चिंता: हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन (Climate change) बड़ी समस्या
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
सबसे गंभीर समस्या बन चुकी जलवायु परिवर्तन से लड़ना आज की बड़ी चुनौती है। पिछले ढाई सौ वर्षो में वैश्विक तापमान में करीब 0.5 से एक डिग्री सेल्सियस प्रति सदी की दर से वृद्धि हो रही है। जिसका असर दुनिया की जलवायु पर हुआ। लिहाजा अतिवृष्टि, अनावृष्टि, हिमपात, चक्रवात आदि की अनियमित और ज्यादा तीव्रता के रूप में सामने आया है। जलवायु परिवर्तन का असर उन स्थानों पर सर्वाधिक हुआ है जिनका जलवायु के बनने की प्रक्रिया में अहम हिस्सा होता है। मरुस्थल, समुद्र और नदियों के साथ हमारा पर्वतराज हिमालय भी उनमें से एक है। यह पर्वत श्रृंखला भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया महाद्वीप के हिममंडल का एक हिस्सा है। हिमालय कुल 5.95लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। इस पूरे क्षेत्र को जल से तृप्त करने वाली कई अहम नदियों का यह उद्गम स्थान है। इस क्षेत्र में करीब दस हजार ग्लेशियर हैं। इन ग्लेशियरों में विद्यमान हिम के कारण ही इसे तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। इन ग्लेशियर से निकली नदियों से करीब 50 करोड़ लोगों के रोजाना की जल जरूरत पूरी होती है। इन नदियों के क्षेत्र में रहने वाली आबादी का विकास व सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति पूरी तरह इन्हीं पर निर्भर रही। यह क्षेत्र चूंकि बहुत ही जैविक विविधता का क्षेत्र रहा है, इस कारण पूरा क्षेत्र दशकों से अतिदोहन का शिकार रहा है।
पिछले 150 साल में जुटाए आंकड़े हिमालयी क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के असर की कहानी कहते हैं। यहां के वायु तापमान में औसतन 1.1 डिग्री सेल्सियस प्रति सौ वर्ष की वृद्धि हो चुकी है। शीतकाल में यह वृद्धि और अधिक है जो 1.2 डिग्री सेल्सियस प्रति सौ वर्ष है। यह वृद्धि आल्प्स और दुनिया की अन्य पर्वत श्रृंखलाओं के वातावरण में तापमान वृद्धि से कहीं ज्यादा है। इन क्षेत्रों में मानसूनी और गैर मानसूनी बारिश की मात्र में भी कमी देखी गई है। हालांकि यकायक औसत से अधिक बारिश होने का मामले बढ़े हैं। कुछ साल से यहां पर हिमपात की मात्र एवं दर में भी कमी आई है। हवा के तापमान के बढ़ने से बर्फ का टिकना भी कम हुआ है। नवंबर व मार्च में तापमान की अधिकता के कारण हिमपात या सर्दियां देर से शुरू होती हैं और देर तक रहते हैं। साथ ही बसंत ऋतु भी जल्दी शुरू हो जा रही है।
उत्तर-पश्चिम हिमालय में मौजूद सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिग के कारण सिकुड़ रहे हैं। छोटे ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जबकि बड़े
ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार धीमी है। न सिर्फ इन ग्लेशियरों की लंबाई तेजी से कम हो रही है बल्कि इनका आयतन यानी मोटाई और चौड़ाई भी इसी अनुपात में कम होती जा रही है।मानवजनित क्रियाकलाप में वृद्धि और आबादी का इन क्षेत्रों में दबाव बढ़ रहा है। तेज गति से अनियोजित विकास हो रहे हैं। कई बार उनके पर्यावरण असर का सही से मूल्यांकन भी नहीं हो पाता है। ऐसी तमाम गतिविधियां जीवनदाता हिमालय के अस्तित्व पर बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं।देश के ज्यादातर हिस्से भले मानसून की जद में आ गए हैं, चंद रोज पहले तक अनेक राज्य रिकॉर्डतोड़ हीटवेव से जूझ रहे थे। जून महीने में इसकी वजह से देश में लगभग 100 लोगों को जान गंवानी पड़ी। कई अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाले समय में गर्मी बढ़ने की आशंका है।
साइंस डायरेक्ट में छपी एक अध्ययन रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि पिछले 50 सालों में हीटवेव में 62.2% और बिजली गिरने की घटनाओं में 52.8 % फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। यह अध्ययन 1970 से 2019 के बीच मौसम विभाग विभाग की ओर से जारी डेटा के आधार पर किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 50 सालों में हीटवेव के चलते लगभग 17000 लोगों की जान गई है।आईएमडी का कहना है कि हीटवेव तब होता है, जब किसी जगह का तापमान मैदानी इलाकों में 40 डिग्री सेल्सियस, तटीय क्षेत्रों में 37 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है। जब किसी जगह पर किसी ख़ास दिन उस क्षेत्र के सामान्य तापमान से 4.5 से 6.4 डिग्री सेल्सियस अधिक तापमान दर्ज किया जाता है, तो मौसम एजेंसी हीटवेव की घोषणा करती है। यदि तापमान सामान्य से 6.4 डिग्री सेल्सियस अधिक है, तो आईएमडी इसे गंभीर हीट वेव घोषित करता है। आईएमडी हीट वेव घोषित करने के लिए एक अन्य मानदंड का भी उपयोग करता है, जो पूर्ण रूप से दर्ज तापमान पर आधारित होता है। यदि तापमान 45 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है, तो विभाग हीटवेव घोषित करता है। जब यह 47 डिग्री को पार करता है, तो गंभीर हीटवेव की घोषणा की जाती है। दिल्ली मेडिकल काउंसिल की साइंफिक कमेटी के चेयरमैन के मुताबिक हीट वेव को हल्के में नहीं लेना चाहिए। इससे जान भी जा सकती है। हमारे शरीर के ज्यादातर अंग 37 डिग्री सेल्सियस पर बेहतर तरीके से काम करते हैं।जैसे जैसे तापमान बढ़ेगा,इनके काम करने की क्षमता प्रभावित होगी। बेहद गर्मी में निकलने से शरीर का तापमान बढ़ जाएगा जिससे अंग नाकाम होने लगेंगे। शरीर जलने लगेगा, शरीर का तापमान ज्यादा बढ़ने से दिमाग, दिल सहित अन्य अंगों के काम करने की क्षमता कम हो जाएगी।
डॉ. के अनुसार, यदि किसी को गर्मी लग गई है तो उसे तुरंत किसी छाया वाले स्थान पर ले जाएं। उसके पूरे शरीर पर ठंडे पानी का कपड़ा रखें। बढ़ते तापमान, लू और मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के बीच चिंताजनक संबंध के लिए कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता है। क्लाइमेट सेंट्रल द्वारा संचालित वास्तविक समय एट्रिब्यूशन अध्ययन, चरम मौसम की घटनाओं को बढ़ाने में जलवायु परिवर्तन की भूमिका का ठोस सबूत प्रदान करते हैं। सरकारों, समुदायों और व्यक्तियों को शमन रणनीतियों को लागू करने के लिए सहयोग करना चाहिए, जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों, टिकाऊ प्रथाओं और हरित स्थानों की सुरक्षा और विस्तार में परिवर्तन शामिल है। तत्काल कार्रवाई करके, हम हीटवेव से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान कर सकते हैं और सभी के लिए एक टिकाऊ और लचीले भविष्य की दिशा में काम कर सकते हैं। देश में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की पहचान ठंडे प्रदेशों की है, जहां की जलवायु को हिमालय ठंडा रहता है। इसके साथ ही हिमालयी इकोलॉजी वाले प्रदेशों में मणिपुर, मेघालय और मिजोरम,सिक्किम, मेघालय, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर और नागालैंड हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से इन सभी प्रदेशों के तापामन में सबसे अधिक बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है।
रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड का भूमि सतह तापमान 16.2 डिग्री है, जिसमें वर्ष 2022 के दौरान 1.2 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। वहीं वर्ष 2022 में LPA की तुलना में उत्तराखंड के वार्षिक अधिकतम तापमान में 1.1डिग्री और न्यूनतम 1.3डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसी तरह हिमाचल का भूमि सतह तापमान 17.6 डिग्री होना चाहिए, उसमें वर्ष 2022 के दौरान 1.2 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गईहै। वहीं वर्ष 2022 में LPA की तुलना में हिमाचल प्रदेश के वार्षिक अधिकतम तापमान में 1 डिग्री और न्यूनतम 1.3 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के मौसम विज्ञान विभाग और क्लाइमेंट चेंज रिसर्च ऑफिस की तरफ से जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन का असर बेशक हिमालयी राज्यों पर अधिक पड़ा है, लेकिन इस वजह से देश 25 राज्यों के तापमान में बढ़ोत्तरी हुई है। मौसम विभाग की तरफ से जारी रिपोर्ट में 27 राज्यों के आंकड़ें दिए गए हैं, जिसमें से 25 राज्यों के तापमान में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इन 24 राज्यों में जिन राज्यों के तापमान में सबसे अधिक बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है, उनमें हिमालयी इकोलॉजी वाले राज्य शामिल हैं. जलवायु परिवर्तन दुनियाभर के लिए गंभीर चुनौती बन कर उभरा है। इससे निपटने के लिए दुनियाभर की एजेंसिया काम रही हैं। तो वहीं जलवायु परिवर्तन से
मौसम में होने वाले बदलाव भी दिखाई देने लगे हैं।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के मौसम विज्ञान विभाग और क्लाइमेंट चेंज रिसर्च ऑफिस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को लेकर एक अध्ययन किया है। इस अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार देश के हिमालयी राज्य यानी पहाड़ी राज्यों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ा है। रिपोर्ट के आंकड़ा का निष्कर्ष निकाला जाए तो जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्ष 2022में पहाड़ी राज्यों के तापमान में 1 डिग्री से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. लेकिन, जो चिंतनीय बात थी वह यह कि इस चक्रवात की उम्र 126 घंटे की थी जो अरब सागर में बनने वाले चक्रवातों में सबसे अधिक था। यदि हम अरब सागर की प्रकृति को देखें, और इसके इतिहास का अध्ययन करें तब चक्रवातों की
संख्या में बढ़ोत्तरी और उसकी प्रचंडता एक नये अध्याय को खोलते हुए दिखता है। यदि हम इतिहास के पन्नों में जायें, तब भारत का यह हिस्सा दुनिया से जुड़ने के एक दरवाजे की तरह दिखता है। खासकर, गुजरात और महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्र न सिर्फ व्यापार के केंद्र थे, बल्कि भारत के सबसे प्राचीन सभ्यताओं के केंद्र भी थे। सबसे प्राचीनतम व्यापार के सूत्र मेसोपोटामिया और मिश्र की सभ्यातों के साथ जुड़ते हैं।ये तटीय इलाके बौद्ध धर्म के केंद्र थे, और बाद के समय में हम वहां देवताओं की स्थली को बनते हुए देख सकते हैं। यह एक उथल- पुथल और आक्रामकता से भरे समुद्र के किनारों पर संभव नहीं है। अरब सागर में उठते और प्रबल बनते चक्रवात इस इतिहास को चुनौती देते हुए लग रहे हैं और वे हमारे वर्तमान में एक संकट बना रहे हैं। ये चक्रवात पर्यावरण में लूट और लोभ के चलते अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन के ही परिणाम हैं।आज जब नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल को लगातार कमजोर बनाकर जंगल और जमीन को कॉरपोरेट को लूटने की खुल छूट दी जा रही है और समुद्री तटों को लगातार कचरा से पाटा जा रहा है, तब ऐसी स्थिति के न बनने की संभावना को हम कैसे इंकार कर सकते है। इन संदर्भो को इतिहास के साथ जोड़कर पढ़ने और इसे ठीक करने के लिए उपयुक्त रणनीति बनाने का समय अब हमारे सामने है।
2020 में उत्तराखंड सरकार द्वारा राज्य में मानव विकास रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि पर्वतीय जिलों और मैदानी क्षेत्रों में जनसंख्या का अनुपात लगभग एक समान है. लेकिन बेहतर जीवन स्तर, जैसे कि शिक्षा स्वास्थ्य, रोज़गार, सड़कें, ट्रांसपोर्ट और सड़कों की गुणवत्ता शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है.राज्य बनने के बाद विकास की गतिविधियां शहरी क्षेत्रों तक ज्यादा सिमट गई हैं, जबकि हिमालयी क्षेत्रों के घने जंगल ही पहाड़ों के तराई क्षेत्र और यूपी, दिल्ली और उत्तर भारत के राज्यों के मौसम को निमंत्रित करते हैं। दूसरी और हिमालय से निकालने वाली नदियां ही उत्तर भारत के लाखों एकड़ कृषि क्षेत्र को सिंचित करके इस विशाल क्षेत्र को खुशहाल और आत्मनिर्भर बनाने में सबसे ज़्यादा सहायक हैं। हिमालय में वन संपदा के संरक्षण के साथ ही ढांचागत विकास को जिस अवैज्ञानिक और अदूरदर्शिता से आगे
बढ़ाया जा रहा है, उससे योजनाकारों को विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की चेतावनियों की अनदेखी करने की भारी कीमत चुकानी पडे़गी।
(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)