एक नजर: कभी अंग्रेजों के बंगले की शान हुआ करते थे चेस्टनट के पेड़ (Chestnut Trees)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रकृति अनेक जड़ी बूटियों के भंडार से भरी हुई है। कुछ पौधों और फलों का हम अनायास ही सेवन कर लेते हैं। मगर इनके औषधीय गुणों से हम अनजान रहते हैं। ऐसा ही एक पौष्टिक फल है जिसे कुमाऊं में पांगर के नाम से जाना जाता है। इस फल के आवरण पर अनगिनत कांटे होते हैं। इसके औषधीय गुणों से अनजान होने के कारण इसका उचित प्रयोग नहीं हो पा रहा है। पांगर एक ऐसा फल है जिसका पेड़ ठंडे इलाकों में पाया जाता है और यह फल खाने में भी होती स्वादिष्ट होता है पहाड़ में उगने वाला यह फल 80 सालों से उत्तराखंड के लोगों की जेब भर रहा है। इसे ड्राईफ्रूट च्चेस्टनटज् के नाम से भी जाना जाता है। यह फल अब भी स्थानीय लोगों की आजीविका का जरिया बना हुआ है। इस फल को पानी में बॉयल कर वह आग में पका कर भी खाया करते हैं। इस फल के पेड़ नैनीताल, रामगढ़, मुक्तेश्वर, पदमपुरी आदि इलाकों में पाए जाते है।
बजारों में यह फल 200 से 300 रुपये प्रति किलो तक बिकता है। यह फल कैल्शियम, आयरन, विटामिन बी6 से भरपूर है। जिसे दुनिया चेस्टनट के नाम से बेहतर जानती है। इस फल का पूरा कवर कांटेदार होता है इसलिए तोड़ने में खासी मेहनत लगती है। इस फल से जुड़ा इतिहास बड़ा दिलचस्प है, लेकिन इसके औषधीय गुणों यह इम्यून सिस्टम के लिए रामबाण बताया जाता है। हृदय रोग के खतरे को कम करने के साथ ही डायबिटीज़ और हाई ब्लड प्रेशर जैसे रोगों में भी यह फायदेमंद है. चेस्टनेट में कैल्शियम, आयरन, पोटैशियम, विटामिन सी और मैग्नीशियम भरपूर होते हैं।
स्थानीय किसान बताते हैं कि इसकी मार्केट में अच्छी-खासी मांग है, जिसके चलते बाजार में पांगर 200 से 300 रुपये प्रति किलो तक आसानी से बिकता है इसलिए यह स्वरोज़गार का भी ज़बरदस्त साधन बन रहा है। मई और जून में इसके पेड़ में फूल आते हैं और अगस्त-सितंबर तक फल भी पक जाते हैं। स्थानीय लोगों के साथ-साथ सैलानियों में भी खासे लोकप्रिय इस फल की बाजार में खासी मांग है। ब्रिटिश काल में मध्य यूरोप से भारत आया यह फल अंग्रेजों के बंगलों और डाक बंगलों में लगाया गया था। ऐसे ही वृक्ष फॉरेस्ट डाक बंगले में आज भी हैं। जो इन दिनों फलों से लदे हुए हैं।चेस्टनेट का वास्तविक नाम केस्टेनिया सेटिवा है। फेगसी प्रजाति के इस वृक्ष की विश्वभर में लगभग 12 प्रजातियां हैं। लगभग 1500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाले इस वृक्ष की औसत उम्र 300 सालों से भी अधिक होती है।
इस वृक्ष का फल औषधीय गुणों से भरपूर है, जिसके सेवन से गठिया रोग को ठीक करने में मदद मिलती है।वहीं यह पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन को रोकने और जल संवर्धन में भी बेहद कारगर है। प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र अपनी शांत और खूबसूरत वादियों के लिये तो पहचाने ही जाते हैं। साथ ही प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का खजाना तो यहां है ही, इन सबके साथ यहां पाये जाने वाले कई प्राकृतिक फलों का अपना एक अलग महत्व है। यहां पाये जाने वाली फल,सब्जियों के अंदर कई औषधीय गुण मौजूद रहते हैं।जिनसे कई बार यहां के भी लोग अनजान रहते हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री ने मन की बात में यहां मिलने वाले बेडू फल का जिक्र किया है। इसके अलावा पांगर भी ऐसा फल है जो पहाड़ की पहचान है।
उत्तराखंड में कई स्थानों में पांगर के पेड़ अब भी है लेकिन इसके महत्व को न जानने के कारण इस फल के उत्पादन के प्रति किसान जागरूक नहीं है।चेस्टनेट यानि पांगर फल का पूरा कवर कांटेदार होता है। जिस कारण इस फल को तोड़ने में खासी मेहनत लगती है। साथ ही इसमें काफी औषधीय गुण पाये जाते हैं। बताया जाता है कि चेस्टनट अथवा पांगर अंग्रेजों के साथ भारत आया। फेगसी प्रजाति के इस फल की दुनिया भर में कुल 12 प्रजातियां हैं। ठंडे स्थानों पर पाए जाने वाले चेस्टनट अथवा पांगर के पेड़ की आयु 300 साल मानी जाती है।चेस्टनट में कई औषधीय गुण मौजूद होते हैं।
उत्तराखंड में कई स्थानों पर बुजुर्गों द्वारा लगाए गए इसके पेड़ मौजूद हैं लेकिन आम जनता इसके औषधीय गुणों को नहीं जानती है, जिस कारण इसका प्रयोग नहीं हो पाता है। साथ ही बंदर व लंगूर भी इस फल को नुकसान पहुंचाते हैं। यह पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन को रोकने और जल संरक्षण के लिए भी बेहद उपयोगी है। लगभग 1500 से अधिक ऊंचाई वाले पांगर वृक्ष की औसत आयु 300 साल से भी अधिक होती है। जौरासी रेंज के वन क्षेत्राधिकारी ने बताया बताया कि इस वृक्ष का फल बाहर से नुकीले कांटों की परत से ढका रहता है। फल पकने के बाद यह खुद-ब-खुद गिर जता है। इसके कांटेदार आवरण को निकालने के बाद इसके फल को निकाल लिया जाता है। इसे हल्की आंच में भूना या उबाला जाता है। फिर इसका दूसरा आवरण चाकू से निकालने के बाद इसके मीठे गूदे को खाया जाता है।
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यदि पांगर फल को व्यवसायिक खेती के रूप में उगाया जाएगा तो निश्चित तौर पर अच्छी आर्थिक कमाई की जा सकती है क्योंकि यह बाजार में 300 से 400 रुपए किलो मिलता हैऔर इसकी मार्केट में जबरदस्त डिमांड है। उत्तराखंड को प्रकृति का कोई अनोखा वरदान प्राप्त है। प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का भंडार देवभूमि अपने कई प्राकृतिक फलों और हरी-भरी सब्जियों के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। जिनका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर औषधि बनाने में किया जाता है पांगर एक ऐसा फल है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )