भू कानून,मूल निवास दावा से बिल्कुल अलग है जमीनी हकीकत
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के सामाजिक व्यक्ति हो या राजनेता दोनों को इस बात का भान होना चाहिए कि उत्तराखंड राज्य गठन की जन आकांक्षाएं, शहीदों की शहादत, लोकशाही व चहुंमुखी विकास के साथ देश की सुरक्षा का प्रतीक है राजधानी गैरसैंण बनाना। भू कानून,मूल निवास,जनसंख्या पर आधारित विधानसभा परिसीमन जरूरीहै। उत्तराखंड का वर्तमान भू-कानून बहुत लचीला है। जिसके चलते यहां देश का कोई भी नागरिक आसानी से जमीन खरीद सकता है और बस सकता है। वर्तमान स्थिति यह है कि बाहरी राज्यों से आए लोग यहां निवेश के नाम पर जमीन लेकर रहने लगे हैं। जो उत्तराखंड की संस्कृति, भाषा, रहन सहन, उत्तराखंडी समाज के विलुप्ति का कारण बन रहा है। धीरे-धीरे यह पहाड़ी जीवन शैली, पहाड़वाद को विलुप्ति की ओर धकेल रहा है। दरसल अलग राज्य बनने से पहले उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था।यहां मैदान और पहाड़ के अपने-अपने मसले थे। पहाड़ की जनता अपना अलग राज्य चाहती थी और लंबे संघर्ष के बाद ये सपना पूरा भी हुआ।
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उत्तराखंड बनने के बाद राज्य में उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 लागू किया गया। इसके बाद यहां इस कानून में समय-समय पर संशोधन हुए। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद 2002 तक उत्तराखंड में अन्य राज्यों के लोग केवल 500 वर्ग मीटर जमीन खरीद सकते थे। 2007 में यह सीमा 250 वर्गमीटर कर दी गई थी। लेकिन 6 अक्टूबर 2018 में भाजपा सरकार एक अध्यादेश लाई और “उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम “, 1950 में संसोधन का विधेयक पारित करके, उसमें धारा 143(क) धारा 154 (2) जोड़कर पहाड़ों में औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को पूरी तरह खत्म कर दिया गया। जिसके बाद बाहरी लोगों ने राज्य में निवेश के नाम पर बेतहाशा जमीनें खरीद डालीं, लेकिन इन जमीनों पर आज तक उद्योगों की फसल खड़ी नहीं हुई। अब इसको लेकर राज्य के सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एकसशक्त भू-कानून की मांग कर रहें हैं।
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राजधानी गैरसैंण बनने के बाद जहां उपेक्षित पर्वतीय जनपदों में विकास के नए आयाम खुल जाएंगे वही नौकरशाह और नेताओं को पर्वती क्षेत्रों के प्रति दुराग्रह भी दूर हो जाएंगे। उन को समझाने के लिए फिर वह कानून मूल निवास, मुजफ्फरनगर कांड व जनसंख्या पर आधारित विधानसभा परिसीमन इत्यादि मुद्दों पर मजबूती से दबाव बनाया जा सकता है। अभी वर्तमान में भाजपा व कांग्रेस का हाला नेतृत्व उत्तराखंड में इस प्रकार के किसी कानून बनाने के पक्ष में नहीं है। वह हिमाचल से भू कानून को हटाने की तिकड़म कर रहे थे। परंतु हिमाचल की जागरूक जनता व नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व की इस नापाक इरादों को विफल कर दिया। उत्तराखंड राज्य गठन आंदोलन किसी व्यक्ति या उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव में मूल निवास और भू-कानून का मुद्दा खासा गरमाया हुआ है। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल मसले को लेकर सरकार पर लगातार हमला बोल रहे हैं। वहीं, सरकार का कहना है मूल निवास प्रमाणपत्र के मानक तय करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति बनाई गई है। यह समिति न केवल राज्य में लागू भू-कानूनों के प्रारूप की निगरानी करेगी,बल्कि मूल निवास प्रमाणपत्र जारी करने के लिए नियम स्थापित करने में अहम भूमिका निभाएगी।
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उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद भी यहां अविभाजित उत्तर प्रदेश का भू-कानून 1960लागू था। 2003में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसमें संशोधन किया और राज्य का भू-कानून अस्तित्व में आया।इसके बाद वर्ष 2008 और फिर 2018 में इसमें संशोधन हुआ। विपक्ष का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में उद्योगों के नाम पर जमीन खरीदने की बाध्यता को समाप्त किया गया, जबकि कृषि भूमि का उपयोग बदलने की प्रक्रिया भी आसान कर दी गई। जिससे पहाड़ की जमीनों को बचाना बड़ी चुनौती है। मसले को लेकर आंदोलनरत मूल निवास सशक्त भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति के संयोजक बताते हैं कि पहाड़ में सीमित जमीन है। जिसे बाहरी लोगों के हाथों से बचाने के लिए सशक्त भू-कानून और मूल निवास को लेकर आंदोलन शुरू किया गया है। कहा, उद्योगों के नाम पर बाहरी लोगों को पहाड़ में जमीन दी गई, लेकिन उद्योग पहाड़ नहीं चढ़ पाए। उक्रांद के पूर्व केंद्रीय अध्यक्ष बताते हैं कि हिमाचल की तर्ज पर राज्य में सशक्त भू-कानून बनाया जाना चाहिए।
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वर्तमान में जो भू-कानून बना है उसमें कई छेद हैं।वहीं, देश के संविधान के अनुरूप राज्य में मूल निवास का आधार वर्ष 1950 तय किया जाए। एक राज्य एक कानून के तहत मैदानी क्षेत्रों में भी मूल निवास की व्यवस्था लागू की जाए। संयोजक के मुताबिक, उत्तराखंड में जमीनों की बेरोकटोक बिक्री पर रोक के लिए सशक्त भू-कानून जरूरी है। इससे पहले वर्ष 2018 में भू-कानून में हुए संशोधन को रद्द किया जाए।कृषि भूमि के गैर कृषि कार्यों के लिए खरीद पर रोक लगे, पर्वतीय कृषि को जंगली जानवरों से बचाते, उसे उपजाऊ और लाभकारी बनाने के विशेष उपाय करने की जरूरत है। कहा, इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी भी राज्य के संसाधनों-जल, जंगल, जमीन पर पहला अधिकार, उस राज्य के मूलनिवासियों का होता है और होना चाहिए, राज्य की नियुक्तियों में भी पहली प्राथमिकता उस राज्य के मूलनिवासियों को मिलनी चाहिए। राज्य का कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेयर है। इसमें से 63.41 प्रतिशत क्षेत्र वन क्षेत्र के तहत आता है, जबकि कृषि योग्य भूमि सीमित है, जो महज 14 प्रतिशत यानी करीब 7.41 लाख हेक्टेयर है।
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उत्तराखंड में मूल निवास को लेकर 1950 की समय सीमा लागू करने की मांग है। राज्य गठन के बाद सरकार ने यहां मूल निवास के साथ ही स्थायी निवास की व्यवस्था बनाई। 15 साल से उत्तराखंड में रह रहे लोगों के लिए स्थायी निवास प्रमाणपत्र दिए गए। इसके बाद से मूल निवास
का मुद्दा बना हुआ है। मांग है कि मूल निवास का आधार वर्ष 1950 किया जाए।मूल निवास और सशक्त भू- कानून जैसे मुद्दे क्षेत्रीय एवं कुछ अन्य दलों के घोषणापत्र में हैं, लेकिन कुछ राष्ट्रीय दल इसकी अनदेखी किए हुए हैं। यहां की नौकरियों पर प्रदेश के लोगों का पहला अधिकार है, इसलिए मूल निवास की व्यवस्था को लागू करना चाहिए। तर्क ये है कि प्रदेश में बड़ी संख्या में बाहर से लोग आकर बस गए हैं और सभी तरह के संसाधन जैसे कि रोजगार, नौकरियां यही बाहरी लोग हड़प रहे हैं जबकि मूल अधिकार इन पर मूल निवासियों क बनता है उत्तराखंड में रोजगार के अवसर बढ़ने का भले ही दावा किया जा रहा हो मगर हकीकत थोड़ी अलग है। प्रदेश में 10.42 लाख युवा नौकरी पाने के लिए कतार में खड़े हैं। इनमें 12वीं पास पंजीकृत लोगों की संख्यासबसे अधिक है।
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सेवायोजन विभाग के आंकड़ों से इसकी पुष्टि होती है। रिकार्ड पर नजर डालें तो इंटरमीडिएट तक शैक्षिक योग्यता रखने वाले 4.06 लाख लोगों को नौकरी मिलने का इंतजार है। वहीं 2.33 लाख स्नातक डिग्रीधारी रोजगार के लिए कराबद्ध हैं। सामान्य पढ़ाई के अलावा तकनीकी और प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके नौजबान भी सेवायोजन में पंजीकृत हैं। राज्य गठन के बाद प्रदेश में बनी सरकारों ने अपना कोई भू-कानून नहीं बनाया जबकि उत्तराखंड क्रांति दल हिमाचल की तर्ज पर प्रदेश में भी सशक्त भू-कानून लागू करवाने की मांग करता आ रहा है। प्रदेश में सत्तासीन सरकारों ने अपने हितों को देखते हुए भू-कानून को लागू नहीं किया जिसका खामियाजा प्रदेशवासियों को भुगतना पड़ रहा है। प्रदेश में सत्तासीन सरकारों ने अपने हितों को देखते हुए भू- कानून को लागू नहीं किया, जिसका खामियाजा प्रदेशवासियों को भुगतना पड़ रहा है। कहा कि मूल निवास प्रमाण पत्र की बाध्यता हटाना भी प्रदेश सरकारों की बड़ी भूल साबित हुई है। तभी उत्तराखंड से घुसपैठ भी बंद होगी। पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में कानूनी प्रविधानों की वजह से कृषि भूमि की खरीद करीब-करीब नामुमकिन है।
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हिमाचल प्रदेश टिनैंसी एंड लेंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा-118 मेें प्रविधान है कि कोई भी कृषि भूमि किसी गैर कृषि कार्य के लिए नहीं बेची जा सकती। धोखे से यदि बेची तो जांच उपरांत जमीन सरकारी खाते में निहित हो जाएगी। जमीन मकान के लिए खरीदने पर सीमा निर्धारित है। यह भी प्रविधान है कि जिससे जमीन खरीदी जाए, वह जमीन बेचने के कारण भूमिहीन या आवासविहीन नहीं होना चाहिए। तभी उत्तराखंड के हक हकूकों की भी रक्षा होगी। हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए उत्तराखंड, भारतीय संस्कृति की उद्गम स्थली रही है इसकी रक्षा मजबूती से की जानी चाहिए। हिमाचल में एक मजबूत भू-कानून होने के कारण कोई भी बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। यहां के भूमि सुधार कानून में लैंड सीलिंग एक्ट और धारा-118 के कारण राज्य की भूमि पर बाहरी उद्योगपति, बिल्डर और भू-माफिया, धन्नासेठ मनमाना कब्जा
नहीं कर पाए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड की सारी भौगोलिक परिस्थितियां लगभग एक जैसी ही हैं।
उत्तराखंड में भी मझोले और सीमांत किसान हैं। हिमाचल की तरह वहां भी नदियां हैं और जलविद्युत दोहन की अपार संभावनाएं हैं। विकास का मॉडल भी लगभग एक जैसा है।वर्ष 1972 में हिमाचल राज्य में एक कानून बनाया गया, जिसके अंतर्गत बाहरी लोग हिमाचल में जमीन न खरीद सकें। उस समय हिमाचल के लोग इतने सम्पन्न नहीं थे और यह आशंका थी कि हिमाचली लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन बेच देंगे और भूमिहीन हो जाएंगे और हिमाचली संस्कृति को भी विलुप्ति का खतरा बढ़ जाएगा।
हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री और हिमाचल के निर्माता डॉ. यसवंत सिंह परमार ने ये कानून बनाया था। हिमाचल प्रदेश टेंसी एंड लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान किया था। एक्ट के 11वें अध्याय में कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंड्स (भूमि के हस्तांतरण पर नियंत्रण) में धारा-118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती। गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है और कॉमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पे ले सकते हैं। 2007 में धूमल सरकार ने धारा-118 में संशोधन कर के यह प्रावधान किया कि बाहरी राज्य का व्यक्ति जिसे हिमाचल में 15 साल रहते हुए हो गए हैं वो यहां जमीन ले सकता है। इसका बहुत विरोध हुआ बाद में अगली सरकार ने इसे बढ़ा कर 30 साल कर दिया था। जिस तरह प्रदेश के मूल निवासियों के हक हकूकों को खत्म किया जा रहा है, उससे एक दिन प्रदेश के मूल निवासियों के सामने पहचान का संकट खड़ा हो जाएगा।
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(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)