वोट बैंक की राजनीति तक सीमित देहरादून के दामन पर लगा ये दाग - Mukhyadhara

वोट बैंक की राजनीति तक सीमित देहरादून के दामन पर लगा ये दाग

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वोट बैंक की राजनीति तक सीमित देहरादून के दामन पर लगा ये दाग

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  डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड राज्य गठन के वक्त एक नारा हवाओं में तैरता था- आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो, मडुवा- झुंगरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के पृथक राज्य बनने के बाद दून में मलिन बस्तियां कुकुरमुत्ते की तरह उगती रहीं। देखते ही देखते बिंदाल-रिस्पना समेत दून के तमाम नदी-नाले झुग्गी व कच्चे मकानों से पट गए। बीते 23 वर्षों में देहरादून में 129 से अधिक मलिन बस्तियों ने आकार
लिया, जिनमें 40 हजार से अधिक भवन हैं।जबकि, दून की मलिन बस्तियों में वर्तमान में एक लाख से अधिक मतदाता हैं। यह संख्या किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाने के लिए काफी है। यही वजह है कि प्रदेश में सरकार किसी भी रही हो, मलिन बस्तियों को वोट बैंक बनाने के उपक्रम निरंतर चलते रहे। स्थानीय जनप्रतिनिधियों के संरक्षण में अवैध बस्तियां भी वैध हो गईं और अतिक्रमण की भेंट चढ़ी सरकारी
जमीन।

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वैध कालोनी में भले पेयजल या बिजली की लाइन न पहुंचे, लेकिन अवैध बस्तियों में तमाम सुविधाएं नेताओं के दबाव में पहुंच ही जाती हैं। कभी नगर निगम या प्रशासन ने अवैध कब्जे हटाने का प्रयास किया तो जनप्रतिनिधि ढाल बनकर आगे खड़े हो गए। विडंबना देखिए कि न तो अवैध बस्तियों को कभी हटाया जा सका, न उनका नियमितीकरण ही किया गया। हालांकि, सभी सरकारों ने बस्तीवासियों को मालिकाना हक दिलाने का आश्वासन दिया और चुनाव में समर्थन मांगा। इस संबंध में तीन बार नियमितीकरण को लेकर अध्यादेश भी लाया जा चुका है, लेकिन अब भी इनके स्थायी समाधान के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे।दून की राजनीति मलिन बस्तियों पर केंद्रित होने के कारण यहां लगातार अवैध बस्तियां पनपीं और धीरे-धीरे नदी-नालों में हजारों की संख्या में अवैध निर्माण हो गए। वोट की चाहत में सरकारें अवैध निर्माण तोड़ने के बजाय इनके संरक्षण के तरीके खोजती रहीं। नेताओं की सियासत में अवैध बसागत बढ़ती रही और शहर बदरंग हो गया।

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राज्य बनने से पहले नगर पालिका रहते हुए दून में 75 मलिन बस्ती चिह्नित थीं। लेकिन, नगर निगम बनने के बाद वर्ष 2002 में ही इनकी संख्या 102 हो गई और वर्ष 2008-09 में हुए सर्वे में यह आंकड़ा 123 तक जा पहुंचा। तब से बस्तियों का चिह्नीकरण नहीं हुआ। सरकारी अनुमान के अनुसार वर्तमान में दून में 129 बस्ती और 40 हजार से अधिक घर हैं। दून में बीते 23 वर्षों के दौरान हजारों हेक्टेयर सरकारी भूमि कब्जे की भेंट चढ़ गई। निगम की करीब 7,800 हेक्टेयर भूमि में से अब सिर्फ 240 हेक्टेयर ही बची है। माफिया निगम की जमीनों की लूट-खसोट में लगे हुए हैं, लेकिन न सरकार की नींद टूट रही, न निगम की ही। अवैध खरीद-फरोख्त के साथ ही बस्तियों के रूप में कब्जे और धीरे-धीरे निर्माण कर सरकारी जमीनों को लूट लिया गया और वोट के लालच में सरकारें मूकदर्शक बनी रहीं। वादे तो झूठे निकले हें दावे भी खोखले, फिर भी है कुर्सियों पर सियासत तो देखिये, तब्दीलियों के नाम पर कुछ भी नया नहीं बनने को बन गई है सियासत को देखिये…’ जनकवि बल्ली सिंह ‘चीमा’  की लिखी गजल की ये लाइनें उत्तराखंड के हालातों पर सटीक बैठती हैं।

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लंबे जनसंघर्ष और 42 कुर्बानियों के बाद मिले अलग राज्य में विकास कार्य तो हुए लेकिन पलायन, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य के सवाल ज्वलंत बने हुए हैं। 2023 के अंत में केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने सिटीज 2.0 प्रोजेक्ट लांच किया था. इस प्रोजेक्ट के तहत भारत के 18 शहरों का चयन किया गया है। इस लिस्ट में स्मार्ट सिटी देहरादून शामिल नहीं है। इससे पहले सिटीज 1.0 में देहरादून का नाम शामिल था। इस कारण देहरादून में नए प्रोजेक्ट की संभावनाएं खत्म हो गई हैं, साथ ही सिटीज 2.0 से कचरा निस्तारण के लिए मिलने वाले 119 करोड़ रुपये भी दून को नहीं मिलेंगे। जहां आम जनता स्मार्ट सिटी के अधूरे काम से परेशान थी, वहीं इस लिस्ट के सामने आने के बाद दोहरा झटका लगा है।

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राजधानी देहरादून के निवासी ने कहा कि साल 2019 में देहरादून को स्मार्ट सिटी बनाने का काम शुरू हुआ था लेकिन आज 5 साल बाद भी देहरादून स्मार्ट सिटी का काम पूरा नहीं हो पाया। शहर के कई सड़कों पर गड्ढे आज भी नजर आते हैं, वहीं, न ही लाइटिंग का काम पूरा हो पा रहा है और न ही अंडरग्राउंड वायरिंग का काम पूरा हो पाया है। रेलवे स्टेशन के पास और सहारनपुर चौक के पास सीवर और पाइपलाइन डालने का का जारी है, जिससे जनता बहुत परेशान हो रही है। सूबे की सरकार ने स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत बेशक ‘सपनों’ का एक नया शहर बसाने की ओर कदम बढ़ा दिए, मगर इस सुनहरे सपने के पीछे दस लाख दूनवासियों के सारे ख्वाब और उम्मीदें दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे पिछले पंद्रह साल से राजधानी का बोझ ढो रहे देहरादून शहर की उम्मीदें भी तिल-तिल दम तोड़ती रही हैं।

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सवाल यह है कि हरे-भरे बागान एकड़ जमीन पर सरकार नई स्मार्ट सिटी तो विकसित कर लेगी, मगर दून के उन बाशिंदों को क्या हासिल होगा, जो डेढ़ दशक से दून की खुशहाल तस्वीर को बदहाली के गुबार से बदरंग होते देखते आए हैं। सरकार के ‘दायित्वबोध’ का यह आलम तब है, जब स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में पुराने दून को स्मार्ट दून में बदलने के सभी विकल्प व संभावनाएं मौजूद हैं। दूनवासियों के सारे ख्वाब और उम्मीदें दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। देहरादून सूबे की सरकार ने स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत बेशक ‘सपनों’ का एक नया शहर बसा. धरातल पर उतरेगा स्मार्ट दून का सपना लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं। लेखक के निजी विचार हैं।

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