Header banner

चिंता: देवदार के वृक्ष हिमालय के कुछ क्षेत्रों से हो सकते हैं गायब!

admin
d 1

चिंता: देवदार के वृक्ष हिमालय के कुछ क्षेत्रों से हो सकते हैं गायब!

harish

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देवदार जिसे कश्मीर में दिआर और हिमाचल में कैलोन कहते हैं पर्वतीय प्रदेश का एक पवित्र व पूजनीय पेड़ है। इसका नाम दो शब्दों देव (देवता) व डारू (वृक्ष) से मिलकर बना है। प्राचीन संस्कृति अभिलेखों में देवादारू या देओदारू नाम के इस वृक्ष का उल्लेख मिलता है। देवदार को अंग्रेजी में इंडियन या हिमालयन सिकार करते हैं। इसका वानस्पतिक नाम सिड्रस देवदारा (रॉक्सबर्गी) है। सिड्रस का उद्गम ग्रीक शब्द केडरॉस से हुआ है। जिसका अर्थ है- कोनीफर अर्थात शंकु वाले पादप।

यह वृक्ष बहुत ही खूबसूरत होता है। उच्च गुणवत्ता की लकड़ी के रूप में भी इसका अपना एक विशिष्ट स्थान है। इसकी लकड़ी का उपयोग मुख्यत: मंदिरों तथा बड़े और खास घरों के निर्माण में होता आया है। पहले राष्ट्रीय स्तर पर रेल्वे स्लीपर बनाने में इसकी जगह कांक्रीट ने ले ली है। देवदार सदा हरा रहने वाला तथा गहरी हरी पत्तियां वाला आकर्षक वृक्ष है। इसकी चमकीली तथा नुकीली पत्तियां इसकी सुंदरता को और बढ़ा देती है। इसका शंकु के आकार का शीर्ष, वृक्ष की आयु बढऩे के साथ-साथ गोल, चौड़ा और चपटा हो जाता है जिसमें से शाखाएं फैलती जाती हैं। कभी-कभी इसका शीर्ष तेज हवा या बर्फ गिरने से चपटा हो जाता है। जब वृक्ष पूर्णत: परिपक्व हो जाता है तो उसकी लम्बाई 40 मीटर तक हो जाती है।

यह भी पढें : ब्रेकिंग (Uttarkashi bus accident): उत्तरकाशी बस हादसे पर मुख्यमंत्री धामी ने जिले के प्रभारी मंत्री व अपर मुख्य सचिव को घटना की मॉनिटरिंग के दिए निर्देश

इस वृक्ष की छाल पतली, हरी होती है जो धीरे-धीरे गहरी भूरी होती जाती है तथा इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसकी पत्तियों की उम्र दो से तीन साल तक होती है। एक विख्यात वानिकी विशेषज्ञ दल ने 1914 में कुल्लू हिमाचल प्रदेश में एक चट्टान पर उगे एक वृक्ष की मोटाई 6 मीटर तक नापी जबकि इसकी ऊंचाई लगभग 52 मीटर थी। देवदार के 72 मीटर तक ऊंचे होने की जानकारी है। इसी प्रकार एक 700 वर्ष पुराने देवदार के तने की एक काट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्ट्यूट देहरादून के टिम्बर म्यूजिम में रखी हुई है।देवदार के प्राकृतिक वन सम्पूर्ण पश्चिमी हिमालय में अफगानिस्तान से लेकर गढ़वाल (उत्तरप्रदेश) के पूर्वी भाग तक फैले हैं। वर्तमान में यह उत्तरप्रदेश के कुमांऊ क्षेत्र तक अपना प्राकृतवास बना चुका है। यह आंतरिक शुष्क तथा बाहरी आद्र्र मानसून वाले हिमालयी क्षेत्रों में उग सकता है।

देवदार समुद्र तल से 1200 से3000 मीटर तक की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उग सकता है। इस वृक्ष की अधिकतम वृद्धि ठण्डे प्रदेशों में समुद्र तल से लगभग 1800-2600 मीटर ऊंचाई पर पाई गई है। भारत में देवदार के वन हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा उत्तरप्रदेश में पाए जातेहैं। देवदार के वन जो हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथ उत्तराखंड में फैला हुआ है। देवदार के घने वृक्ष में मुख्यत: 100 से 1800 मिमी वर्षा वाले तथा 12 सेल्सियल (न्यूनतम) से 38 डिग्री सेल्सियस (अधिकतम) तक के तापमान वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। ये वृक्ष कई अन्य पादपों के साथ पाए जाते हैं। इसमें मुख्य है बनाफशा (वायोला कैनिसेन्स) झाड़ी या आईवी (हेडेरा हेलिक्स) प्रतान, रस्पबेरी (रूबस) प्रजाति, जंगली गुलाब (रोसा मोस्केटा) तथा गुच्ची (मोरकेला एस्क्यूलेन्ट) कवक। कुछ शंकु वृक्ष ब्ल्यू पाईन (पाइनस वालीचाईना) तथा स्प्रूस (पाईसिआ स्मिेथियाना) भी देवदार के सहयोगी पादप के रूप में मिलते हैं।

यह भी पढें : दुखद हादसा: गंगोत्री धाम की यात्रा से वापस आ रही बस गहरी खाई में गिरी, 7 लोगों की मौत, कई घायल (Tragic accident in Uttarkashi, Uttarakhand)

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य वृक्ष जैसे चिलगोजा (पाइनसजिरेडियाना) ओक (करकस इलिक्स) आदि भी देवदार के वनों में सहयोगी पादप के रूप में पाए जाते हैं। देवदार सामान्यत: वर्ष भर हरा-भरा रहता है परन्तु इसकी नई पत्तियां मार्च से मई तक आती हैं तथा पुरानी पत्तियां झड़ जाती हैं। देवदार के वृक्ष में नर एवं मादा पुष्प एक ही वृक्ष पर लेकिन अलग-अलग शाखों पर पाए जाते हैं। इसके नर पुष्प जून में आते हैं तथा सितम्बर-अक्टूबर तक परिपक्व होकर परागकण छोड़ देते हैं जबकि छोटे मादा पुष्प शंकु अगस्त में आते हैं तथा इनका परागण सितम्बर-अक्टूबर में होता है। ये शंकु अगले वर्ष जून-जुलाई तक पूर्ण आकार ले लेते हैं तथा इनमें पंख सहित बीज छिपे रहते हैं।

देवदार के वृक्ष सूखा सहन नहीं कर सकते परन्तु पाला तथा तेज हवाओं को सह जाते हैं। देवदार के वनों की हानि आम तौर पर अत्यधिक बर्फ गिरने एवं आग लगने से होती है। जबकि जानवरों की चराई से इसके पुनर्जननक्षमता में कमी आती है।देवदार को सीधे बुआई अथवा रोपणी में तैयारी पौधों से उगाया जा सकता है। इसके अंशुओं से अक्टूबर-नवम्बर में बीज एकत्र किए जाते हैं। एक किलो में तकरीबन 7000-8000 बीज होते हैं तथा इनकी अंकुरण क्षमता 70-80 प्रतिशत होती है। इसकी रोपणी में तैयार 2.5 वर्ष से 3 वर्षीय पौधे जुलाई-अगस्त में रोपे जाते हैं।देवदार उत्तरी भारत का एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी काष्ठीय है। प्राचीनकाल से ही इसका उपयोग मंदिरों एवं भव्य प्रासादों के निर्माण में होता रहा है। विगत कुछ दशकों से इसका इस्तेमाल रेलवे के स्लीपरों में हो रहा था परन्तु इसकी तेजी से घटती संख्या के चलते इसे रोक दिया गया है। इसकी उच्च गुणवत्ता के कारण ही यह सबसे महत्वपूर्ण लकड़ी उत्पाद है। इसकी लकड़ी में पसीना व मूत्र बढ़ाने वाले औषधीय गुण पाए जाते हैं। बुखार, बवासीर, फेफड़ोंएवं मूत्राशय संबंधी रोगों में देवदार प्रयुक्त होता है।

यह भी पढें : ब्रेकिंग (Congress new team): ये रही कांग्रेस की नई टीम, मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी का किया एलान, कई नाम चौंकाने वाले, देखें पूरी सूची

हिमाचल प्रदेश के कुछ भागों में इसकी लकड़ी का पेस्ट चंदन की तरह ललाट पर लगाया जाता है तथा ऐसी मान्यता है कि इससे सिरदर्द ठीक हो जाता है। देवदार की छाल भी औषधीय महत्व की है तथा इसका उपयोग बुखार, अपच, दस्त आदि रोगों में होता है। देवदार का औलिव-रेजिन तथा इसकी लकड़ी के विनाशात्मक संघनन से प्राप्त तेल का उपयोग अल्सर एवं त्वचा रोगों में होता है। देवदार के तेल की मांग, इत्र, साबुन तथा अन्य कई उद्योगों में है।

उत्तराखंड के कई गांव है जहां इस तरह के भवन है। लेकिन अब इन को बनाने वाले कारीगरों की कमी हो गयी है। लकड़ी मिलना मुश्किल हो रहा है, इसलिए अब लोग ऐसे भवन नहीं बना रहे हैं। देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल आयुर्वेदिक औषधियों में भी होता है। इसके पत्तों में अल्प वाष्पशील तेल के साथ-साथ एस्कॉर्बिक अम्ल भी पाया जाता है। देवदार के वनों में कई तरह के वन्य प्राणी जैसे बाघ, भालू, हिरण, मौनाल,
टै्रगोपान, बर्फानी फीजेंट इत्यादि मिलते हैं। सुंदर देवदार पेड़ों के नीचे विचरते ये वन्य प्राणी पर्यावरण के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं।एक खासियत यह भी है कि इनके नए पौधे अनुकूल जलवायु में वयस्क पेड़ों के नीचे स्वतः उग आते हैं। अलबत्ता कठिन खाली स्थानों को भरने के
लिए प्रांतीय वन विभाग इसकी पौध पालिथीन की थैलियों में उगाते हैं जिन्हें नर्सरी पौधे कहा जाता है। ये नर्सरी पौधे जब दो साल के हो जाते हैं तो खाली क्षेत्रों में रोप दिए जाते हैं। पर्यावरण को सौहार्द बनाने तथा देश की समृद्धि हेतु वनों को बढ़ाने के लिए ये पौधे रियायती दर पर उपलब्ध कराए जाते हैं।

यह भी पढें : दुखद (Uttarkashi bus accident): उत्तरकाशी बस हादसे में 7 मृतकों व 28 घायलों की सूची जारी

देवदार के अनेक उपयोगों को ध्यान में रखते हुए हमें इसके वनों के संरक्षण में ज्यादा से ज्यादा योगदान देना चाहिए और खाली क्षेत्रों में देवदार के पौधे ज्यादा से ज्यादा लगाने चाहिए।इस कामना में प्रकृति व मानव के सह अस्तित्व और प्रकृति संरक्षण की दिशा में उन्मुख एक समृद्ध विचारधारा भी साफ तौर पर परिलक्षित होती दिखायी देती है। आखिर प्रकृति के इसी ऋतु परिवर्तन एवं पेड़.पौंधों, जीव.जन्तु, धरती, आकाश से मिलकर बने पर्यावरण से ही तो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त मानव व अन्य प्राणियों का जीवन चक्र निर्भर है देश में 50 लाख पेड़ लगाकर मशहूर होने वाले वृक्षमानव विश्वेश्वर दत्त सकलानी का 96 साल की उम्र में निधन हो गया। उनको राजकीय सम्मान के साथ ऋषिकेश के श्मशान घाट में मुखाग्नि दी गयीण् उन्होंने 50 लाख से अधिक पेड़ लगाकर अपना पूरा जीवन प्रकृति को समर्पित कर दिया था। छह-सात दशक पहले यह पूरा इलाका वृक्ष विहीन था। धीरे-धीरे उन्होंने बांज, बुरांश, सेमल, भीमल और देवदार के पौधे लगाना शुरू किए और इसके बाद पुजार गांव में
बांज, बुरांश का मिश्रित सघन जंगल खड़ा हो गया। ये जंगल आज भी उनके परिश्रम की कहानीको बयां कर रहे हैं।

देवदारों में आस्था होने का लोगों के पास जो भी तर्क हो, लेकिन देवदार में श्रद्धा होने की वजह से लोग इनका संरक्षण करेंगे। देवदार के उपयोगों एवं इसकी लकड़ी की बढ़ती मांग के चलते इसके वर्तमान वनों के संरक्षण एवं नए वनों के विकास की अत्यन्त आवश्यकता है इसके वनों को आग एवं बर्फ के अलावा करीब 60 प्रकार के कीड़े भी हानि पहुंचाते हैं। आज के युग की जरूरत है कि इस प्रजाति के वनों को पूर्णत: सुरक्षित बनाया जाए तथा इसके वनों की तेजी से वृद्धि की जाए ताकि इस वृक्ष की रक्षा व संवर्धन हो सके। अगर देवदार के पेड़ों की संख्या कम हुई तो टिम्बर के कारोबार पर असर पड़ेगा। ये कॉमर्शियल पेड़ हैं,जो लकड़ी के घर वगैरह बनाने से लेकर फर्नीचर के काम में आते हैं। ऐसे में वहां पर आर्थिक समस्याएं हो सकती हैं। इसके अलावा देवदार के पेड़ हिमालय रीजन की बायोडायवर्सिटी को बनाए रखने में भी अहम रोल प्ले करते हैं ऐसे में इनकी संख्या कम होने से बायोडायवर्सिटी पर प्रभाव पड़ेगा।

यह भी पढें : ब्रेकिंग: उत्तराखंड से इन दो नेताओं को मिली कांग्रेस की नई वर्किंग कमेटी (CWC) में जगह (Congress’s CWC includes two leaders from Uttarakhand)

जहाँ प्रदेश सरकार पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों रुपये वृक्षारोपण के नाम पर बहा रही है वही दूसरी और प्रदेश के चकराता वन प्रभाग के कनासर रेंज व पुरोला के टाॅस वन भाग में भी संरक्षित प्रजाति के देवदार व कैल के वृक्षों का अन्धाधुंध अवैध कटान प्रकाश में आया है, जो बहुत ही चिंता का विषय है, आखिर वन विभाग और स्थानीय प्रशासन कहा सोया हुआ था। संरक्षित प्रजाति के वृक्ष काटे जाते रहें और वन विभाग कुंभकरण की नींद क्यों सोता रहा? यह जांच का विषय है, स्थानीय जनता का मानना है कि वन विभाग व प्रशासन कि  मिलीभगत से ही घटना को अंजाम दिया गया। उत्तराखंड में वृक्ष संरक्षण एक्ट में संशोधन, उत्तराखंड में वृक्ष संरक्षण एक्ट में संशोधन की है। ऐसे में आने वाले समय में लोग अपनी निजी भूमि पर खड़े पेड़ों (कुछ प्रजातियों को छोड़कर) को काट सकेंगे। इसके लिए वन विभाग की अनुमति भी नहीं लेनी पड़ेगी। इसके विपरीत उच्च अक्षांशों वाले क्षेत्रों में दोनों ही जलवायु परिदृश्यों में देवदार के पेड़ों में वृद्धि देखी गई।

शोधकर्ताओं के मुताबिक मध्य और निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों में इनकी गिरावट के लिए सूखे का तनाव जिम्मेवार है, क्योंकि इन मानसूनी क्षेत्रों में बर्फ कम पिघलती है और बसंत के मौसम में बारिश की कमी और बढ़ते वाष्पीकरण के चलते सूखे का तनाव बढ़ रहा है।कुल मिलकर देखें तो मानसूनी क्षेत्र में उगने वाले हिमालय देवदार में बढ़ते तापमान के साथ गिरावट आ जाएगी। ऐसा भविष्य में गर्म होती सर्दियों और बसंत में बदलती जलवायु के कारण होगा। वहीं इसके विपरीत उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में जहां पश्चिमी विक्षोभ के कारण अधिक हिमपात होता है, वहां देवदार के बढ़ने का अनुमान है। शोधकर्ताओं के मुताबिक भविष्य में ग्लेशियरों का असामान्य विस्तार पश्चिमी विक्षोभ वाले क्षेत्रों में हिमालयी देवदार के विकास में सहायक हो सकता है ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या यह संशोधन फायदेमंद साबित होगा या नुकसानदायक साथ ही यह एक्ट क्या है और क्यों संशोधन जरूरी है?

(लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

Next Post

पहले भारतीय डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (Dr. Pitambar Dutt Barthwal) हिंदी में डी.लिट

पहले भारतीय डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (Dr. Pitambar Dutt Barthwal) हिंदी में डी.लिट डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला डाॅ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का जन्म पौड़ी जनपद के लैंसडाउन से तीन किलोमीटर दूर कोडिया पट्टी के पाली गांव में 13 दिसंबर, 1901 में […]
pita 1

यह भी पढ़े