दरकते पहाड़ (mountains) पूछ रहे हैं कई सवाल
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्यों में पिछले दिनों भूस्खलन, अचानक बाढ़ आने की अनेक घटनाएं सामने आई हैं जिसमें काफी जानमाल का नुकसान भी हुआ है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं बस, ये बरसात बीत जाए तो चल जाएगा। आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड का परिदृश्य को कुछ ऐसा ही बयां कर रहा है। उत्तराखंड में बारिश से तबाही का मंजर देखने को मिल रहा है। कहीं पहाड़ों से पत्थर गिर रहे हैं, तो कहीं बारिश से जमीन धंस रही है। अल्मोड़ा में बारिश और भूस्खलन से भारी तबाही हुई।
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वर्षा काल में जिले में अब तक 65 मकान आंशिक, एक पूर्णत: तथा 18 मकानों को तीक्ष्ण तौर पर क्षति पहुंची है। वर्षा के बाद भी भूस्खलन का खतरा बनाहुआ है। पहाड़ियों पर तेज धूप पड़ते ही वह दरकने लगी हैं। वहीं, मौसम विभाग के अनुसार फिर वर्षा होने की संभावना है। ऐसे में लोग दहशत में हैं।
ग्रामीणों ने कहा कि उनकी सुध कोई नहीं ले रहा है। दोफाड़ क्षेत्र के नाघर गांव के नीचे भूस्खलन हो रहा है। जिससे ग्रामीणों की रात की नींद हराम हो गई है। घरों के क्षतिग्रस्त होने से यहां रहने वाले लोगों को भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। सभी प्रभावित परिवारों को आपदा राहत मानकों के अनुसार 27 लाख 62 हजार 500 रुपये की अहेतुक सहायता दी गई है। वहीं बारिश से सड़कों को भी नुकसान पहुंचा है। कहीं सड़क की सुरक्षा दीवार क्षतिग्रस्त हुई है तो, कहीं पैराफिटों को नुकसान पहुंचा है। आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड का परिदृश्य को कुछ ऐसा ही बयां कर रहा है।
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एक आपदा आने के बाद तंत्र दूरदृष्टि वाले सपने बुनता है और तमाम तरह के दावे किए जाते हैं लेकिन इनकी कलई तब खुलती है जब दूसरी आपदा में तंत्र मूकदर्शक की भूमिका में ही दिखता है। इस बार के ही हालात देखें तो अतिवृष्टि से जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड का प्राकृतिक आपदाओं से चोली-दामन का साथ है। अतिवृष्टि, भूस्खलन, बादल फटना, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं से राज्य निरंतर जूझ रहा है। ऐसे गांवों की संख्या चार सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है, जो आपदा के दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील हो गए हैं। यह सही है कि आपदा पर किसी का वश नहीं चलता, लेकिन बेहतर प्रबंधन से इसके असर को न्यून किया जा सकता है।
इसी दृष्टिकोण से सरकार ने अलग से आपदा प्रबंधन विभाग भी गठित किया है। यद्यपि, आपदा न्यूनीकरण के तहत विभाग समय-समय पर कदम उठाता आया है, लेकिन इनमें निरंतरता, समन्वय, मॉनिटरिंग का अभाव अखरता है। यही कारण है कि आपदा आने पर वह गंभीरता नहीं दिखती, जिसकी दरकार है। आपदा के समय फौरी तौर पर कुछ व्यवस्था अवश्य होती है, लेकिन कुछ दिन बाद मामला जस का तस हो जाता है। ऐसे में जब काम करने वाले हाथ ही नहीं होंगे तो आपदा न्यूनीकरण, चेतावनी तंत्र, उपकरणों की देखभाल कैसे होगी, यह अपने आप में बड़ा विषय है। यद्यपि, अब इसे लेकर उच्च स्तर पर मंथन शुरू हो गया है, इसके क्या नतीजे आते हैं, इस पर सभी की नजर है। सड़कें बंद हैं, पेयजल, बिजली, संचार सुविधाएं प्रभावित हो रही हैं।
राहत के हालत ये हैं कि प्रभावितों को मुआवजा तक नहीं मिल रहा है। पिंडरघाटी में झुक चुके नौ वैली ब्रिज सुध कोई नहीं ले रहा। यह साल उत्तराखंड के लिए मुसीबतों का साल साबित हुआ है। जहां भू-धंसाव और घरों में दरारें आने से जोशीमठ का अस्तित्व खतरे में आ गया है तो वहीं प्रदेश में लगातार हो रही बारिश से उत्तरकाशी में भी अब कई गांवों में भूधंसाव की घटना के बाद बड़ी आपदा की आहट सुनाई दे रही है।उत्तरकाशी के भटवाड़ी तहसील के दो गांव मस्ताड़ी और कुज्जन में भी जोशीमठ जैसे हालात पैदा हो गए हैं। भारी बारिश के बाद दोनों गांवों में लगातार भू-धंसाव हो रहा है। जिससे लोग डरे हुए हैं।
उत्तराखंड में जोशीमठ के अलावा ऐसे कई गांव हैं, जिनका अस्तित्व खतरे में है। यहां भूधंसाव के चलते लोग डर के साए में रातें काटने को मजबूर हैं। लगातार हो रही भारी बारिश के चलते हालात और भी गंभीर हो गए हैं।मामले की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन ने गांवों का भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के वैज्ञानिको से सर्वेक्षण कराया है।
सर्वेक्षण की रिपोर्ट मिलने के बाद सुरक्षा के संबंध में आगे की कार्रवाई होगी। आपदा के दृष्टिकोण से संवेदनशील उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन मंत्रालय अस्तित्व में है। उसकी ओर से आपदा न्यूनीकरण के लिए कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लंबे समय से बात हो रही है कि आपदा के दृष्टिगत अर्ली वार्निंग सिस्टम ऊपर से नीचे की ओर विकसित किया जाएगा, लेकिन कुछेक क्षेत्रों को छोड़कर यह मुहिम रफ्तार नहीं पकड़ पाई है। इसकी जरूरत रैणी में आई आपदा के दौरान शिद्दत से महसूस की गई थी। सबसे महत्वपूर्ण है संचार तंत्र।
स्थिति ये है कि आपदा की समय पर सूचना न मिलने से राहत एवं बचाव कार्यों में देरी होती है। ऐसा तंत्र अब तक विकसित नहीं किया जा सका है, जिससे तत्काल सूचनाओं का आदान प्रदान हो सके। रैणी आपदा के बाद ग्लेशियरों का अध्ययन कराने की बात भी हुई थी, लेकिन इसकी रफ्तार तेज करने की आवश्यकता है। ग्राम स्तर पर तत्काल बचाव एवं राहत कार्य शुरू करने के लिए आपदा प्रबंधन टोलियों के गठन और उन्हें प्रशिक्षित करने भी दरकार है। सभी आपदा प्रभावित परिवारों के विस्थापन में और तेजी लाई जाए। साथ ही आपदा प्रबंधन तंत्र
को और अधिक सुदृढ़ किया जाए।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)
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