लाखों खर्चने के बाद भी नदी नहीं बन पाई रिस्पना - Mukhyadhara

लाखों खर्चने के बाद भी नदी नहीं बन पाई रिस्पना

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लाखों खर्चने के बाद भी नदी नहीं बन पाई रिस्पना

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

रिस्पना नदी के आसपास इन दिनों हलचल बढ़ गई है। दरअसल नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देशों ने इस नदी के लिए सरकारी सिस्टम की परवाह को एकाएक बढ़ा दिया है। ऐसे में अब नदी को अतिक्रमण मुक्त भी किया जा रहा है। इसकी सफाई के लिए भी कार्य योजना तैयार हो रही है। खास बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी रिस्पना की इस बदहाली से रूबरू हो चुके हैं। इसके बाद राज्य सरकार भी इस पर एक बड़ा अभियान चला चुकी है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसके बावजूद प्रदूषित रिस्पना की दशा में कोई बदलाव नहीं आया। देहरादून की रिस्पना नदी में आज पानी की मौजूदगी नहीं दिखाई देती है। नदी के नाम पर ना तो इसमें पर्याप्त पानी है और ना ही इसका आकार नदी की तरह विशाल दिखाई देता है।

मौजूदा स्थिति के लिहाज से कहा जाए तो यह अब रिस्पना नाला बन चुका है। इस नाले में सिवाय कूड़ा करकट और गंदगी के कुछ नहीं है। भगत सिंह कॉलोनी क्षेत्र से गुजर रही इस नदी की गंदगी इसके हालात को अच्छी तरह से बयां कर रही है।लोगों ने अपने घरों की गंदगी को नदी में डाल कर अपनी पर्यावरण को लेकर गैर जिम्मेदारी का बखूबी परिचय दिया है। साफ है कि लोग नदी की धारा को बनाए रखने और नदी को प्रदूषण मुक्त रखने को लेकर बिल्कुल भी जागरूक नहीं हैं। वह बात अलग है कि पर्यावरण दिवस पर लोगों की नदी में उतरकर गंदगी साफ करने की तस्वीर बनाना आम बात है। ऐसा नहीं है कि रिस्पना की इस हालत को सरकार ना जानती हो।उत्तराखंड सरकार के पास नदी के प्रदूषण की हर जानकारी और आंकड़े मौजूद हैं।

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इतना ही नहीं इस नदी की बदहाली के बारे में इसके पास रहने वाली एक स्कूली छात्रा बाकायदा प्रधानमंत्री से भी कह चुकी है। नतीजा यह रहा कि तत्कालीन सरकार के मुख्यमंत्री ने नदी को साफ करने के लिए रिस्पना से ऋषिपर्णा का एक स्लोगन भी दिया। उस दौरान नदी को साफ करने के लिए कई अभियान भी चलाए गए। लेकिन यह अभियान ज्यादा दिनों तक नहीं टिके और यह नदी न केवल अपना स्वरूप खोती गई,
बल्कि इसके पानी की गुणवत्ता भी गिरती चली गई। अब एक बार फिर विश्व पर्यावरण दिवस पर इस नदी की स्वच्छता को लेकर अभियान चलते हुए दिखाई देंगे। इसमें लाखों रुपया भी खर्च किया जाएगा लेकिन यह सब सिर्फ कुछ दिन की ही बात होगी। फिर एक बार इस नदी को इसी के हाल पर छोड़ दिया जाएगा। हालांकि इस मामले पर लोग अपनी जागरूकता को नजरअंदाज करते हुए सरकारी सिस्टम को ज्यादा कोसते हुए नजर आते हैं।

बात रिस्पना नदी की स्वच्छता तक ही सीमित नहीं है। इसमें मौजूद गंदगी का अंबार तो इस नदी के लिए एक बड़ी चिंता है ही, इसके अलावा इस पर हो रहा अतिक्रमण भी नदी के स्वरूप को बिगाड़ रहा है। देहरादून में जेसीबी से घरों को तोड़ने की इन तस्वीरों ने पिछले दिनों ना केवल मलिन बस्तियों में हड़कंप मचाए रखा, बल्कि उत्तराखंड की राजनीति में भी चर्चा का सबब बन गई। दरअसल देहरादून नगर निगम, जिला प्रशासन के साथ मिलकर रिस्पना नदी के किनारों पर एक अभियान के तहत कार्रवाई कर रहा है।यह कार्रवाई उन लोगों पर है जिन्होंने रिस्पना नदी के स्वरूप को बदलने का काम किया है। यानी नदी किनारों पर अतिक्रमण करते हुए नदी के प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ की है। हालांकि नगर निगम या जिला प्रशासन की तरफ से रिस्पना नदी की चिंता या अपनी सक्रियता के कारण ऐसा नहीं किया गया है, बल्कि यह कार्रवाई नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देशों के क्रम में हो रही है।

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देहरादून शहर के बीचों-बीच से बहने वाली इस नदी के दोनों तरफ हजारों लोगों ने अपने आशियाने बना लिए हैं। इस वजह से नदी की चौड़ाई कई जगह पर नाले में तब्दील हो गई। हैरानी की बात यह है कि देहरादून की इस मुख्य रिस्पना नदी पर कब्जे होते रहे और राज्य सरकारें और सरकारी सिस्टम आंख बंद किए रहे। अभी यह कार्रवाई नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देश के बाद हो पा रही है।नदियों का प्रदूषण भारत के लिए हमेशा एक बड़ी चिंता रहा है। शायद इसीलिए गंगा की स्वच्छता से शुरू हुआ अभियान अब धीरे धीरे बाकी नदियों पर भी आगे बढ़ रहा है, लेकिन ग्राउंड पर उसका ज्यादा असर दिख नहीं रहा है।देहरादून के शहर के बीचोंबीच से बह रही रिस्पना नदी को साफ करने के लिए अभियान चलाया गया था, लेकिन वो अभियान कितना कामयाब हुआ आज सबके सामने है। कि रिस्पना नदी का प्रदूषित पानी न सिर्फ इंसानों, बल्कि वन्यजीवों के लिए भी बड़ा खतरा बन गया है। नदियों के किनारे मानव सभ्यताओं का जन्म भी हुआ और विकास भी। नदियां केवल इंसानी जीवन के लिए ही उपयोगी नहीं बल्कि इसका महत्व पेड़, पौधे, वनस्पतियां और जीव-जंतुओं के लिए भी उतना ही है जितना इंसानों के लिए।

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हालांकि समय के साथ कई नदियां अपना स्वरूप खोती जा रही हैं। इन्हीं में से एक देहरादून की रिस्पना नदी है। नदी पर बना दिए मकान: मलिन बस्ती से जुड़े अधिनियम के कारण 2016 से पहले के निर्माण सरकारी कार्रवाई से दूर रखे गए हैं। इसके बाद बनाए गए भवनों पर चिन्हीकरण के बाद कार्रवाई हो रही है। लेकिन नई परेशानी यह है कि इनमें से कई लोग ऐसे हैं, जिन्होंने यहां किसी और से घर खरीद कर रहना शुरू किया है। एक तरह से देखा जाए तो यह लोग बड़ी ठगी का शिकार हुए हैं। इसके लिए प्रशासन और निगम भी कम जिम्मेदार नहीं
हैं, क्योंकि यदि अतिक्रमण पर पहले ही चाबुक चल गया होता, तो शायद यह लोग इस तरह अवैध जमीन पर बने घरों को खरीदने की हिम्मत नहीं करते। हालांकि अधिकारी इस बार नियमतः अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर कड़ी कार्रवाई की बात कह रहे हैं। सरकार न्यायालयों के निर्णयों को निष्प्रभावी करने के मुख्यतया वोट बैंक की अनिवार्यता के कारण नये नये तरीके ढूंढ रही है।

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ऐसे में नदी नालों के हित की बात क्या करना। परन्तु आम उत्तराखंडी व नेताओं को भी जो पहाड़ी मूल के हैं व उत्तराखंडी व उत्तराखंड आन्दोलन के भागीदार या दर्शक थे उन्हे स्वयं शांत भाव से निष्पक्ष होकर अपने से ही पूछना चाहिए कि पहाडों से भी तो मूल निवासी राज्य के महानगरों नगरों में आते होंगे, गांवों का खाली होना तो हो ही रहा है तो फिर क्यों नहीं देहरादून जैसे शहरों में अतिक्रमित जमीन पर बनी मलिन बस्तियों में बने घरों के मालिक दिखते हैं। इन बस्तियो में वे किरायेदार होंगे परन्तु मालिक बहुत ही कम होंगे। पहाड़ी दूरस्थ शहरों और कस्बों में भी अब अवैद्य मलिन बस्तियां बसने लगी हैं किन्तु यहां भी इन बस्तियों में मूल उत्तराखंडी शायद ही दिखे। ऐसी पहाड़ी या तराई की कस्बाई बस्तियों का भी वोट बैंक की राजनीति के चलते देर सबेर यदि नियमितिकरण हुआ तो उसका लाभ भी स्थानीय जन को कम ही मिलेगा। तो आत्म विश्लेषण से संदर्भित सवाल का जो भी जबाब आपको मिला होगा उसे अपने अंतरात्मा की आवाज मानें।

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अब अनुभव करें कि आप कैसा अनुभव करते है। ऐसे पैसे वाले भी हैं जो खुद तो मलिन बस्तियों में नहीं रहते हैं उनको जरूरत भी नहीं है किन्तु वे मलिन बस्तियों में भी जमीनों को कब्जाते हैं जिससे वे अपने कब्जे वा अवैद्य निर्माण दूसरों को सौंप कर कमाते हैं। यदि सरकारों के पास मलिन बस्तियों के लिए इतनी ही सरकारी जमीनों की अधिकता है कि उन्हे अवैद्य कब्जाधारियों को भेंट करने में कोई गुरेज नहीं है तो जो पहाड़ों के 400 से ज्यादा गांव भीषण खतरों के जर्द में होने के कारण वर्षों से पुनर्वासन के लिए चिन्हित किया गये है उनके वाशिन्दों को भी ऐसी ही शहरी सरकारी जमीन देने में क्यों नहीं सरकारी तत्परता दिखती है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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