भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत (Govind Ballabh Pant) - Mukhyadhara

भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत (Govind Ballabh Pant)

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भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत (Govind Ballabh Pant)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत रत्न पं. गोविंद बल्लभ पंत आधुनिक उत्तर भारत के निर्माता रहे। देश में उनकी हिन्दी प्रेमी के रूप में भी खास पहचान है। असल में उन्होंने चार मार्च 1925 को जनभाषा के रूप में हिन्दी को शिक्षा और कामकाज का माध्यम बनाने की जोरदार मांग उठाई थी। इसी के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना देश गूंगा है। मैं हिन्दी के जरिये प्रांतीय भाषाओं को दबाना नहीं चाहता किन्तु उनके साथ हिन्दी को भी मिला देना चाहता हूं। पंत के प्रयासों से हिन्दी को राजकीय भाषा का दर्जा मिला। पंत ने हिन्दी के प्रति अपने प्रेम को इन शब्दों में प्रकट किया-हिन्दी के प्रचार और विकास को कोई रोक नहीं सकता। हिन्दी भाषा नहीं भावों की अभिव्यक्ति है। दस सितंबर को भारत रत्न पंत का जन्मदिन है। इसके चौथे दिन 14 सितंबर को देश भर में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। इसके अलावा हिन्दी को विश्वव्यापी पहचाने दिलाने के लिए 10 जनवरी को अंतरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस भी मनाया जाता है।

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प्रसिद्ध देशभक्त ,राजनितज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माण की नींव रखने वाले पंडित गोविन्द वल्लभ पंत का जन्म 30अगस्त 1887 ईस्वी को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) के निकट खूंट नामक गाँव में हुआ था। उनकी आरम्भिक शिक्षा अपने नानाजी की देख-रेख में अल्मोड़ा में हुयी। बाद में छात्रवृति लेकर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की। इलाहाबाद में आचार्य नरेंद्र देव  ,डा.कैलाश नाथ काटजू आदि उनके सहपाठी थे। वही से पंत सार्वजनिक कार्यो में रूचि लेने लगे। 1905 की बनारस कांग्रेस में वे स्वयंसेवक के रूप में सम्मिलित हुए थे। वहा अध्यक्ष गोपाल कृष्ण गोखले के भाषण का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वकालत की परीक्षा पास करने के बाद पंत  ने
कुछ दिन अल्मोड़ा और रानीखेत में वकालत की , फिर काशीपुर (नैनीताल) आ गये। यहा उनके वकालत तो चली ही , सार्वजनिक कार्यो में भी वो अधिक सक्रिय हो गये। आपके प्रयत्न से कुमाऊ परिषद की स्थापना हुयी। इसी परिषद के प्रयत्न से1921 में कुमाऊँ म प्रचलित “कुली बेगार” की अपमानजनक प्रथा का अंत हुआ। “रोलेट  एक्ट” के विरोध में जब गांधीजी ने 1920 में असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो पन्त ने अपनी
चलती वकालत छोड़ दी। वे नैनीताल जिला बोर्ड के तथा काशीपुर नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गये।

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स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवार के रूप में 1923 में पंत ने उत्तर प्रदेश विधान परिषद के चुनाव में सफल हुए और स्वराज्य पार्टी के नेता के रूप में वहा उन्होंने अपनी धाक जमा दी। 1909में गोविन्द बल्लभ पंत को क़ानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आने पर”लम्सडैन” स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। 1910 में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोड़ा में वकालत आरम्भ की। अल्मोड़ा के बाद पंत जी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की, फिर पंत वहाँ से काशीपुर आ गये। उन दिनों काशीपुर के मुक़दमें एस.डी.एम. (डिप्टी कलक्टर) की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में 6 महीने नैनीताल व सर्दियों के 6 महीने काशीपुर में रहती थी। इस प्रकार पंत का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुड़ा। सन 1912-13 में पंत काशीपुर आये उस समय उनके पिता “रेवेन्यू कलक्टर” थे।

“कुंजबिहारी लाल”जो काशीपुर के वयोवृद्ध प्रतिष्ठित नागरिक थे, का मुक़दमा पंत द्वारा लिये गये सबसे पहले मुक़दमों में से एक था। इसकी फ़ीस उन्हें 5 रु० मिली थी।1909 में पंत के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गयी।उस समय उनकी आयु 23 वर्ष की थी। वह गम्भीर व उदासीन रहने लगे तथा समस्त समय क़ानून व राजनीति को देने लगे। परिवार के दबाव पर 1912 में पंत का दूसरा विवाह अल्मोड़ा में हुआ। उसके बाद पंत काशीपुर आये। पंत जी काशीपुर में सबसे पहले नजकरी में नमक वालों की कोठी में एक साल तक रहे। दिसम्बर १९२१ में वे गान्धी जी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन के रास्ते खुली राजनीति में उतर आये।९अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड करके उत्तर प्रदेश के कुछ नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लिया तो उनके मुकदमें की पैरवी के लिये अन्य वकीलों के साथ पन्त जी ने जी-जान से सहयोग किया। उस समय वे नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य भी थे।

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१९२७ में राम प्रसाद बिस्मिल व उनके तीन अन्य साथियों को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिये उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा किन्तु गान्धी जी का समर्थन न मिल पाने से वे उस मिशन में कामयाब न हो सके। १९२८ के साइमन कमीशन के बहिष्कार और १९३० के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया और मई १९३० में देहरादून जेल की हवा भी खायी। १७ जुलाई १९३७ से लेकर २ नवम्बर १९३९ तक वे ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा यू०पी० के पहले मुख्य मन्त्री बने। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर सौंपा गया और वे १ अप्रैल १९४६ से १५ अगस्त १९४७ तक संयुक्त प्रान्त (यू०पी०) के मुख्य मन्त्री रहे। जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्व सम्मति से उपयुक्त पाया गया। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वे २६ जनवरी १९५० से लेकर २७ दिसम्बर १९५४ तक मुख्य मन्त्री रहे।

पंत तराई भाबर की भूमि को आबाद करने के साथ-साथ इस क्षेत्र को कृषि के क्षेत्र में विशेष पहचान दिलाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने वर्ष 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद बेरोजगार हो गए सैनिकों और अधिकारियों को तराई में कृषि कार्यों के लिए भूमि आवंटित कराई। पंत ने उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को भी तराई में बसाया जिनके पास तब कुछ भी नहीं था। इतिहासकार प्रो. रावत के मुताबिक विश्व युद्ध के बाद देश ही नहीं बल्कि दुनिया में अनाज की भारी कमी हो गई थी। इसे देखते हुए पंडित पंत ने कृषि की पढ़ाई कर कॉलेज और विश्वविद्यालयों से निकले बेरोजगार युवकों को भी तराई में कृषि कार्य के लिए भूमि आवंटित कराकर तराई की भूूमि को एडवांस एग्रीकल्चर एरिया के रूप में विकसित किया।

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आजादी के कुछ साल बाद ही तराई का क्षेत्र पहले ग्रेनरी ऑफ यूपी और बाद में ग्रेनरी ऑफ इंडिया के रूप में प्रसिद्ध हुआ। तब देश भर के विभिन्न प्रांतों को यहां से अनाज भेजा जाने लगा। यह पंडित पंत के ही प्रयास थे कि आज तराई पंत भाबर खूब फल फूल रहा है। जब अंग्रेज
शासकों ने पंत की पुस्तक को ही प्रतिबंधित कर दिया नैनीताल। आजादी से पूर्व अंग्रेज अधिकारी कृषि को अधिक महत्व देते थे और वनों को कम। लेकिन पंडित पंत ने इसके उलट कृषि के साथ साथ वनों को महत्व दिया। उन्हें पता था कि अगर वन सुरक्षित रहेंगे तभी खेती भी सुरक्षित रहेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि एक हेक्टेयर भूमि में खेती के लिए कम से कम छह हेक्टेयर जंगल का होना जरूरी होता है।

इतिहासकार बताते हैं कि वर्ष 1878 में पहला फारेस्ट एक्ट आया जिसमें वन प्रबंधन की बात कही तो गई थी लेकिन अंग्रेज कृषि वैज्ञानिक वाल्कर ने कहा था कि खेती ज्यादा महत्वपूर्ण है वन नहीं। इसे लेकर इंग्लैंड तक की संसद में बहस हुई और उसके बाद भी खेती को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा लेकिन आजादी के बाद पंडित पंत एग्रीकल्चर एंड फारेस्ट्री कांसेप्ट लेकर आए और उन्होंने खेती के साथ साथ वनों को
भी उतना ही महत्व दिया।

प्रो. रावत बताते हैं कि पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने वर्ष 1922 में एक किताब लिखी फारेस्ट प्राब्लम इन कुमाऊं। यह किताब अंग्रेजों की वन नीति के खिलाफ थी। पंत की इस किताब से अंग्रेज खासे भयभीत हो गए। इसके बाद उन्होंने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में वर्ष 1980 में पंडित पंत की इस किताब को पुन: प्रकाशित किया गया।कम्यूनिटी मैनेजमेंट के भी जनक रहेपंडित गोविंद बल्लभ पंत ने वर्ष 1950-51 में इटावा में कम्यूनिटी मैनेजमेंट पर एक प्रोजेक्ट पर काम किया था। उसके बाद से ही उन्होंने अपने इस प्रोजेक्ट को तराई भाबर में भी उतारा और कई बड़ी कंपनियों को साथ लेकर तराई भाबर में पंतनगर विश्वविद्यालय, काशीपुर कुंडेश्वरी में एस्कार्ट्स और प्राग फार्म जैसे कई उद्यमों की स्थापना कराई। इससे बेरोजगारी के साथ साथ खाद्यान्न की कमी भी दूर हुई।

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भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत की 10सिंतबर को 136वीं जयंती है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए पं. पंत ने बागेश्वर के दर्शानी गांव में स्कूल और नहर की बुनियाद रखी थी। ये दोनों ही आज भी पंडित जी की याद दिलाता रहता है। राजनीति में सादा जीवन उच्च विचार वाले राजनेता अमूमन कम ही देखने को मिलते हैं। सादगी के साथ जो लोग राजनीति के उंचे शिखर पर पहुंच जाते हैं, उन्हें लोग हमेशा याद रखते हैं। इसी सादगी की प्रतिमूर्ति थे भारत रत्न पं. गोविंद बल्लभ पंत कुमाऊं में जन्मे पं. गोविंद बल्लभ पंत नहर व स्कूल के लिए फावड़ा चलाने के बाद गड़सेर गांव पहुंचे और विकासखंड का उद्घाटन किया। उन्होंने कुमाऊनी में भाषण देते हुए लोगों से कहा -” हिटो तुम लोगों कै भाबर में जमीन दिनु। भाबर में बसि जाओ। अर्थात आप लोगों को भाबर में जमीन देते हैं, वहीं बस जाओ। तब लोगों ने जवाब दिया था- “ना हारि भाबर में भौत मच्छर लागनी। अर्थात, नहीं, भाबर में बहुत मच्छर लगते हैं।”आज पहाड़ में बढ़ते जंगली जानवरों के आतंक से आजिज आ चुके लोग कहते हैं, यदि उस समय भाबर में बस गए होते तो आज वहां आराम से खेती करते।

भेटा नहर व दर्शानी गांव 70 साल बाद भी उनकी सादगी के जीवंत प्रमाण हैं। दर्शानी गांव में सिंचाई नहर बनाने व विद्यालय की नींव रखने के लिए सबसे पहले फावड़ा पं. गोविंद बल्लभ पंत ने ही उठाया था। आज इसी नहर से सैकड़ों हेक्टेयर खेतों की सिंचाई होती है। बात 1952 की है। तब पं. गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वह तत्कालीन अल्मोड़ा जिले के पहले ब्लाक गरुड़ का उद्घाटन करने आ रहे थे। वयोवृद्ध गांधीवादी नेता गोपाल दत्त भट्ट बताते हैं कि जब पं. पंत की फ्लीट गरुड़ के लिए निकली तो अचानक काफिला दर्शानी गांव में रुक
गया। पं. पंत गाड़ी से उतरे।उन्होंने फावड़ा पकड़ा और नहर के शिलान्यास के तौर पर जमीन पर चलाया। उन्होंने यहां एक स्कूल की भी नींव रखी, जो आज प्राथमिक विद्यालय दर्शानी के नाम से भी जाना जाता है। बिना किसी झिझक, बिना किसी गुरुर के पं. पंत की इस सादगी से हर कोई प्रभावित हुआ।

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आज भी दर्शानी गांव उस दौर को याद करता है। एडवोकेट डीके जोशी बताते हैं कि यहां की सिंचाई नहर व प्राथमिक विद्यालय पं. पंत की इस खास स्मृति को आज भी संजोए हुए है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम की संघर्ष पूर्ण कहानी आज भी लोगों के दिलों में क्रांति की अलख जलाती है. ऐसे ही स्वतंत्रता संघर्ष के  क्रांतिकारी जननायकों में से पंडित गोविंद बल्लभ पंत की आज जन्म जयंती है। उत्तराखंड के प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविंद बल्लभ पंत का जब हम एक क्रांतिकारी स्वंत्रता सेनानी के रूप में और एक व्यवहार कुशल राजनेता के रूप में मूल्यांकन करते हैं तो उत्तराखंड के जन नायक होने के नाते भी विशेष आदर का भाव उमड़ने लगता है।

पंडित पंत का राजनीतिक जीवन शुचिता, कर्मठता और व्यवहारिक कुशलता की दृष्टि से भी एक मिसाल के तौर पर आज याद किया जाता रहा है। स्वाधीनता के लिए इस उत्तराखंड के  क्रांतिकारी योगदान को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता है पन्त की अनेक उपलब्धियों में उनकी एक उपलब्धि रही भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन। भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को हमेशा से ही देश की एकता के लिए खतरा समझा जाता रहा है। पर इतिहास देखें तो पाएंगे कि इस चीज ने भारत को सबसे ज्यादा जोड़ा है। अगर पंत को सबसे अधिक किसी चीज़ के लिए जाना जाता है, तो हिंदी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने के लिए।1960 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत को हार्ट अटैक आया और उसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ने लगा, जिसके चलते 7 मार्च 1961 को उनका देहांत हो गया। उनकी याद में उनके जन्म स्थान पर एक  स्मारक का  निर्माण किया गया है। उत्तराखंड के इस राष्ट्रनायक, प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री और भारत रत्न से सम्मानित पंडित गोविंद बल्लभ पंत को उनकी जन्म जयंती के अवसर पर कोटि कोटि नमन !! ये लेखक के अपने विचार हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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