अमीरों की थाली में गरीबों के भोजन को मिल रही पहचान - Mukhyadhara

अमीरों की थाली में गरीबों के भोजन को मिल रही पहचान

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अमीरों की थाली में गरीबों के भोजन को मिल रही पहचान

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

आज पूरी दुनिया उसी मोटे अनाज की तरफ पुनः वापस लौट रही है और बाजार में इन्हें’सुपर फूड’ का दर्जा दिया गया है। बाजार में मोटे अनाज वाले उत्पाद और मल्टीग्रेन आटे की मांग बढ़ रही है। ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल और शुगर का लेवल संतुलित बनाए रखने के लिए मोटा अनाज अमीरों और शहरी मध्य वर्ग के भोजन का अनिवार्य हिस्सा बन गया है।लेकिन इसकी कीमत गरीब किसान पहले ही भर चुका है उसकी थाली का भोजन शहरी अमीर खा रहे हैं।मोटे अनाज की मांग तो बढ़ रही है, लेकिन उन किसानों से मिलेट 50  साल पहले क्यों धीरे-धीरे दूर कर दिया गया? हमारे देश में ज्वार, बाजरा, मडुआ, सावां, कोदो, चीना, कौनी इत्यादि की खेती आज से 50 साल पहले अधिक मात्रा में की जाती थी जो हमारे खाने की परंपरा का अहम अंग था।

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साठ के दशक में आई हरित क्रांति के बाद हम सभी ने अपनी थाली में धीरे-धीरे चावल और गेहूं को सजा लिया और मोटे अनाजों को अपनों से दूर कर लिया था। गेहूं और चावल का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उसमें पाए जाने वाले पोषक तत्वों की कमी होती गई। जिस अनाज को हम 6000  साल से खा रहे थे, उससे हम ने मुंह मोड़ लिया।लेकिन अब सीमांत और मझोले किसान मोटे अनाजों की पहचान वापस ला रहे हैं।साठ के दशक के बाद अपने देश में लोगों की भूख मिटाने के लिए केवल मुख्य रूप से चावल और गेहूं की फसल पर निर्भर होते गए। इन्हीं दोनों अनाजों के उत्पादन बढ़ाने के लिए इसकी बुवाई से लेकर कटाई तक के यंत्र और मशीनरी तक विकसित किए गए। इससे किसानों को इसकी खेती आसान लगने लगी और किसानों ने इन दोनों फसलों रकबा बढ़ा दिया। ये दोनों फसलें दूसरे अनाजों की महत्ता को कम करती गईं, जिसका नतीजा रहा पोषक तत्वों वाली फसलें गौण होती चली गईं।

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देश धान, गेहूं पर निर्भर होता गया जिसमें अधिक रासायनिक खाद और पानी की जरूरत होती है। इसके प्रभाव से खेत की मिट्टी की उर्वरता में कमी और उगाए जाने वाले अनाजों में पोषक तत्वों की कमी देखने को मिल रही है। अगर मृदा की उर्वरता की बात करें तो अपने देश में जैव कार्बन की मात्रा 85 फीसदी मृदा में बहुत न्यूनतम है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार में जहां मुख्य रूप से धान-गेहूं फसल चक्र की खेती की जाती है।साल 2018-19 के मृदा नमूने के अनुसार, पंजाब और हरियाणा राज्यों में 99 फीसदी, उत्तर प्रदेश 97फीसदी, बिहार में 82फीसदी खेतों में जैविक उर्वरता न्यूनतम से कम है।

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कृषि विशेषज्ञों की मानें तो लगातार एक प्रकार की फसल उगाने के कारण मिट्टी की उर्वरता का ह्रास होता है। इसे खेतों के फसल चक्र में विभिन्नता लाकर दूर किया जा सकता है। धान-गेहूं खेतों से ज्यादा पोषक तत्व ले रहे हैं, लेकिन इन फसलों के अनाज में पोषक तत्वों की कमी होती जा रही है। आहार पोषण मूल्य कम हो गया है। पिछले 50 सालों में चावल में जिंक सांद्रता 33 फीसदी और आयरन सांद्रता 27 फीसदी, गेहूं में जिंक सांद्रता 33 फीसदी और आयरन सांद्रता 19 फीसदी की कमी आई है।आयरन लोगों के शरीर के लिए अहम तत्व है। हीमोग्लोबिन का यह अहम हिस्सा है जो शरीर के विभिन्न हिस्सों में ऑक्सीजन पहुंचाने में मदद करता है।आयरन की कमी से मनुष्य में थकान, सांस लेने में तकलीफ, नाड़ी की गति, सिर दर्द आदि समस्याएं होती हैं। हार्मोन के उत्पादन के लिए शरीर को आयरन की भी जरूरत होती है। जिंक की कमी से कमजोरी महसूस होना, बार बार दस्त होना, भूख न लगना, वजन घटाना और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है।

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इन अनाजों से भोजन में जिंक और आयरन की कमी नहीं बल्कि विटामिन,प्रो-विटामिन, विटामिन ई, विटामिन ए और फोलिक एसिड की कमी होती जा रही है।देश में साल 2022- 2023 में मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, रागी और छोटे मिलेट्स का उत्पादन 1 करोड़ 70 लाख टन से अधिक है, जो दुनिया का लगभग 20 फीसदी उत्पादन है। कि गरीबों के अनाज कहे जाने वाले मोटे अनाज की खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। यह अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं. धान, गेहूं, गन्ना की तुलना में बहुत कम पानी देने की जरूरत पड़ती है। इसकी खेती में यूरिया और अन्य रसायनों को कम देना पड़ता है। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के दौर में बेहतर पैदावार दे सकते हैं।इसलिए मोटे अनाज की खेती पर्यावरण के अनुकूल एक बेहतर विकल्प है।

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सरकार भी मोटे अनाज को लेकर काफी उत्सुक दिख रही है। सरकार मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए कई कार्यक्रम  चला रही है।वही नौ वर्षों के शासन के दौरान ज्वार, बाजरा और रागी के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 100 से 150 प्रतिशत की भारी वृद्धि हुई है।सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2014-15 से 2023-24 के बीच ज्वार का एमएसपी 108 फीसदी बढ़ा है। वित्तीय वर्ष 2014-15 में ज्वार का एमएसपी
1,550 रुपये प्रति क्विंटल था, जो 2023-24 में 3,225 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया। इसी तरह बाजरे का एमएसपी 2014-15 में 1,250 रुपये प्रति क्विंटल था, जो 2023-24 में 100 फीसदी बढ़कर 2,500 रुपये प्रति क्विंटल हो गया।रागी का एमएसपी नौ वर्षों में 148 प्रतिशत बढ़कर 1,550 रुपये प्रति क्विंटल से 3,846 रुपये प्रति क्विंटल हो गया।मक्के के मामले में, एमएसपी 2014-15 में 1,310 रुपये प्रति क्विंटल था, जो 2023-24 में 59 प्रतिशत बढ़कर 2,090 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। लेकिन मोटे अनाज का फायदा तब मिलेगा जब इन अनाजों की खरीद की व्यवस्था गेहूं और चावल की तरह कर दी जाए जिससे किसानों का उत्साह बना रहे।

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मोटे अनाजों के पोषक और स्वास्थ्य के महत्व को दृष्टिगत रखते हुये केंद्र सरकार ने भी वर्ष 2023 को मोटे अनाज का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष वृहद रूप से मनाने की तैयारियां शुरू कर दी है। कृषि नेतृत्व एवं वैश्विक पोषण सम्मेलन (एग्रीकल्चर लीडरशिप एंड ग्लोबल न्यूट्रिशन कान्क्लेव) में कहा कि अंतरराष्ट्रीय पोषक-अनाज वर्ष मनाए जाने से मिलेट्स (मोटे अनाजों) की घरेलू एवं वैश्विक खपत बढ़ेगी, जिससे रोजगार में भी वृद्धि होगी एवं अर्थव्यवस्था और मजबूत होगी। उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा, संस्कृति, चलन, स्वाभाविक उत्पाद व प्रकृति द्वारा जो कुछ भी हमें दिया गया है, वह निश्चित रूप से किसी भी मनुष्य को स्वस्थ रखने में परिपूर्ण है।

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उन्होने कहा कि गेहूं और चावल के साथ मोटे अनाज का भी भोजन की थाली में पुन: सम्मानजनक स्थान होना चाहिए। हमारी खाद्य वस्तुओं में पोषकता का समावेश होना अत्यंत आवश्यक है।भारत में कुछ दशक पहले निम्न आय और निर्धन लोगों के खाने में उपयोग में लाये जाने वाले मोटे अनाज अब अमीरों की थाली की शान बन गये हैं। भारत सहित विश्व के अनेक देशों में मोटे अनाजों को लेकर काफी उत्सुकता बढ़ गई है और इनका भोजन में उपयोग करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।किसान ज्यादा सुखी नजर आए तो जैविक तरीकों से खेती कर रहे थे। खेती कैसी करनी है और उसके उत्पाद कहां बेचने हैं ये किसान का काम है। किसानों को बाजारू माल प्रैक्टिस के कुचक्र से निकलने के रास्ते खुद ही निकालने होंगे और आर्थिक तौर पर संगठित होना होगा।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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