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सियासी दलों (political parties) में आयाराम-गयाराम

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सियासी दलों (political parties) में आयाराम-गयाराम

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 डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

इससे यह सवाल उठता है कि क्या हमारे प्रतिनिधि केवल अपने राजनीतिक संगठन के प्रति ही जिम्मेदार हैं? या क्या उन लोगों की राय व्यक्त करने की भी उनकी कोई ज़िम्मेदारी है जिन्होंने उन्हें चुना है? भारत में, विधायकों द्वारा पार्टी अनुशासन का पालन न करने का प्रश्न एक राजनीतिक मुद्दा है, जो उनके और उनके राजनीतिक दल के बीच का मुद्दा है। यदि राजनीतिक दल चाहते हैं कि उनके सदस्य पार्टी लाइन पर
चलें, तो उनके नेतृत्व को आंतरिक पार्टी लोकतंत्र, संवाद और अपने सदस्यों के विकास के रास्ते को बढ़ावा देने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। असली सवाल यह होगा कि संविधान को उन राजनीतिक दलों की मदद के लिए क्यों आना चाहिए जो अपने सदस्यों को एक साथ नहीं रख सकते।

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यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि दल-बदल विरोधी कानून हमारी विधायिकाओं के प्रभावी कामकाज से लगातार समझौता कर रहा है। अस्सी के दशक में विपक्ष का नारा था, ‘कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ’ या ‘इंदिरा हराओ-देश बचाओ’। लगभग चार दशक बाद विपक्ष नारा लगा रहा है, ‘भाजपा हटाओ-देश बचाओ’ या ‘मोदी-हराओ देश बचाओ’। चार दशक का वक्त कोई कम नहीं होता। पर, नारे एक जैसे हैं।लक्ष्य भी एक- सा है। सत्तारूढ़ दल को हराने के लिए विपक्षी एकजुटता की जद्दोजहद जारी है। बदले हैं तो सिर्फ किरदार। हां! कुछ का दिल बदला, तो दल भी बदल लिए। नारों के पात्र बदल गए। सियासी दलों का मतदाताओं पर फोकस का तौर-तरीका बदल गया।

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मतदाताओं की प्राथमिकता बदल गई। राजनेताओं की भूमिका भी बदल गई। तब भाजपा अस्तित्व के संघर्ष से जूझ रही थी और अब कांग्रेस जूझ रही है। हवा में बर्फ- सा दल- दल है। मन में इच्छाओं, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं का दल- दल है। और आज की राजनीति में दलबदल का दलदल है। राजनीतिक दलबदल के इस वातावरण में हम आम लोगों की गिनती नेताओं के घरों में रंधाती दाल से ज्यादा कुछ नहीं है। फिर भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम जिस दल के लिए उन्हें वोट देते हैं, पाँच साल में वे दूसरे या तीसरे दल की तरफ़ हो जाते हैं और कभी तो चौथे में जाकर हमसे फिर वोट माँगने आ जाते हैं, लेकिन हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम फिर उन्हीं को वोट देते हैं। वे फिर दल बदल लेते हैं। और वो अभिमन्यु , जिसने माँ के पेट में ही चक्रव्यूह में प्रवेश का ज्ञान तो ले लिया था,लेकिन निकलने का नहीं तो आज के इस राजनीतिक अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान किसने दिया? निश्चित ही सत्ता पक्ष (बलशाली) और उसकी लालसा ने ही दिया होगा, पर हमें इससे कोई सरोकार नहीं होता।

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इससे भी क़तई नहीं कि हमारे कृष्ण और राम और मनु ने क्या किया, कैसे किया और ये आज के जनप्रतिनिधि आख़िर क्या कर रहे हैं?सिवाय रोज़मर्रा की जहद और झमेले से हमें फुर्सत कहाँ? हमारे पास तो एक मशक़्क़त से भरी ज़िन्दगी है। थोड़े से नोटों की आमदनी। वो भी महीना पूरा होने के बाद मिलती है। बस, इसी में उलझे रहते हैं और हमारी असल ताक़त जो इन नेताओं के पास जाने कब से गिरवी पड़ी है, वे इसका इस्तेमाल कर करके तख़्तो-ताज तक गिराते- उठाते रहते हैं। कुल मिलाकर आज का राजनीतिक माहौल डर और धौंस- पट्टी पर टिका हुआ है। नेताओं ने अपने लफ़्ज़ों को तलवारें थमा दी हैं और हम सोए हुए हैं वर्षों से। अब घनघोर बारिश भी हमें जगाती नहीं है, छत की चादरें बजाकर। क्योंकि छतें अब सीमेंट की हैं। न उनके कान हैं, न नाक।

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यह तो साफ़ है कि सत्ता के मंदिर के गर्भगृहों में अब चाँदी के छत्र हैं। सोने के दीपक हैं। हीरों से जड़ी झालरें भी हैं, लेकिन भगवान नहीं हैं। हमें इस सोने, इस चाँदी और इन हीरों के दर्शन से ज़्यादा संतुष्टि मिलने लगी है। यह तंद्रा खुलनी चाहिए। यह निद्रा ख़त्म होनी चाहिए। लेकिन उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वे अपने भ्रष्टाचार को वाशिंग मशीन में धोकर साफ़ सुथरा करने के लिए सत्ता पक्ष से जा मिलते हैं। और कुछ ही दिनों में देखने में आता है कि वे वाक़ई सफ़ेदी के पर्याय हो गए हैं। कोई दाग नहीं रह गया। उत्तराखंड में अभी तक 5 हजार से ज्यादा नेता अन्य दलों का दामन छोड़ बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। बावजूद इसके अभी भी हजारों की संख्या में आवेदन बीजेपी में शामिल हुए। लिहाजा, लोकसभा
चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान बड़ी तादाद में बड़े-बड़े नेता बीजेपी में शामिल होना चाहते हैं।

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आयाराम का मुहावरा दलबदल के पर्याय के रूप में 1967 में उस वक्त मशहूर हुआ जब हरियाणा की हसनपुर (सुरक्षित) विधानसभा से निर्दलीय विधायक गयालाल ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली। यह अपने आप में एक रिकॉर्ड था। इसके साथ ही भारतीय  राजनीति  में इस मुहावरे ने जगह बना ली. पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाए रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी कायम है। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। इसलिए ऐसा माहौल बनाए रखना उनकी चुनावी मजबूरी है। सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं आया राम-गया राम की राजनीति के लिए मशहूर इस प्रदेश में संसदीय चुनावों के दौरान पाला बदलने का जो च्खेलज् शुरू हुआ, वह विधानसभा चुनाव में चरम पर पहुंच गया है।

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(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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