स्वास्थ्य-शिक्षा-रोजगार (Health-Education-Employment) सब बेहाल नहीं सुधरे हाल
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश चीन के साथ बढ़ती कटुता के बाद उत्तराखंड की चीन सीमा से लगे अति दुर्गम, दूरस्थ और उच्च हिमालयी क्षेत्र में आज ही के दिन पिथौरागढ़ जिला अस्तित्व में आया था। इसके साथ ही प्रदेश के दो जिले और अस्तित्व में आए थे।तब से विकास के नाम पर तो बहुत कुछ हुआ, लेकिन जन भावनाओं के अनुरूप न होने से धरातल पर समस्याओं का अंबार है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चमोली और उत्त्तरकाशी जिलों का गठन किया गया था। जिला बनने के बाद पिथौरागढ़ में सेना बिग्रेड का हेडक्वार्टर भी स्थापित हुआ। जिला मुख्यालय बनने के बाद सरकारी विभागों की संख्या भी बढऩे लगी। सरकारी काम की खातिर लोगों को अल्मोड़ा जाने से मुक्ति मिल गई, लेकिन जनसमस्याओं के निदान का पहिया कछुवे की चाल से आगे बढ़ रहा है।
पिथौरागढ़ चमोली और उत्त्तरकाशी जिलों का 24 फरवरी को 64वां जन्मदिन है। नेपाल और चीन सीमा से सटे इस जिले के कई गांवों ने भले ही नगरों का रूप ले लिया हो लेकिन आज भी कई इलाकों में लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। सड़क सहित अन्य सुविधाओं के अभाव में पलायन से गांव खाली हो गए हैं। शिक्षा से लेकर रोजगार तक के लिए शहरों की खाक छानना लोगों की नियति बनी हुई है। 24 फरवरी 1960 को अल्मोड़ा से अलग कर पिथौरागढ़ जिले का गठन हुआ था। जीवन चंद्र पांडेय जिले के पहले डीएम थे।
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पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार पिथौरागढ़ जिले के गांवों से 41 फीसदी से अधिक आबादी पलायन कर चुकी है। गांव छोड़ने वाले परिवार कस्बों या फिर नगरों में बस गए। हाल ही में जल जीवन मिशन योजना के तहत गांवों को पेयजल पहुंचाने के लिए सर्वे किया गया था। रिपोर्ट में 58 गांवों के गैर आबाद होने की पुष्टि हुई थी। वर्ष 2019 में पिथौरागढ़ में 1600 गांव आबाद थे। पलायन के कारण जिले में आबाद गांवों की संख्या घटकर 1542 पहुंच गई है। इसकी वजह पलायन कर चुके लोगों का वापस घर नहीं आना है। जिले में बेड़ीनाग विकासखंड के 41 और गंगोलीहाट के 17 गांव आबादी विहीन हो गए हैं। जिले के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का अभाव है। इस कारण जिन स्कूलों में कभी छात्र संख्या 800 से 1200 होती थी वहां 100 से 150 छात्र संख्या रह गई है। पिथौरागढ़ महाविद्यालय को कैंपस बना दिया है, लेकिन अभी तक प्राध्यापकों की तैनाती नहीं हुई है।
जनता आज भी इलाज के लिए जिला अस्पताल पर ही निर्भर है। जिला अस्पताल में हृदय रोग विशेषज्ञ का पद सात वर्षों से खाली है। जिले के ब्लॉक या तहसील मुख्यालयों में खोले गए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं हैं। ज्यादातर मामलों में मरीजों को हायर सेंटर रेफर किया जाता है। कुछ समय पूर्व सरकार ने बेस अस्पताल के संचालन के लिए पदों के प्रस्ताव स्वीकृति दे दी है, लेकिन अभी तक नियुक्ति नहीं हो पाई है जिला गठन के साठ साल बाद भी 10 फीसद से अधिक गांव सड़क से वंचित हैं। सीमा छोर के 22 से अधिक गांवों में बिजली ही
नहीं पहुंच सकी है। शिक्षा और चिकित्सा भी बेहाल है। हजारों की आबादी के लिए भी एक चिकित्सक उपलब्ध नहीं है। दर्जनों माध्यमिक विद्यालय प्रधानाचार्य विहीन हैं। आर्थिक रूप से जिला अति पिछड़े जिलों में शामिल हैं। उद्योग धंधों के नाम पर शून्य है। ऊपर से प्रतिवर्ष आपदा यहां के जनमानस को हिला कर रख रही है। अस्तित्व में आने के दो वर्ष बाद भारत-चीन युद्ध हो गया। इसका सर्वाधिक परिणाम चीन सीमा से लगे गांवो पर पड़ा। गुलजार रहने वाले गांव धीरे-धीरे खाली हो गए।
पलायन की यह गति अभी भी जारी है। इस कारण जिले में खेती का रकबा घटता जा रहा है। गांव केवल लाचार, बुजुर्ग और असहाय लोगों के होकर रह चुके हैं। पर्वतीय जिल होने से यहां पर आज भी पनिशमेंट के बतौर अधिकारियों, कर्मचारियों की तैनाती हो रही है। राज्य बनने के बाद भी सोच में बदलाव नहीं आया। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की सभी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। स्वास्थ्य के मोर्चे को मज़बूत बनाना है तो हमें शिक्षा, आजीविका, सड़क, कृषि समेत एक जगह और वहां रह रहे लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के सभी पहलुओं पर कार्य करना होगा। पर्वतीय क्षेत्रों में जहां अच्छे स्कूल हैं, वहां डॉक्टर भी हैं। गांव में स्कूल हैं, लेकिन अध्यापक नहीं। अस्पताल हैं, मगर डॉक्टर नहीं। बिजली के खंभे हैं, लेकिन बिजली नहीं। पहाड़ से पलायन बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ है।राज्य के लगभग पांच हजार गांव सड़कों से काफी दूर हैं। जंगल कटते जा रहे हैं, नदियां सूखती जा रही हैं और पहाड़ की ज़मीन को हर साल और बंजर होते जाने से बचाया नहीं जा रहा है।
सरकार की ओर से बेहतर प्रबंधन के साथ ही हमें समुदायिक भागीदारी की भावना के साथ भी कार्य करना होगा। 23 वर्षों में उत्तराखंड में 10 मुख्यमंत्री बदले गए हैं और अनगिनत लुभावने नारे आ गए हैं, जैसेः देवभूमि, पर्यटन प्रदेश, हर्बल प्रदेश, जैविक प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश आदि-आदि। लेकिन ये नारे सिर्फ छलावा साबित हुए। इनके पीछे ठोस समझ, सुचिंतित योजना और अमल में लाने की इच्छाशक्ति नहीं बनी है। पहाड़ को अपना राज्य इसलिए भी चाहिए था कि लोग कहते थे कि लखनऊ दूर है।अलग राज्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए उत्तराखंड के जनकवि और अलग राज्य निर्माण आंदोलन सक्रिय रहे संस्कृतिकर्मी कहते हैं,”अलग राज्य इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि गोरखपुर की और गोपेश्वर की एक ही नीति नहीं बन सकती है। इसलिए राज्य अलग बनता है और उसकी व्यवस्था उसी के अनुसार से होती है तो वो सही हो पाएगा वरना नहीं हो पाएगा।” “राज्य निर्माण की प्रक्रिया अलग होती है और आंदोलन की स्थितियां अलग होती हैं, दोनों में साम्य नहीं होता है। राज्य बन जाने के बाद एकदम दूसरी तरह के लोग उसे चलाने के लिए आगे आ जाते हैं। आकांक्षाएं अधूरी रह जाती है। उत्तराखंड के साथ यही हुआ।”
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उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी? इसलिए कि रोजगार, पलायन, नशाखोरी, वन समस्या, नौकरशाही की मनमानी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्याओं का समाधान संभव हो सके। अलग राज्य बनाने में जुटे विद्वानों के मन में यही था कि पृथक राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था में उत्तराखंड की जनता के अनसुलझे सवालों का उचित जवाब मिल जाएगा, लेकिन राज्य गठन के 23 वर्ष बाद भी सबसे अहम मुद्दों पर जनता के सवाल वैसे ही रह गए, जैसे थे। राज्य बना तो कुछ न कुछ विकास होना था। ढांचागत विकास हुआ, लेकिन इसमें भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी भी बहुत हो गई। जिस तरह की ईमानदार व पारदर्शी कार्यसंस्कृति की जरूरत थी, वैसी नहीं हुई। वित्तीय प्रबंधन ठीक नहीं रहा। राजधानी का मुद्दा वैसे का वैसा। अब तक नौकरियां मिलने का क्या हाल रहा, यह किसी से छिपा नहीं है।
रिजार्ट कल्चर ने उत्तराखंड की मूल संस्कृति को और दूषित करने का काम किया हैं। राज्य की जनता को अब और अधिक जागरूक होने की जरूरत है, जिससे की राज्य बनाने के सुनहरे सपने को साकार किया जा सके।
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( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )