जिस “मिलेट्स” के पीछे आज भाग रही पूरी दुनिया, कभी उत्तराखंड का मुख्य भोजन था
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य गठन के वक्त एक नारा हवाओं में तैरता था- आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो, मडुवा- झुंगरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के स्थानीय उत्पाद के महत्व को रेखांकित करता हुआ यह नारा नेपथ्य में चला गया। हमने अपने संघर्ष की परंपराओं के साथ ही अपनी उपज और खानपान की भी घोर उपेक्षा कर दी।उत्तराखंड देश विदेश में अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है।यहां अनेक प्रकार की जड़ी बूटी से लेकर अनेक प्रकार के अनाजों का उत्पादन किया जाता है।इस उत्पादन की सबसे बड़ी खूबी ये होती है कि ये सभी चीजें प्राकृतिक और ऑर्गेनिक रूप से उगाई जाती हैं।
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राज्य गठन के समय उत्तराखंड में कुल 7.70 लाख हेक्टेयर भूमि पर खेती की जाती थी जो कि इन 23 सालों में घटकर1.49 लाख हेक्टेयर भूमि में सिमट कर रह गई है।यानी कि इस दौरान कई हेक्टेयर भूमि बंजर हुई है। उत्तराखंड में लगातार हुए पलायन और उजड़ते गांवों के कारण समाज के साथ-साथ यहां पर होने वाली खेती ने भी अपना अस्तित्व तकरीबन खोया है। खुद कृषि विभाग इस बात की तस्दीक करता है कि कृषि क्षेत्र में आई इस गिरावट में मैदानी इलाकों में आवासीय, शैक्षणिक संस्थाओं, उद्योगों, सड़कों आदि बुनियादी सुविधाओं के तेजी से विकास और पहाड़ी क्षेत्रों में पलायन के कारण ऐसा हुआ है। लगभग70 फ़ीसदी वनों से आच्छादित हिमालयी राज्य उत्तराखंड में आज तकरीबन 6.21 लाख हेक्टेयर भूमि में खेती की जा रही है।अधिकतर पहाड़ी और थोड़े बहुत मैदानी भूभाग वाले उत्तराखंड राज्य में पहाड़ों पर तकरीबन 3.28 लाख हेक्टेयर भूमि पर खेती की जा रही है तो वहीं मैदानी इलाकों में तकरीबन 2.93 हेक्टेयर भूमि पर इस वक्त खेती की जा रही है। बदलते वक्त के साथ अब उत्तराखंड के ऑर्गेनिक उत्पादन पर मानों किसी की नजर सी लग गई है।
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गौरतलब है कि देश में ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, झंगोरा, कौणी, मार्शा, चीणा, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कांगनी और चीना फसलों को मोटे अनाज के तौर पर जाना जाता है। आदिकाल से पहाड़ में मोटे अनाज की भरमार हुआ करती थी।लेकिन तब मोटे अनाज को खाने वालों को दूसरे दर्जे का समझा जाता था। उस समय मोटे अनाज की उपयोगिता और इसके गुणों से लोग ज्यादा विंज्ञ नहीं थे। जानकारी का भी अभाव था। समय के साथ-साथ मोटे अनाज की पैदावार भी कम होने लगी, क्योंकि लोगों ने मोटे अनाज की जगह दूसरी फसलों को तवज्जो देना शुरू कर दिया और समाज की धारणा के अनुसार लोग चावल धान की फसल की ओर बढ़ गए। समय फिर लौट के आया और स्वस्थ स्वास्थ्य के लिए मोटे अनाज के भरपूर गुणों से लोग परिचित हुए। सेहत के लिए सभी तरह से फायदेमंद होने व लाइलाज बीमारी के इलाज में मोटे अनाज का सेवन रामबाण साबित होता है। इसलिए फिर से बाजार में इस पहाड़ी मोटे अनाज की भारी मांग होने लगी है।
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बाजार में मोटे अनाज की डिमांड मांग ज्यादा होने लगी तो मोटा अनाज फिर से खेतों में लौटने लगा। ग्रामीण भी मोटे अनाज की फसलों को उगाने में रुचि दिखाने लगे हैं। आज पहाड़ों के बाजार से मोटा अनाज प्राप्त करना भी अपने आप में एक चमत्कार है। बाजार में मोटा अनाज कम और मांग ज्यादा है।केंद्र की मोदी सरकार मोटे अनाजों के उत्पादन पर जोर दे रही है। मोदी सरकार मोटे अनाजों को वैश्विक ब्रांड बनाने की कोशिश में लगी है। यही कारण है कि देशभर में मिलेट्स महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। जिसके जरिये किसानों को मोटे अनाजों के उत्पादन के लिए जागरुक किया जा रहा है। इसके ठीक उलट उत्तराखंड में मोटे अनाज की खेती 50 प्रतिशत घटी है।यहां मोटे अनाजों की 23 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं।
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गढ़वाल केन्द्रीय विवि के वरिष्ठ प्रोफेसर बताते हैं कि अगर आगामी 2030 पर मोटे अनाज पर कार्य नहीं किया गया, तो मंडुवा, झंगोरा, चौलाई की खेती 1 लाख 20 हज़ार हेक्टेयर से घट कर 73 हज़ार हेक्टेयर तक ही सीमित रह जायेगी। उन्होंने कहा चिंडा, फाफर, कोंडी, ऊवा जौ, भांगड़ा, उगल, राम दाना विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगे। कृषक बताती हैं कि मौसम की मार और जंगली जानवर खेतों को तबाह कर रहे हैं। जब कभी पैदावार अच्छी होती है तो जंगली जानवर खेती को बर्बाद कर देते हैं। वैसे तो उत्तराखंड में मोटा अनाज परंपराओं में शामिल है, लेकिन समय के साथ साथ यह मोटा अनाज और इसकी परंपराएं काफी पुरानी हो चुकी हैं।आज की युवा पीढ़ी इसके बारे में उतना नहीं जानती है लेकिन उसके बावजूद भी सरकार के तमाम प्रयासों और कुछ पुराने लोगों के प्रयासों के जरिए उत्तराखंड में मोटे अनाज यानी मिलेट्स में ज्यादातर मंडुवा उगाया जाता है।
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मंडुवा राज्य के13 जिलों में से तकरीबन 11 जिलों के पर्वतीय क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह कुल कृषि का तकरीबन 9 फीसदी कृषि क्षेत्र है। इन मोटे आनाजो के उत्पादन में कमी से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को कितनी चोट पहुंची होगी इसका हम सहज ही अनुमान
लगा सकते हैं। कुल मिलाकर यह दोनों अनाज उत्तराखंड की अस्मिता के आधार हैं।इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद लगभग 30 प्रतिशत की कमी हुई है। इस 30 प्रतिशत की कमी को सीधे तौर पर उत्तराखंड के आज के सबसे बड़े संकट पलायन और बंजर होती पर्वतीय खेती से सीधे तौर पर जोड़ कर देखा जा सकता है. पर्वतीय क्षेत्र के किसान पारंपरिक तरीके से जैविक खेती करते हैं, बहुत कम किसानों को मालूम है कि जैविक अनाजों के दाम महंगे होते है, लेकिन बिचौलिये इनसे ओने-पौने दामों पर खरीद लेते हैं।
मोटे अनाजों को लेकर जिस तरीके से जागरूकता बढ़ गई है। इसी अनुरूप डिमांड भी बढ़ रही है। अब घरों में ही नहीं, बल्कि रेस्टोरेंट्स में भी मोटे अनाज से बने भोजन आर्डर किया जाने लगा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसका रकबा लगातार कम होता जा रहा है। इसका कारण खेती प्रति किसानों का मुंह मोडऩा बड़ा कारण है। लेखक के निजी विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )