उत्तराखंड का फल ही नहीं बल्कि संस्कृति भी है काफल
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
जंगल हमेशा वीरान नहीं रहते। प्रकृति के उपहार से उनका श्रृंगार होता है। चाहे वह बुरांश हो या फिर चैत के महीने में अपनी लालिमा बिखेरने वाला हिमालयी कायफल। जंगलों की शान बढ़ाने और हर दिल पर राज करने वाला कायफल विशुद्ध रूप से जंगली फल है। जिसका पौधा अपने बीज से नहीं, पक्षियों की बीट से पैदा होता है। इसकी खूबियों के चलते 1952 में बेड़ू पाको बारमासा, ओ नरैण काफल पाको चैता.. गीत को गोपाल दा (गोपाल बाबू गोस्वामी) ने अपनी अनमोल आवाज दी थी और तब से ये जंगली फल जुबां में मिठास घोलने के साथ-साथ आज भी लोगों के कानों में गूंजता है।
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काफल हिमालय का खास सीजनल फल है। आयुर्वेद में इसे कायफल नाम मिला है। उत्तराखंड में कुमाऊं-गढ़वाल से लेकर हिमाचल, मेघालय और नेपाल के गोरखा, काठमांडू, पोखरा जिले में इसके वृक्ष मिलते हैं। तीन से छह हजार फिट की ऊंचाई पर ठंडी और छायादार जगहों में उगने वाले कायफल के पौधे का परागण प्रकृति ने पक्षियों को सौंपा है।इसीलिए बीज से पौधा अंकुरित नहीं होता। कायफल गुठली की तरह है, जिसकी बाहरी परत (फल) को खाया जाता है, लेकिन इससे भी बड़ी खासियत यह कि गुठली से लेकर पूरा वृक्ष औषधीय गुणों से भरा है। फरवरी से पेड़ पर फल आने शुरू होते हैं और मई तक हरे दाने पककर लाल हो जाते हैं। जुलाई तक पेड़ काफल से लकदक रहते हैं।
उत्तराखंड के हरे- भरे पहाड़ जितने खूबसूरत हैं उतनी ही खूबसूरत पहाड़ की संस्कृति भी है। इन दिनों यहां के पहाड़ों में काफल की बहार आई हुई है। काफल उत्तराखंड की पहाड़ियों पर उगने वाला जंगली फल है लेकिन अपने खट्टे-मीठे स्वाद के कारण यह पहाड़ों पर फलों के राजा के रूप में पहचाना जाता है। ‘काफल’ सिर्फ फल ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की संस्कृति का हिस्सा भी है। काफल औषधि युक्त जंगली फल है, जिसे जंगली जैविक फल भी कहा जाता है। यह फल अनेक रोगों में लाभकारी होते हैं। यह जंगली पशुओं और पक्षियों का एक भोजन भी है। बेड़ू पाको बारामासा, हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला. उत्तराखंड का सर्वाधिक लोकप्रिय लोक गीत है।
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आपको पता है इस गीत में जिस काफल का जिक्र किया गया है, वो आखिर है क्या। दरअसल काफल पहाड़ों में होने वाला जंगली फल है, जिसका मजा आप गर्मियों में ही ले सकता है. ये गहरे लाल रंग का होता है और इसका स्वाद खट्टा-मीठा होता है। उत्तराखंड के अलावा ये हिमाचल प्रदेश में मिलता है। काफल का वैज्ञानिक नाम मिरिका एस्कुलेंटा है। ये पेड़ हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाता है। हजारों साल से उत्तराखंड के जंगलों में काफल का पेड़ उग रहा है।उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में ये काफी ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा ये हिमाचल प्रदेश और नॉर्थ ईस्ट के पहाड़ी इलाकों में होता है।नेपाल के कई इलाकों में भी काफल का पेड़ पाया जाता है, जहां इसके नाम अलग-अलग है।उत्तरांखड की बात करें तो ये यहां की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस जंगली फल में कई औषधीय गुण पाए जाते हैं। इसमें कैल्शियम, जिंक और फास्फोरस जैसे पदार्थपाए जाते हैं, जो शरीर के लिए वरदान से कम नहीं है।
काफल में विटामिन सी और एंटी ऑक्सीडेंट भी होता है। कुल मिलाकर ये फल कई पोषक तत्वों से भरपूर होता है। इसलिए इसकी डिमांड काफी ज्यादा है। इस फल का आनंद लेने के आपको पहाड़ का ही रुख करना होगा क्योंकि ये बहुत जल्दी खराब होता है और एक बार इसका
रस निकाल जाए तो ये बेस्वाद लगता है। उत्तराखंड में इस फल का इस्तेमाल आयुर्वेद में कई तरह की दवाएं बनाने के लिए किया जाता है इसमें एंटी-अस्थमा से भरपूर प्रॉपर्टीज होती हैं, जो अस्थमा से ग्रस्त लोगों को बेहद लाभ पहुंचाता है।काफल एक जंगली फल है जो उत्तराखंड के हर प्रसिद्ध हिल स्टेशन के घने वन क्षेत्रों में देखा जा सकता है। इस फल की खेती किसी ने नहीं की है फिर भी इसे कई लोगों द्वारा बेचा जाता है। साप्ताहिक बाज़ार लाल काफलों से भरे रहते हैं और यहाँ तक कि पहाड़ी बच्चे भी इन्हें सड़क पर पर्यटकों को बेचते हैं। इस जंगली फल की शेल्फ लाइफ सिर्फ दो दिन है और फिर भी लोग इसे बड़ी मात्रा में खरीदते हैं और अपनी यात्रा की स्मृति के रूप में घर ले जाते हैं।
काफल अपने बड़े बाजार में लगभग 500 -530 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकता है और यह उन लोगों के लिए एक वरदान की तरह है जो साल के बाकी दिनों में ज्यादा पैसा कमाने में असफल रहते हैं काफल में कई औषधीय गुण हैं जो इसे पर्यटकों के बीच लोकप्रिय बनाते हैं। उत्तराखंड के लोग हमेशा से इस जंगली फल का उपयोग आयुर्वेदिक दवाएं बनाने में करते आ रहे हैं। काफल के दमारोधी गुण इसे अस्थमा से पीड़ित लोगों के लिए अच्छा बनाते हैं। इस फल की उच्च एंटीऑक्सीडेंट सामग्री के कारण, काफल अल्सर, दस्त, एनीमिया, गले में खराश, बुखार आदि जैसी बड़ी संख्या में बीमारियों का प्राकृतिक इलाज है। यहां तक कि पेड़ की छाल भी उपयोगी साबित हुई है! इसकी छाल एक अच्छी एंटी- एलर्जी हो सकती है क्योंकि इसका उपयोग कई एलर्जी को ठीक करने के लिए किया जाता है। एक अच्छा एंटी-एलर्जी होने के अलावा, काफल के पेड़ की छाल को दांतों के बीच में रखकर दो-तीन मिनट तक चबाने से दांत दर्द से राहत मिल सकती है।
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काफल के काढ़े से गरारे करने से गले का संक्रमण और घेंघा रोग भी ठीक हो जाता है काफल फल में कई तरह के प्राकृतिक तत्व पाए जाते हैं। जैसे माइरिकेटिन, मैरिकिट्रिन और ग्लाइकोसाइड्स इसके अलावा इसकी पत्तियों में फ्लावेन-4, हाइड्रोक्सी-3 पाया जाता है। इस फल को खाने से पेट से सम्बंधित कई बीमारियां दूर हो जाती हैं जैसे कि कब्ज या एसिडिटी।इसका उपयोग मोमबत्तियां, साबुन तथा पॉलिश बनाने में भी किया जाता है। काफल फल के पेड़ की छाल से निकलने वाले सार को दालचीनी और अदरक के साथ मिलाकर सेवन करने से पेचिस, बुखार, फेफड़ों की बीमारी, अस्थमा और डायरिया आदि रोगों से आसानी से बच सकते हैं अपितु यही नहीं इसकी छाल को सूघने से आंखों के रोग व सिर का दर्द भी ठीक हो जाता है।इसके पेड़ की छाल का पाउडर जुकाम, आंख की बीमारी तथा सरदर्द में सूघने के रूप में प्रयोग में लाया जाता है।
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काफल के पेड़ की छाल या इसके फूल से बने तेल की कुछ मात्रा कान में डालने से कान का दर्द दूर हो जाता है। इस फल से लकवा रोग ठीक हो सकता है और फल के प्रयोग से आप नेलपॉलिश के अलावा मोमबत्तियां व साबुन आदि भी बना सकते हैं। पहाड़ी सीजनल फल काफल अपने रसभरे लाल-लाल दानों के साथ बाजार में आ चुका है और इन दिनों400-500 रुपये किलो बिक रहा है। पहाड़ो में काफल एकमात्र फल ही नहीं है, अपितु अपने गुणों के कारण कई बीमारियों की औषधि भी है। उत्तराखंड सहित हिमालय के अन्य क्षेत्रों में जंगली तौर पर पाया जानेवाले फल काफल का सीजन शुरू हो गया है, साल में एक बार पकने वाला यह फल पहाड़ों में काफी लोकप्रिय है जिसका अंदाजा इसकी कीमत से ही लगाया जा सकता है, जंगली फल काफल की बाज़ार में कीमत 500 रुपये प्रति किलो है। यह पहाड़ों में बिकने वाला सबसे महंगा फल है जो सिर्फ जंगलों में ही उगता है।काफल बेहतरीन स्वाद के साथ साथ कई औषधीय गुणों से भी भरपूर है,जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने का काम भी करता है।
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चिकित्सा अधिकारी के पद पर ने इसके औषधीय गुणों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि काफल कई बीमारियों के काम आता है, जिसमें त्वचा रोग से लेकर मधुमेह जैसी बीमारियां हैं। जलवायु परिवर्तन का असर उत्तराखंड के जंगलों में दिखने लगा है। काफल (माइरिका एसकुलेंटा),में निर्धारित समय से दो-तीन माह पहले ही फल/ फूल खिल रहे हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )