भाई-बहन के आपसी प्रेम व अपनत्व का प्रतीक भिटौली (Bhitauli)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊं-गढवाल मण्डल के पहाड़ी क्षेत्र अपनी रंगीली लोक परम्पराओं और त्यौहारों के लिये शताब्दियों से प्रसिद्ध हैं।यहाँ प्रचलित कई ऐसे तीज-त्यौहार हैं जो केवल उत्तराखण्ड में ही मनाये जाते है।वही इसे बचाए रखने का बीड़ा उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र और यहाँ पर रहने वाले पहाड़ी लोगों ने उठाया है इन्होने आज भी अपनी परंपरा और रीति- रिवाजों को जिन्दा रखा है। उत्तराखण्ड की ऐसी ही एक विशिष्ट परम्परा है ‘भिटौली’। उत्तराखण्ड में चैत का पूरा महीना भिटोली के महीने के तौर पर मनाया जाता है। स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी के इस गाने मे भिटोला महीना के बारे मे वर्णन है।
“बाटी लागी बारात चेली ,बैठ डोली मे,
बाबु की लाडली चेली,बैठ डोली मे
तेरो बाजू भिटोयी आला, बैठ डोली मे “
उत्तराखंड का कुमाऊं मंडल तथा गढ़वाल मंडल दोनों ही अपनी अलग-अलग परंपराओं को लेकर प्रचलित है। ऐसे कई त्योहार एवं परंपराएं हैं जो सिर्फ उत्तराखंड की पहाड़ी क्षेत्रों में ही मनाए जाते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में चैत के महीने में मनाया जाने वाली भिटौली एक विशिष्ट परंपरा है जो विशेषकर भाई बहन के प्यार का प्रतीक है और विवाहित महिलाओं को समर्पित है पहाड़ों में देवी देवताओं के प्रति श्रद्धा और उनसे जुड़े लोकपर्व यहां की संस्कृति और सभ्यता को जीवित रखे हुए हैं।
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उत्तराखंड में चैत्र का महीना काफी विशेष माना जाता है। इन दिनों यहां देवी देवताओं से जुड़े लोकपर्व देखने को मिलते हैं। पहाड़ की महिलाओं को समर्पित यह परंपरा महिला के मायके से जुड़ी भावनाओं और संवेदनाओं को बयां करती है। पहाड़ की बदलते स्वरूप, दूरसंचार की उपलब्धता, आवागमन की बढ़ी सुविधाओं के बाद यह परंपरा प्रदेश के दोनों मंडलों के पहाड़ी क्षेत्रों में अभी भी पुराने रूप में जीवित है।आनलाइन भिटौली का रिवाज भी बढ़ने लगा है। भिटौली का मतलब भेंट करना है।
उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण विवाहित महिला को वर्षों तक अपने मायके जाने का मौका नहीं मिल पाता था।ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली उन्हें अपने पिता, माता, भाई से मिलने का मौका देती है। भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उपहार स्वरूप पकवान लेकर उसके ससुराल पहुंचता है। भाई बहन के इस अटूट प्रेम, मिलन भिटौली है। सदियों पुरानी यह परंपरा आधुनिक युग और भागदौड़ की जिंदगी में भी निभाई जा रही है। इसे चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे माहभर तक मनाया जाता है।
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भिटौली से जुड़ी बहुत सी लोककथाएं, दंतकथाएं प्रचलित हैं। इसमें गोरीधाना की दंतकथा बहुत प्रसिद्ध है जो कि बहन और भाई के असीम प्रेम को बयां करती है। चैत्र में भाई अपनी बहन को भिटौली देने जाता है। वह लंबा सफर तय कर जब बहन के ससुराल पहुंचता है तो बहन को सोया पाता है।अगले दिन शनिवार होने के कारण बिना मुलाकात कर उपहार उसके पास रख लौट जाता है। बहन के सोये रहने से उसकी भाई से मुलाकात नहीं हो पाती। बहन भै भूखों, मैं सिती भै भूखो, मैं सिती’; कहते हुए प्राण त्याग देती है। बाद में एक पक्षी बन वह यही पंक्तियां कहती है। चैत्र में एक पक्षी इस गीत को गाता है।
क्वैराली इंटर कालेज के प्रवक्ता ने बताया कि बताते हैं कि पुराने समय में भिटौली देने जब भाई बहन के ससुराल जाता था तो बहुत से उपहार और विशेषकर पकवान लेकर जाता था और उसके बहन के घर पहुंचने पर उत्सव सा माहौल होता था।उसके लाए पकवान पूरे गांव में बांटे जाते थे। आजकल भिटौली एक औपचारिकता मात्र रह गई है। आजकल बेटियों और बहनों को भिटौली के रूप में मायके पक्ष से पैसे भेज दिए जाते हैं। चैत्र का महीना लगते ही सास हो चाहे बहू हर उम्र की महिला को भिटौली का इंतजार रहता है। जब तक भिटौली नहीं आती तब तक महिलाएं घुघुती नामक पक्षी से न बासने (बोलने) की विनती इस लोकगीत को गाकर करती हैं –”न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मैंकैं मैत की”।
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चैत्र का महीना विवाहित बेटियों की भिटौली का होने के कारण ही इस महीने कुमाऊं में विवाह नहीं होते हैं। जिन लड़कियों का विवाह चैत्र का महीना लगने से पहले हो जाता है, उनकी पहली भिटौली फागुन के महीने में ही दे दी जाती है, क्योंकि विवाह के बाद पड़ने वाले पहले चैत्र के महीने बेटियां मायके में ही रहती हैं। वैसे नव विवाहित बेटी को पहली भिटौली उसकी शादी के दूसरे दिन दुरगूण के समय भी दी जाती है। यदि दुर्भाग्यवश बेटी व बहन के पति की मौत हो जाए तो उनके पति की मौत के बाद जो पहली भिटौली मायके की ओर से दी जाती है, उसमें कपड़े नहीं दिए जाते। केवल फल व पकवान भिटौली में देते हैं। उसके बाद हर साल पूरी भिटौली साड़ी, ब्लाउज व रुमाल सहित दी जाती है। पिता
व भाई की मौत होने के बाद भी मायके से ईजा (मां), भद्यो (भाई के बेटे), बौजी (भाभी) आदि भिटौली देने की परम्परा का निर्वाह करते हैं और बहन व बेटी के अलावा बुआ को भी अपने भद्यो की ओर से भिटौली मिलती रहती है। जिन परिवारों में एक से अधिक भाई होते हैं और उन सब के परिवारों में से अगर किसी भाई के बेटी नहीं होती तो वह अपने दूसरे भाई की बेटियों को भिटौली देते हैं। भिटौली देने के लिए भी मंगलवार,
बृहस्पतिवार व शनिवार को नहीं जाते हैं।
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वहीं कुछ जगहों पर सोमवार के दिन भी नहीं जाते हैं। आधुनिकता की दौड़ में ये सब अब धीरे धीरे कम होता जा रहा है, पहले इनके प्रति जिस प्रकार से उत्साह एक ललक होती थी वो अब कम देखने को मिलती है। कहीं कहीं तो अब भी ये उसी तरह से निभाये जाते हैं, पर उतना नहीं। इसके पीछे कारण हैं गांव से शहरों की ओर होता हुआ पलायन। अब अधिकांश लड़की के मायके से उसके मायके वाले कुछ रुपये भेज देते हैं, जिनसे वो सामान खरीद कर एक दिन भिटौली पकाती है और आस पड़ोस में बांट देती है। भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं।
पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है । वहीं “भै भुखो-मैं सिती” नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि “भै भुखो-मैं सिती” यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए।
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कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में “भै भुखो-मैं सिती” की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। भिटोला के अलावा कई जगह यह भी प्रथा है की जब किसी लड़की की शादी होते है शादी के पहले साल, लड़के वाले लड़की के घर ओरग देने आते है।यह भी एक प्रकार से भिटोला की तरह है लेकिन फर्क यह है की लड़की वाले चैत्र के महीना जिसे काला महीना भी माना जाता है और लड़की आपने माता-पिता के घर मे ही रहती है। शादी के बाद का जो पहला चैत का महीना होता है उसे “काला महीना” स्थानीय भाषा में “काव मेंहन” कहा जाता है, लड़की उस
महीने के पहले 5 दिन या पूरे महीने अपने मायके में ही रहती है।यह भी प्रचलन है कि शादी होने के बाद के पहले चैत महीने के 5 दिन तक पत्नी को अपने पति के मुख को भी नहीं देखना होता है इसिलिये वे माईके चली जाती हैं।
आज से कुछ दशक पहले जब यातायात व संचार के माध्यम इतने नहीं थे उस समय की महिलाओं के लिये यह परंपरा बहुत महत्वपूर्ण थी। जब साल में एक बार मायके से उनके लिये पारंपरिक पकवानों की पोटली के साथ ही उपहार के तौर पर कपडे आदि आते थे। समय बीतने के साथ-साथ इस परंपरा में कुछ बदलाव आ चुका है। इस रिवाज पर भी औपचारिकता और शहरीकरण ने गहरा प्रभाव छोडा है। वर्तमान समय में अधिकतर लोग फ़ोन पर बात करके कोरियर से गिफ़्ट या मनीआर्डर/ड्राफ़्ट से अपनी बहनों को रुपये भेज कर औपचारिकता पूरी कर देते हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी प्रेमभाव व पारिवारिक सौहार्द के साथ भिटौली का खास महत्व बना हुआ है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं )