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मोटे अनाजों (Coarse grains) को पहचान तो मिली पर पैदावार बढ़ाना भी एक चुनौती

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मोटे अनाजों (Coarse grains) को पहचान तो मिली पर पैदावार बढ़ाना भी एक चुनौती 

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

राज्य गठन के समय उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था। जो 24 सालों में घट कर 5.68 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है। हर चुनाव में खेती किसानी और कास्तकार के आमदनी बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल मुद्दे को बनाते हैं लेकिन ये चुनावी वादे राज्य में खेती किसानी की तस्वीर नहीं बदल पाई है। हकीकत यह है कि खेती का रकबा साल दर साल घट रहा है। जंगली जानवरों की समस्या, सिंचाई
सुविधा का अभाव, बिखरी कृषि जोत के कारण लोग खेती से पलायन कर रहे हैं।लोकसभा चुनाव में खेती और किसानी बेशक राजनीतिक दलों के लिए प्रमुख मुद्दा न हो लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीण और किसान के लिए छूटती खेती सबसे बड़ी परेशानी का सबब है। कागजों में राज्य की बड़ी आबादी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर दिखाई देती है लेकिन हकीकत में उत्तराखंड की खेती-किसानी अपने सबसे बड़े संकट के दौर गुजर रही है।

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खासतौर पर राज्य के पर्वतीय इलाकों में कभी मंडुवा, झंगोरा, लाल चावल, राजमा, मटर की खेती से हरे-भरे रहने वाले खेत आज उजाड़ हो चुके हैं। कहीं सिंचाई के संसाधनों के अभाव में तो कहीं जंगली जानवरों की घुसपैठ की वजह से खेती छोड़ना किसानों की मजबूरी बन गई है।पर्वतीय क्षेत्रों में खेती किसानी में सबसे बड़ी चुनौती बिखरी कृषि जोत भी है। 1962 से आज तक जमीनों का बंदोबस्त नहीं हुआ है। किसानों के पास एक ही जगह पर खेती के पर्याप्त भूमि नहीं है। एक खेत पहाड़ के इस धार में है तो दूसरा खेत दूसरी धार में है। जिसमें खेतीबाड़ी करने में ज्यादा मेहनत लगती है। साथ ही फसलों की रखवाली भी नहीं हो पाती है। क्लस्टर और संविदा खेती के लिए पहाड़ों में कृषि भूमि की सबसे बड़ी समस्या है। सरकारों ने इस समस्या को देखते हुए चकबंदी की पहल थी। लेकिन गोल खातों के चलते चकबंदी सिरे नहीं चढ़ पाई है।

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प्रदेश के कुल कृषि क्षेत्रफल का 49.55 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र में आता है। जबकि 50.45 प्रतिशत मैदानी व तराई का क्षेत्र है। पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 12.06 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है। जबकि किसानों को फसलों की पैदावार के लिए बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है।
समय पर बारिश नहीं हुई तो किसानों को मेहनत के बराबर भी उपज हाथ नहीं लगती है। मंडुवा, झंगोरा, चौलाई, राजमा, गहथ, काला भट्ट परंपरागत फसलें है। श्री अन्न योजना से इन मोटे अनाजों को पहचान तो मिली है। लेकिन बाजार की मांग को पूरा करने के लिए पैदावार बढ़ाना भी एक चुनौती है। राज्य गठन के बाद मंडुवा का क्षेत्रफल आधा हो गया है। 2001-02 में प्रदेश में मंडुवे का क्षेत्रफल 1.32 लाख हेक्टेयर था।
जो 2023-24 में घट कर 70 हजार हेक्टेयर रह गया। पहाड़ों में खेती किसानी के सामने एक बड़ी समस्या भूमि प्रबंधन की है। कृषि भूमि सीमित होने के साथ बिखरी हुई है।

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आज तक पहाड़ों में चकबंदी नहीं हो पाई। जबकि राज्य में सबसे बड़ा स्वरोजगार कृषि है। लेकिन कई तरह की समस्याओं के चलते लोग खेती
छोड़ रहे हैं। विकास के साथ जल, जंगल और जमीन के प्रति सोचने की जरूरत है। राजनीतिक दलों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए। ताकि पहाड़ों में खेती किसानी बची रहे। पहाड़ों में खेतीबाड़ी के लिए सिंचाई की पर्याप्त सुविधा नहीं है। किसान को फसलों की पैदावार के लिए बारिश पर निर्भर हैं। इसके लिए हाईटैक सिंचाई प्रणाली को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। किसानों को उपज का सही दाम मिले। इसके लिए मंडियों में बिचौलियों पर नियंत्रण रखने की जरूरत है। किसानों को समय पर बीज व पौधे उपलब्ध कराने की ठोस नीति बननी चाहिए।। आखिर, सवाल पहाड़ों में खेती को बचाने का है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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