सिनेमा का सफर : 92 साल पहले भारतीय सिनेमा ने रचा इतिहास, देश में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा (Alamara)’ हुई थी रिलीज
शंभू नाथ गौतम
आज 14 मार्च है। यह ऐसी तारीख है जिसे भारतीय सिनेमा कभी भुला नहीं सकता है। यह वह दौर था जब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। आज से 92 साल पहले भारतीय सिनेमा ने इतिहास रचा था। डायरेक्टर अर्देशिर ईरानी देश में पहली बोलती हुई फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई थी। फिल्म चार माह में बनी और इसकी लागत 40 हजार रुपये थी। 14 मार्च साल 1931 इस फिल्म का पहला शो मुंबई के गिरगांव स्थित मैजेस्टिक सिनेमा में हुआ था। ये फिल्म एक राजकुमार और एक बंजारन लड़की की प्रेम कथा थी। जो जोसफ डेविड के लिखे एक पारसी नाटक पर आधारित थी। इस फिल्म में मास्टर विट्ठल, जुबैदा, जिल्लो, सुशीला और पृथ्वीराज कपूर ने किरदार अदा किए थे। इस फिल्म में 7 गाने थे।
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भारतीय सिनेमा के इतिहास में ‘आलम आरा’ का रिलीज होना बड़ी घटना थी। उस उस समय मूक फिल्मों का दौर था और तकनीकी उन्नति के साथ निर्माताओं ने बोलती फिल्मों के असर की आहट को महसूस कर लिया था। इसीलिए तमाम प्रमुख निर्माता कंपनियों में इस बात की होड़ लगी थी कि पहली बोलती फिल्म बनाने का श्रेय किसे मिलेगा। इम्पीरियल मूवीटोन कंपनी ने ये रेस जीती और ‘आलम आरा’ दर्शकों के बीच सबसे पहले पहुंच गयी। ‘शिरीन फरहाद’ मामूली अंतर से दूसरे स्थान पर रही। ‘आलम आरा’ को लेकर दर्शकों में इतना क्रेज था कि प्रदर्शन के वक्त भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी थी।
आलम आरा के निर्देशक ईरानी को भारत की पहली बोलती फिल्म बनाने की प्रेरणा एक अमेरिकन फिल्म ‘शो बोट’ से मिली थी, जो 1929 में रिलीज हुई थी। हालांकि ये भी पूरी तरह साउंड फिल्म नहीं थी। भारतीय सिनेमा उस वक्त तकनीकी रूप से ज़्यादा विकसित नहीं था। फिल्म तकनीशियनों को ये नहीं पता था कि साउंड वाली फिल्मोंं के निर्माण कैसे किया जाता है। ईरानी ने आलम आरा बनाने के लिए टैनर सिंगल-सिस्टम कैमरा से शूट किया गया था, जो फिल्म पर ध्वनि को भी रिकॉर्ड कर सकता था। स्टूडियो के पास रेलवे ट्रैक था, लिहाजा वातावरण और आस-पास के शोर से बचने के लिए ‘आलम आरा’ का अधिकांश हिस्सा रात में 1 से 4 बजे के बीच शूट किया गया था। एक्टर्स के संवाद रिकॉर्ड करने के लिए उनके पास गुप्त माइक्रोफोन लगाए गए थे। लेकिन भारतीय सिनेमा के आलम आरा फिल्म का एक भी प्रिंट मौजूदा समय में मौजूद नहीं है।
इस फिल्म का एकमात्र प्रिंट, जो कि पुणे के नेशनल फिल्म आर्काइव्ज में रखा, वह भी 2003 में लगी एक आग में स्वाहा हो गया था, इस तरह आज इस फिल्म के कुछ चित्र, पोस्टर्स और दस्तावेज ही उपलब्ध हैं। सवाक युग आरंभ होने के कारण पहले वर्ष में ही 27 बोलती फिल्मों का निर्माण हुआ, इनमें से 22 हिन्दी में, 3 बांग्ला में और एक–एक तमिल व तेलगु भाषा में निर्मित हुई। देश में बोलती फिल्मों के आने के बाद भारतीय सिनेमा के विषयवस्तु में भी खूब परिवर्तन हुआ फिल्मों में संवाद आने से सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों पर आधारित खूब फिल्में बनी और आपने समय के लोगों और आज तक के दर्शक वर्ग को प्रभावित करती हैं और प्रेरणा स्रोत बनी हुई हैं।