेहत के लिहाज से ठीक माना जाता है, जिसकी वजह से इन धातुओं से निर्मित बर्तनों की बाजार में अच्छी डिमांड है। मध्य प्रदेश का सतना जिला अपने कांसे के बर्तन उद्योग के लिए देशभर में प्रसिद्ध है लेकिन अब इस उद्योग को ग्रहण लगता नजर आ रहा है।
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दरअसल युवा पीढ़ी अपनी विरासत और परंपरा से धीरे-धीरे दूर होती जा रही है, जिसके चलते परंपरागत कांसा उद्योग भी अब कमजोर होता दिख रहा है। सतना जिले का उचेहरा क्षेत्र सदियों से कांस और पीतल के बने बर्तनों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध रहा है। उचेहरा क्षेत्र के घर-घर में पहले कांसे और पीतल के बर्तन बनाने का काम होता था।यहां बनने वाली थाली पूरे देश में बेची जाती थी लेकिन समय बदलने और लागत मूल्य बढ़ने के कारण अब धीरे धीरे यहां के कांसे और पीतल के बर्तनों की डिमांड कम हो रही है। आज उचेहरा में करीब 5सौ परिवार ही इस उद्योग में लगे हुए हैं और कांसे-पीतल के बर्तन बना रहे हैं। उचेहरा में रहने वाले ताम्रकार समाज की कई पीढ़ियां इस काम को करती आ रही हैं और आज भी इस उद्योग को बिना किसी प्रशासनिक मदद के जीवित रखे हुए हैं कांसे के बर्तनों की घरों में इस कदर बादशाहत थी, कि बर्तनों का नामकरण ही इस धातु के जोड़कर कर दिया गया।
हमारे कुमाऊॅ में लोटे को ‘कसिन’ बोला जाता था, जिसका नाम कांसे की होने से ही पड़ा लगता है। शुरू मे कांसे के लोटे को ही कसिन नाम दिया गया, बाद में अन्य धातुओं के लोटे ने भी यह नाम सहज स्वीकार कर लिया। इसी तरह सामाजिक उत्सवों में दाल-भात का चलन आम था और दाल प्रायः कसेरे में बनाई जाती, जो कांसे के बने होते थे। जाहिर है कसेरा नाम भी कांसे से लिया गया है। कांसे का तब कितना चलन रहा होगा कि बर्तन बनाने वाले जो तब कांसे के बर्तन बनाते होंगे उनको ही कसेरा नाम से संबोधित किया जाने लगा, लेकिन बाद में हर बर्तन व्यवसायी के लिए कसेरा शब्द आम चलन में हो गया। कुमाऊॅ में शादी समारोहों के लिए एक आम शब्द चलन में है – भात- बरात। तब शादी समारोहों का मुख्य भोजन दाल-भात ही हुआ करता था।
भात तांबे अथवा पीतल की बड़ी-बड़ी पतेलियों में बनता जब कि दाल के लिए कांसे का पतीला ही उपयुक्त माना जाता. कसेरा (कांसे का बड़े आकार का मोटे तले वाला पतीला) बनाने के पीछे यहीं कारण रहा होगा कि कांसे में ताप को अधिक समय तक संरक्षित करने का गुण है, इसे खड़ी दालों को गलाने में मुफीद माना जाता है। तब आज की तरह प्रेशर कूकर तो थे नहीं, कांसे के बर्तन ही मोटी दाल गलाने के लिए सबसे उपयुक्त माने जाते थे। इनमें बनी दालें सुस्वादु होने के साथ स्वास्थ्य के लिए भी अनुकूल मानी जाती थी. ये कसेरे आकार में बड़े होने के साथ-साथ इतने वजनदार होते हैं कि दो-दो आदमी मिलकर इनको चूल्हे से उतार पाते थे। आज भी पहाड़ के सुदूर गांवों में सार्वजनिक उत्सवों में कहीं कहीं ये कसेरे यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं पीलिया जैसे रोग का उपचार भी गांव-देहातों में झाड़कर ही किया जाता था।
पीलिया झाड़ने के लिए भी कांसे के बर्तन में सरसों का तेल भरकर इसी में पीलिया झाड़ा जाता और तेल का पीलापन बढ़ना पीलिया के बाहर निकलने संकेत बताया जाता। धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी कांसे का बर्तन पवित्र माना जाता है। आज स्टेनलैस स्टील, प्रेशर कूकर आदि के चलन से कांसे के बर्तनों का उपयोग अतीत की बात हो गयी है. चमक-धमक और दौड़-भाग भरी जिन्दगी में कांसा भले चलन से बाहर होता जा रहा है, लेकिन इसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। यह एक तथ्य है जिसे हमारे प्राचीन पूर्वजों ने अपने समय में बहुत पहले ही समझ लिया था। इसके मूल्य और महत्व को इसके लाभों में फिर से पहचाना जा रहा है जो अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने और बनाए रखने में मदद करते हैं।
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कांसे की थाली या कांसे का बर्तन खरीदते समय सुनिश्चित करें कि आप वास्तव में 100 प्रतिशत शुद्ध कांसे के उत्पाद खरीद रहे हैं। यह लंबे समय में सर्वोत्तम स्वास्थ्य और संतुष्टि की गारंटी देगा।सस्ती धातुओं का बाजार पर कब्जा,बर्तनों की मरम्मत करने वाले कारीगर हुए बेरोजगार।पीतल.कांसे के दाम अधिक होने से मध्यम और गरीब वर्ग की पहुंच से दूर। कारीगरों ने तांबा, पीतल और कांसे के डिजाइन वाले बर्तन बनाना भी शुरु कर दिए हैं, जो देखने में भी खूबसूरत लगते हैं। लेकिन उसे मध्यम व गरीब वर्ग के लोग नहीं खरीद पाते, पूंजीपति लोग ही उनका उपयोग कर रहे हैं।
यदि सरकार उक्त धातुओं की कीमतें कम कर दे तो प्राचीन परंपरा अनुसार पीतल-कांसा के बर्तन लोग सस्ता होने से उपयोग करने लगेंगे। इनका कहनाहम तो सिर्फ कारीगर हैं, लागत ज्यादा होने से काम बंद होने लगा है। स्टील के बर्तनों ने इस धंधे की कमर तोड़ दी। अगर सरकारी सुविधा मिले तो काम बढ़ सकता है। मजबूरी है इसलिए करना पड़ता है। हम पुराने बर्तन ठीक करते और नए विक्रय भी करते हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)