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उत्तराखंड में काबू के बाहर मानव-वन्यजीव संघर्ष (Human-Wildlife Conflict)

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उत्तराखंड में काबू के बाहर मानव-वन्यजीव संघर्ष (Human-Wildlife Conflict)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में गुलदार का आतंक लगातार बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में लोगों का घरों से निकलना दूभर हो रहा है। बाघ एवं गुलदार दिनदहाड़े मवेशियों एवं मासूम लोगों को अपना ग्रास बना चुके हैं। गढ़वाल एवं कुमाऊं के पहाड़ी जनपदों में गुलदार का डर लोगों के दिलों दिमाग में समा चुका है। मानव वन्यजीव टकराव की भी होनी चाहिए। यह बात इसलिए भी होनी लाजिमी है कि इन 23 सालों में 1,060 से अधिक लोगों ने असमय जान गंवाईं और 5,135 से अधिक लोग घायल हुए। छोटे से पहाड़ी राज्य में मानव वन्यजीव टकराव की रोकथाम किसी बड़े पहाड़ सी चुनौती हो गई है। उत्तराखंड में 70 फीसदी से अधिक भूभाग पर जंगल है, जाहिर है जंगली जानवर बाघ, गुलदार, हाथी, भालू, हिरन वगैरह भी उसी तादाद में होंगे। ये जंगल, जंगली जानवर देखने में जितने खूबसूरत है उतने ही खतरनाक और खूंखार।

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यही वजह है कि 9 नवंबर 2000 को राज्य गठन से अब तक २३ सालों में मानव वन्यजीवों का टकराव लगातार बढ़ता ही जा रहा है। राज्य स्थापना के वर्ष में 30 लोगों ने खूंखार जानवरों का निवाला बनकर जान गंवाई थी, अब तक यह आंकड़ा 1,060 पार कर गया है।वन विभाग इस संघर्ष की रोकथाम के लिए लाख दावे कर रहा है लेकिन थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। इस वित्तीय वर्ष वर्ष में अब तक 8 से अधिक लोग वन्यजीवों के हमले में प्राण खो चुके हैं। वहीं, राज्य गठन के बाद भाजपा और कांग्रेस की सरकारें आईं और गईं लेकिन इस जंग की रोकथाम को कोई ठोस इंतजाम नहीं हुए। फिलहाल इंसानी दखल से यह जंग कम थमती नहीं दिख रही है। मानव वन्यजीव संघर्ष में मारे गए और घायल हुए लोगों को अब तक 1 अरब से ज्यादा का मुआवजा बांट दिया गया है। वर्ष 2012-13 से 2022-23 तक 11863.51 लाख रुपये का बजट मिला, इसके सापेक्ष 10890.67 लाख रुपये मुआवजा बांटा गया है। 1937.50 लाख रुपये की राशि ब्याज सहित सरकार को वापस की गई है। नियोजन कार्यालय स्तर पर 35.34 लाख की धनराशि शेष है।

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बता दें कि, राज्य गठन से वर्ष 2012 तक मानव वन्यजीव संघर्ष राहत वितरण निधि नियमावली लागू नहीं थी। नवंबर 2012 में इसके बाद यह नियमावली लागू की गई है। एक छोटे से राज्य में 1  अरब से ज्यादा का मुआवजा बांटना विकास की गति को धीमी करता है। राज्य में सकल बुवाई क्षेत्र 701 हजार हेक्टेयर है। खुद वन मंत्री ने स्वीकारा था कि  वन्यजीव खेती को बर्बाद कर रहे हैं। पर्वतीय जिलों में बंदरों और जंगली सुअर फसल चौपट कर रहे हैं तो मैदानी जिलों में खेती हाथी, नीलगाय की भेंट चढ़ रही है।आंकड़ों के अनुसार राज्य की 30 फीसदी  फसल वन्यजीव चौपट कर रहे हैं। इसकी सीधी चोट किसान पर पड़ रही है नतीजा किसान खेती छोड़ काम की ओर रुख कर रहे हैं जिससे पलायन को बढ़ावा मिल रहा है। मानव-वन्यजीव संघर्ष वन्यजीवों के संरक्षण से जुड़ा बेहद संजीदा मुद्दा है।

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गुलदार के हैबिटेट का कम होना (एक से दूसरे जंगल में आवाजाही के रास्ते का बाधित होना), उनके शिकार (हिरण, सांभर जैसे वन्यजीव) की आबादी में गिरावट, मानवीय बस्तियों का विस्तार, जंगल के इर्द गिर्द मानवीय गतिविधियों का बढ़ना और जागरूकता की कमी जैसी वजहों से संघर्ष में इजाफा हुआ है। सोशल सर्वे  रिपोर्ट – 2021- 22 का हवाला देते हैं। जिसमें बढ़ते संघर्ष की मुख्य वजहों में- जंगल में गुलदार के लिए भोजन की कमी, जंगल के किनारे सड़क, घर, बढ़ती मानवीय बस्तियां और निर्माण कार्य, लैंटाना जैसी जंगली झाड़ियों का बढ़ता क्षेत्र और गांवों में घटती आबादी जैसी बातें सामने आईं।

सोढी कहते हैं कि हम गुलदार के व्यवहार को नहीं बदल सकते लेकिन लोग अपने व्यवहार को बदल सकते हैं। मानव-वन्यजीव संघर्ष तब होता है जब मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच मुठभेड़ के नकारात्मक परिणाम होते हैं,जैसे संपत्ति, आजीविका और यहां तक ​​कि जीवन की हानि। रक्षात्मक और प्रतिशोधात्मक हत्या अंततः इन प्रजातियों को विलुप्त होने की ओर ले जा सकती है। इन मुठभेड़ों के परिणामस्वरूप न केवल संघर्ष से तत्काल प्रभावित लोगों और वन्यजीवों दोनों को पीड़ा होती है; उनकी वैश्विक पहुंच भी हो सकती है, सतत विकास एजेंसियों और व्यवसायों जैसे समूह इसके अवशिष्ट प्रभावों को महसूस कर सकते हैं। मुद्दे का दायरा महत्वपूर्ण और वास्तव में वैश्विक है, लेकिन हम इसे आवश्यक पैमाने पर संबोधित करने में सक्षम नहीं हैं। इस मुद्दे को विश्व स्तर पर उठाने और मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिए
साझेदारी और संसाधनों को खोलने की आवश्यकता ने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के नेतृत्व वाली एक नई रिपोर्ट के निर्माण को प्रेरित किया: सभी के लिए भविष्य: मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व की आवश्यकता।

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एक अंतरराष्ट्रीय और बहु-संगठनात्मक सहयोग का परिणाम, यह रिपोर्ट मानव-वन्यजीव संघर्ष की जटिलताओं, इसे स्थायी रूप से प्रबंधित करने और कम करने के तरीकों और वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व की दिशा में आगे बढ़ने पर प्रकाश डालती है – यह सब कार्रवाई के आह्वान के माध्यम से विविध भागीदारों को शामिल करते हुए। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-यूएस में वन्यजीव संरक्षण टीम में एशियाई प्रजातियों के प्रबंधक मानव-वन्यजीव संघर्ष मुद्दे के विशेषज्ञ हैं और इस रिपोर्ट के मुख्य योगदानकर्ताओं में से एक हैं। वह बताती हैं कि मानव-वन्यजीव संघर्ष इतना महत्वपूर्ण और जटिल मुद्दा क्यों है, और मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व को प्राप्त करने के लिए वैश्विक समुदाय के रूप में एक साथ आना क्यों महत्वपूर्ण है। देखा जाए तो यह निष्कर्ष जहां एक तरफ मानव- वन्यजीव संघर्ष के असमान बोझ को उजागर करते हैं। वहीं कई मामलों में यह सतत विकास के लक्ष्यों के लिए भी खतरा हैं।

हजारों वर्षों से इंसान प्रकृति और वन्यजीवों के साथ सामंजस्य के साथ रहता आया है। लेकिन अब जिस तरह संसाधनों का दोहन हो रहा है और विकास के नाम पर विनाश किया जा रहा है उसकी वजह से यह संघर्ष कहीं ज्यादा बढ़ता जा रहा है। जहां मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षा के लिए जंगलों का दोहन कर रहे है वहीं जंगली जीव भी अपनी प्राकृतिक सीमाओं को छोड़ आसपास के गांवों और मवेशियों को अपना निशाना बना रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि इसका ऐसा समाधान निकाला जाए जिससे वन्यजीवों के साथ-साथ गरीबी और भूख से जूझ रहे लोगों का विकास संभव हो सके।

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इस बारे में अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता सोफी गिल्बर्ट का कहना है कि प्रकृति के प्रति सकारात्मक बनने के लिए हमें वन्यजीवन के फायदे और लागत दोनों पर विचार करने की जरूरत है।उनके अनुसार यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि जो लोग वन्यजीवों के साथ रहने का बोझ उठा रहे
हैं। उन्हें आर्थिक एवं अन्य रूप से बेहतर समर्थन दिया जाए। उनका मानना है कि स्थानीय लोगों और वन्यजीवों के आपसी सामंजस्य के साथ रहने से ही बड़े मांसाहारी जीवों के संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयास सफल होंगें।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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