विश्व संस्कृति में स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) का योगदान - Mukhyadhara

विश्व संस्कृति में स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) का योगदान

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विश्व संस्कृति में स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) का योगदान

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है, जहां किसी ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए घर-बार छोड़ दिया और फिर उसी मोक्ष को मातृभूमि की सेवा के लिए छोड़ दिया। ऐसे त्यागी और तपस्वी स्वामी विवेकानंद जी के जन्म दिन पर हम सब यह संकल्प करें कि अपने जीवन में उनके आदर्शों का पालन करेंगे।स्वामी विवेकानंद एक महान देशभक्त, क्रांतिकारी संन्यासी मौलिक चिंतक, समाज सुधारक और आधुनिक भारत के निर्माता थे। देश की वर्तमान परिस्थितियों में वह और उनके विचार सबसे अधिक प्रासंगिक हैं। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की पूर्व भूमिका तैयार
की। उनके प्रखर विचारों की प्ररेणा से ही स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हुआ और भारत आजाद हुआ। देश को स्वतंत्र करवाने में 1857 में पहला संघर्ष हुआ। अंग्रेजों की शक्ति के आगे वह सफल न हो सका। उसके बाद भारत में सब तरफ निराशा का वातावरण बना। सबको लगा कि अंग्रेजों को हटाया नहीं जा सकता।

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देश के कुछ विद्वान महापुरुषों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया कि अंग्रेज तो भारत को ईश्वरीय वरदान हैं। उन्हीं दिनों ईसाई बड़े जोर से धर्म परिवर्तन कर रहे थे। सरकार का उन्हें संरक्षण था।उन्होंने सब तरफ यह प्रचार किया कि भारत के ग्रंथ वेद-पुराण गडरियों के गीत हैं। कुरीतियों से भरा हुआ है और ईश्वर को प्राप्त करने के लिए लोगों को ईसाई धर्म में आना चाहिए। 1857  के बाद कई वर्ष भारत में भयंकर निराशा का वातावरण रहा। कहीं-कहीं कुछ देशभक्तों ने संघर्ष करने की कोशिश की, परंतु उन्हें पूरी तरह से कुचल दिया गया।कलकता के एक युवा नरेंद्र बाल्यकाल में अध्यात्म की ओर आकर्षित हुए। ईश्वर को जानने और मोक्ष प्राप्ति की तीव्र इच्छा से वह राम कृष्ण परमहंस के चरणों में पहुंचे। उनके शिष्य बने और साधना में लग गए।जब निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने का मौका आया तो राम कृष्ण परमहंस ने कहा नरेंद्र को वह समाधि नहीं दी जाएगी। उसकी कुंजी उन्होंने अपने पास रख ली।

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उन्होंने नरेंद्र को कहा कि उनके देहांत के बाद वह पूरे भारत में घूमे और फिर वह स्वयं निर्णय करेगा कि उसे क्या करना चाहिए।राम कृष्ण की दिव्य दूरदृष्टि थी कि वह स्वामी विवेकानंद के रूप में नरेंद्र से कुछ और करवाना चाहते थे। गुरु के स्वर्गवास के बाद उनके आदेश का पालन किया और पूरे भारत का भ्रमण करने लगे।उन दिनों वह धर्मशाला में भी आए। जब उन्होंने मातृभूमि के लोगों की गरीबी देखी, पिछड़ापन देखा, भुखमरी देखी और हीन भावना से ग्रस्त युवा को देखा, तो वह बेचैन हो गए। बार-बार सोचने लगे च्मैं अपने मोक्ष के लिए लगा हूं और मातृभूमि के करोड़ों लोग गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पूरे भारत का भ्रमण करने के बाद कन्याकुमारी की ऐतिहासिक शिला पर खड़े होकर उन्होंने घोषणा की-हे प्रभु! नहीं चाहिए मुझे मोक्ष, जब तक मातृभूमि का प्रत्येक व्यक्ति भरपेट भोजन नहीं कर लेता और भारत वेदांत की गूंज से नहीं गूंज जाता, तब तक मैं बार-बार जन्म लूं और मातृभूमि की सेवा करूं।

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विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है, जहां किसी ने मोक्ष प्राप्त करने के लिए घर-बार, परिवार छोड़ दिया और फिर उसी मोक्ष को मातृभूमि की सेवा के लिए छोड़ दिया। भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ा मोड़ 11 सितंबर, 1893 को आया जब विश्व के सभी धर्मों का एक बहुत बड़ा सम्मेलन अमरीका के शिकागो में हो रहा था। स्वामी जी भी वहां पहुंचे। सम्मेलन में प्रवेश मिलने में भी कठिनाई हुई, परंतु स्वामी
विवेकानंद जी सम्मेलन में पहुचे। अपने पहले ही भाषण में उन्होंने हिंदुत्व और वेदांत की जो व्याख्या की, उससे दुनिया भर के विद्वान बहुत अधिक प्रभावित हुए। दूसरे दिन प्रसिद्ध समाचार पत्र न्यूयॉर्क हेराल्ड ने लिखा-स्वामी विवेकानंद धर्म सम्मलेन में सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनका भाषण सुनकर यह विचार आया कि इतने विद्वान देश में ईसाई प्रचारकों को भेजना बड़ी मूर्खता की बात थी।

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शिकागो सम्मेलन ने स्वामी विवेकानंद जी को विश्व विख्यात बनाया और भारत के प्रति एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। स्वामी विवेकानंद भारत में वापस आए। उन्होंने देश, विशेषकर युवा शक्ति को जगाने का प्रयत्न किया। उनके भाषणों से हीन भावना से त्रस्त भारत जागने लगा और आत्म गौरव बढऩे लगा। उन्होंने मातृभूमि के प्रति श्रद्धा को जगाने का प्रयत्न किया। देश की युवा शक्ति को स्वाभिमान से जीने का आह्वान किया। हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने की कोशिश की। जिस हीन भावना से ग्रस्त होकर भारत के लोगों ने अंग्रेजों की गुलामी को स्वीकार कर लिया था, उस हीन भावना को समाप्त करने की कोशिश की। उन्होंने चरित्र निर्माण पर जोर दिया और कहा कि देश को समर्पित चरित्रवान देशभक्त युवा चाहिए। यह पहली जरूरत है। बाकी सब हो जाएगा। वह आयु के 40 वर्ष पूरे होने से पहले ही स्वर्ग सिधार गए। उन्हें 1893 से 1902 तक केवल नौ वर्ष काम करने का अवसर मिला।

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उनके बारे में एक विदेशी विद्वान ने कहा था कि वह आयु में छोटे, पर ज्ञान के महासागर थे। जवाहर लाल नेहरू ने कहा था-आज के भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके निर्माण की नींव स्वामी विवेकानंद जी ने रखी थी। वह राजनीतिक नेता नहीं थे, परंतु उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखी। सुभाष चंद्र बोस ने कहा था-वास्तव में भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन के संस्थापक विवेकानंद थे। राजगोपालाचार्य ने कहा था-स्वामी विवेकानंद ने हिंदुत्व की रक्षा की और भारत को बचाया। यदि वह न होते, तो न हमारा धर्म बचता नहीं। भारत में महापुरुषों की जयंतियां मनाई जाती हैं, स्मारक बनाए जाते हैं, पर उनके उपदेशों का पालन नहीं किया जाता। स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन पर हम सब यह संकल्प करें कि सब अपने जीवन में उनके आदर्शों का पालन करें।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत  हैं )

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