प्रथम विश्व युद्ध : गबर सिंह नेगी ने न्यू चेपल की खाई की लगभग 100 पोस्टों को एक-एक करके जर्मन सैनिकों से कराया था मुक्त

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प्रथम विश्व युद्ध : गबर सिंह नेगी ने न्यू चेपल की खाई की लगभग 100 पोस्टों को एक-एक करके जर्मन सैनिकों से कराया था मुक्त

शीशपाल गुसाईं

उत्तराखण्ड व टिहरी गढ़वाल की पावन धरती ने अनेक वीर सपूतों को जन्म दिया, जिनमें विक्टोरिया क्रॉस विजेता गब्बर सिंह नेगी का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। प्रथम विश्व युद्ध के रणक्षेत्र में उन्होंने अद्वितीय शौर्य और पराक्रम का परिचय देते हुए शत्रुओं को परास्त किया और भारत का गौरव विश्व पटल पर स्थापित किया। टिहरी जनपद, जो अपनी प्राकृतिक सौंदर्यता, सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक वैभव के लिए विख्यात है, गब्बर सिंह के इस अप्रतिम युद्ध कौशल से भी सुशोभित है। जब-जब युद्ध के मोर्चे की चर्चा होती है, तब-तब इस वीर सपूत का स्मरण हृदय को गर्व और प्रेरणा से भर देता है।

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आज, गब्बर सिंह नेगी के जन्मदिवस के पावन अवसर पर, लैंसडाउन के कमांडेंट गढ़वाल राइफल्स की एक टुकड़ी, ब्रिगेडियर विनोद सिंह नेगी (वीएसएम) के कुशल नेतृत्व में, चंबा के उस पवित्र स्थल पर पहुँची, जहाँ सन् 1925 में निर्मित गब्बर सिंह का भव्य स्मारक खड़ा है। इस स्मारक के समक्ष, उनकी मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित कर, वीर सैनिकों ने उनके अमर बलिदान को नमन किया। यह स्मारक न केवल उनकी वीरता का प्रतीक है, अपितु आने वाली पीढ़ियों के लिए साहस, समर्पण और देशभक्ति का अमिट संदेश भी देता है। आज, 21 अप्रैल 2025 को, उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के चंबा में प्रथम विश्व युद्ध के वीर नायक, विक्टोरिया क्रॉस विजेता गबर सिंह नेगी का 130वां जन्मदिन धूमधाम से मनाया जा रहा है।

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प्रथम विश्व युद्ध के युद्धक्षेत्र में, जब धरती खून और बारूद से सनी थी, तब न्यू चेपल की लड़ाई ने इतिहास के पन्नों पर एक ऐसी अमर गाथा अंकित की, जिसका नायक था गढ़वाल का एक साधारण सैनिक—गबर सिंह नेगी। 1915 का वह जनवरी माह युद्ध की विभीषिका को और गहरा रहा था। खाइयों (ट्रेंच) में जिंदगी और मौत का एक अनवरत खेल चल रहा था। ये खाइयाँ न केवल मिट्टी और कीचड़ से भरी थीं, बल्कि सैनिकों के टूटते मनोबल, मृत शरीरों की दुर्गंध, और निरंतर गोलाबारी की त्रासदी से भी लबरेज थीं। बारिश में कीचड़, ठंड में हड्डियाँ जमा देने वाली सर्दी, और जहरीले पानी के गड्ढों ने सैनिकों की हिम्मत को बार-बार चुनौती दी। शेल-शॉक की स्थिति में सैनिकों का मानसिक संतुलन डगमगा रहा था। ऐसे में, न्यू चेपल की खाइयों में तैनात भारतीय सैनिकों के लिए यह युद्ध केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक संग्राम भी था।

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न्यू चेपल की रणभूमि और युद्ध की रणनीति

मार्च 1915 में, जब ब्रिटिश और फ्रांसीसी कमांडरों ने ट्रेंच युद्ध की जकड़न से बाहर निकलने का संकल्प लिया, तब न्यू चेपल में एक निर्णायक आक्रमण की योजना बनी। इस युद्ध में ब्रिटिश सेना का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सैनिकों से युक्त था, जिनमें गढ़वाल राइफल्स के वीर जवान शामिल थे। योजना थी कि जर्मन सेना के नियंत्रण वाले लिले रेल लिंक पर कब्जा किया जाए, जो जर्मन सैनिकों और उनके संसाधनों के परिवहन का प्रमुख जरिया था। यह रेल लिंक स्विस सीमा से बेल्जियम तट तक जर्मन सैन्य गतिविधियों का आधार थी।

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10 मार्च 1915 की सुबह 5 बजे, न्यू चेपल में आक्रमण का बिगुल बजा। प्रारंभिक तोपखाने (अर्टिलरी) हमले से जर्मन खाइयों को अपेक्षित नुकसान नहीं हुआ। योजना के अगले चरण में बम पार्टी को आगे भेजा गया, जिसका कार्य था जर्मन खाइयों में हथगोले फेंककर दुश्मन को खदेड़ना और ब्रिटिश घुड़सवार सेना (कैवल्री) के लिए रास्ता बनाना। गबर सिंह नेगी ऐसी ही एक बम पार्टी के साहसी सदस्य थे।

गबर सिंह नेगी का अदम्य साहस

कीचड़ से लथपथ युद्धभूमि पर, जहाँ हर कदम पर मौत मँडरा रही थी, गबर सिंह नेगी और उनकी टुकड़ी हाथ-पैरों के बल रेंगते हुए जर्मन खाइयों की ओर बढ़े। उनके कंधों पर राइफलें और बम लदे थे, और मशीनगनों की गोलियों की बौछार के बीच उनका एकमात्र लक्ष्य था—जर्मन खाई तक पहुँचकर हथगोले फेंकना और दुश्मन की रक्षा पंक्ति में सेंध लगाना। लेकिन नियति ने उनकी परीक्षा और कठिन कर दी। आक्रमण के प्रारंभ में ही उनकी टुकड़ी के कमांडर को गोली लगी और उनकी मृत्यु हो गई। इस संकट के क्षण में गबर सिंह नेगी ने नेतृत्व की बागडोर संभाली। मशीनगनों की अंधाधुंध फायरिंग और बारूद की बारिश के बीच, उन्होंने अपनी टुकड़ी को जर्मन खाई तक पहुँचाया।

जर्मन खाई तक पहुँचकर गबर सिंह नेगी ने जो वीरता दिखाई, वह किसी चमत्कार से कम नहीं थी। उन्होंने न केवल जर्मन सैनिकों को पीछे हटने पर मजबूर किया, बल्कि खाई के एक बड़े हिस्से को अपने नियंत्रण में ले लिया। इस दौरान, उनकी वीरता के परिणामस्वरूप लगभग 1700 जर्मन सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। उन्होंने एक जर्मन मशीनगन पर भी कब्जा किया, जिससे कई भारतीय सैनिकों की जान बची। लेकिन इस वीरतापूर्ण कारनामे के दौरान गबर सिंह नेगी को गोली लगी, और वे वीरगति को प्राप्त हुए।

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ट्रेंच युद्ध की जटिलता

ट्रेंच युद्ध की भयावहता को समझने के लिए खाइयों की संरचना को जानना आवश्यक है। ये खाइयाँ केवल गहरे गड्ढे नहीं थीं; ये एक जटिल रक्षा प्रणाली थीं। खाई के भीतर डग-आउट (छिपने के लिए छोटे गड्ढे) बनाए जाते थे, ताकि दुश्मन के हमले के दौरान सैनिक उनमें शरण ले सकें। डग-आउट के बिना, खाई में घुसने वाला दुश्मन एक सीधी गोली से सभी सैनिकों को निशाना बना सकता था। लेकिन डग-आउट की मौजूदगी के कारण, हर पोस्ट को व्यक्तिगत रूप से खाली कराना पड़ता था, जो एक अत्यंत जोखिम भरा और समय लेने वाला कार्य था।

गबर सिंह नेगी ने लगभग अकेले ही इस असंभव कार्य को अंजाम दिया। उन्होंने खाई की लगभग 100 पोस्टों को एक-एक करके जर्मन सैनिकों से मुक्त कराया। यह कार्य केवल शारीरिक शक्ति का नहीं, बल्कि अदम्य साहस, रणनीतिक कुशलता, और मानसिक दृढ़ता का परिचायक था।

अमर सम्मान और स्मृति

गबर सिंह नेगी की इस वीरता ने उन्हें मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस जैसे सर्वोच्च सैन्य सम्मान का हकदार बनाया। यह सम्मान प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दिल्ली में आयोजित एक भव्य विजय समारोह में भारत के तत्कालीन वायसराय द्वारा उनकी पत्नी को प्रदान किया गया। गबर सिंह नेगी की कोई समाधि नहीं है, किंतु उनका नाम फ्रांस के न्यू चेपल मेमोरियल में अमर है।

गढ़वाल राइफल्स की परंपराओं के सम्मान में, 1925 में चंबा (टिहरी गढ़वाल) में गबर सिंह नेगी की स्मृति में एक भव्य स्मारक बनाया गया। प्रत्येक वर्ष 21 अप्रैल को इस स्मारक पर एक मेला आयोजित होता है, जिसमें गढ़वाल राइफल्स के जवान मार्च करते हैं और नए सैनिकों को यह शपथ दिलाई जाती है कि वे गबर सिंह नेगी की तरह वीरता और सम्मान के साथ अपनी मातृभूमि की सेवा करेंगे।

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गबर सिंह नेगी: एक प्रेरणा

गबर सिंह नेगी की गाथा केवल एक सैनिक की कहानी नहीं है; यह साहस, बलिदान, और देशभक्ति का एक जीवंत प्रतीक है। उनकी वीरता उस दौर के भारतीय सैनिकों की उस भावना को दर्शाती है, जो विदेशी धरती पर, अपरिचित युद्ध में, अपनी मातृभूमि के सम्मान के लिए प्राणों की आहुति देने को तत्पर थे। न्यू चेपल की खाइयों में गबर सिंह नेगी ने जो इतिहास रचा, वह आज भी गढ़वाल राइफल्स के प्रत्येक सैनिक के हृदय में जीवित है। उनकी स्मृति हमें यह सिखाती है कि सच्ची वीरता सीमाओं से परे होती है, और बलिदान की मशाल युगों-युगों तक प्रज्वलित रहती है।

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