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जेनेरिक(generic)और ब्रांडेड दवाओं का सवाल, गुणवत्ता की जांच बढ़ाने की दरकार

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जेनेरिक(generic)और ब्रांडेड दवाओं का सवाल, गुणवत्ता की जांच बढ़ाने की दरकार

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हाल ही में चिकित्सा क्षेत्र की दो महत्वपूर्ण संस्थाएं दवाओं की संस्तुति और गुणवत्ता के सवाल पर आमने-सामने खड़ी दिख रही हैं। इससे आमजन के सामने दुविधा की स्थिति पैदा हो गई है। नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने की बाध्यता को कानूनी रूप दे दिया है, तो इंडियन मेडिकल एसोशिएसन (आईएमए) ने जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा कर दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जेनेरिक दवाएं बहुत सस्ती और गरीब आदमी की पहुंच में होती हैं। दूसरी ओर ब्रांडेड दवाएं बनाने वाली कंपनियां विज्ञापनों और उपहारों पर अत्यधिक व्यय करती हैं। डॉक्टरों को विदेश भ्रमण कराती हैं। नतीजतन डॉक्टर उन्हीं दवाओं को लिखते हैं और मरीज महंगी दवाएं खरीदने को बाध्य होते हैं। इससे ब्रांडेड दवाओं की कीमत बहुत बढ़ जाती है।

आईएमए के अध्यक्ष का कहना है कि जब एनएमसी डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य कर रही है, तो उसे इसकी गारंटी देनी चाहिए कि जेनेरिक दवाएं, ब्रांडेड दवाओं की तरह गुणवत्तापरक होंगी। उनका यह भी कहना है कि अगर ब्रांड नाम से लाइसेंस दिया जा रहा है, तो ब्रांड नाम से दवा लिखने से कैसे रोका जा सकता है? आईएमए ने तो यहां तक कहा कि हमारे यहां दवा की गुणवत्ता की जांच नहीं होती। अपने देश में प्रतिवर्ष कुल उत्पादित एक प्रतिशत दवाओं की ही 26 सरकारी प्रयोगशालाओं में जांच हो पाती है।

रिपोर्ट आने में छह से नौ महीने लग जाते हैं। ऐसे में दवाओं की गुणवत्ता की गारंटी नहीं होती।बेशक जेनेरिक दवाएं सस्ती होती हैं, लेकिन उनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करने का सवाल भी कम जरूरी नहीं है। ब्रांडेड दवाएं महंगी हैं और डॉक्टरों को प्रभावित कर बेची जाती हैं। इसके अलावा अपने देश में बिना फार्मासिस्टों के ही दवाओं की दुकानें खुलती हैं और एक फार्मासिस्ट औपचारिकताएं पूरी करने के लिए अपना
लाइसेंस कई दुकानों को उपलब्ध कराकर कमाई करता है। गुणवत्ता का सवाल कई कारणों से उठ रहा है। जी-20 की बैठक में अमेरिकी हेल्थ ऐंड ह्यूमेन सर्विसेज के सेक्रेटरी ने भारतीय दवाओं की गुणवत्ता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि हम भारत की दवाएं तभी मंगाएंगे, जब वे अमेरिकी मानकों पर खरा उतरेंगी।

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ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लिनिकल फार्मेसी के मुताबिक, भारत में 64 प्रतिशत एंटीबायोटिक दवाएं बिना मंजूरी के बिक रही हैं। वर्ष 2022 में गांबिया (अफ्रीका) में भारतीय कफ सिरप पीकर लगभग 70 बच्चे मर गए। वर्ष 2022 के अंत में उज्बेकिस्तान में 18 बच्चे भारतीय डॉक-1 मैक्स कफ सिरप पीकर मर गए थे। इन घटनाओं से दवाओं की गुणवत्ता पर सवाल तब भी उठे थे और नेपाल ने 16 भारतीय दवा कंपनियों की दवाएं प्रतिबंधित कर दी थीं। यह सही है कि जिलों में फूड ऐंड ड्रग्स कंट्रोलर के यहां कोई लैब नहीं है, जहां दवाओं की गुणवत्ता जांची जा
सके। दवा उत्पादन, वितरण और अनुमति का पूरा कारोबार बिना जांच के, अथाह कमीशन के बल पर ही चल रहा है। इसके अलावा देश के 10,500 के करीब दवा निर्माताओं पर नियंत्रण के लिए सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल आर्गेनाइजेशन (सीडीएसओ) के पास न पर्याप्त कर्मचारी हैं और न ही आधारभूत सुविधाएं हैं। दवा कंपनियां अपने लाभ के लिए डॉक्टरों को प्रभावित कर महंगी ब्रांडेड दवाएं बेच रही हैं। जबकि सौ से हजार प्रतिशत सस्ती जेनरिक दवाओं से भी इलाज किया जा सकता है। यह दवा कंपनियों का ही कमाल है कि लगभग एक हजार जरूरी दवाओं को नब्बे हजार से अधिक नामों और पैकेटों में बाजार में उतारा जा रहा है।

देश के अधिकांश डॉक्टरों के भ्रमण, सैर-सपाटे आदि का खर्च दवा कंपनियां ही उठाती हैं, जिससे डॉक्टरों द्वारा लिखा पर्चा मरीजों के बजाय कंपनियों के हित में होता है।जाहिर है, आधारभूत सुविधाओं के अभाव में सारी दवाओं की जांच संभव नहीं है। इसलिए जरूरी है कि दवाओं की गुणवत्ता की जांच बढ़ाई जाए। बेशक जेनरिक दवाएं सस्ते इलाज के लिए जरूरी हैं, मगर दवाओं की गुणवत्ता उससे भी ज्यादा जरूरी है, क्योंकि नकली दवाएं जानलेवा साबित हो रही हैं। भारत के औषधि महानियंत्रक (डीजीसीआई) को निर्देश दिया है कि नकली दवा बनाने वाली किसी भी कंपनी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए।

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स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि सरकार गुणवत्ता का पालन न करने वाली और नकली दवाएं बनाने वाली कंपनियों को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति अपना रही है। केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि दवा बनाने वाली कंपनियों की जांच के लिए विशेष दस्ते का गठन किया गया है और किसी भी गड़बड़ी पर सख्त कार्रवाई की जाएगी। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि दवा उत्पादों की उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए नियामक प्राधिकारियों ने जोखिम के आधार पर जांच और संयंत्रों की ऑडिट शुरू की है। ड्रग कंट्रोलर बाजार में बिकने वाली दवा के सैंपल की औचक जांच करते हैं और खराब पाए जाने पर कार्रवाई भी करते हैं। लेकिन, अब यह सवाल उठने लगा है कि घरेलू बाजार में भी उपभोक्ताओं तक दवा पहुंचने से पहले उसकी जांच सरकारी लैब में क्यों नहीं हो सकती है।

जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं की तुलना में 80% तक सस्ती होती हैं। एनएमसी ने इस प्रकार तर्क दिया है कि जेनेरिक दवाएं लिखने से ऐसे देश में स्वास्थ्य देखभाल लागत कम करने में मदद मिल सकती है जहां स्वास्थ्य देखभाल पर अपनी जेब से लगभग 70% खर्च दवाओं पर होता है। हालांकि यह सच है कि कई दवाएं उनके साथ जुड़े ब्रांड नाम के कारण ऊंची कीमत पर आती हैं, लेकिन जेनेरिक दवाएं आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका नहीं हो सकती हैं। सबसे पहले, यदि कोई चिकित्सक जेनेरिक दवा लिखता है, तो ज्यादातर मामलों में, ब्रांड का चयन उन केमिस्ट दुकानों द्वारा किया जाएगा जो रोगियों के सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखने के लिए बाध्य नहीं हैं। केमिस्टों द्वारा ओवर-द-काउंटर
दवाओं का वितरण भारत में एंटी-माइक्रोबियल प्रतिरोध के प्रमुख कारणों में से एक है।

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दूसरा, मानकीकृत परीक्षण और अनुमोदन प्रक्रियाओं की कमी जेनेरिक दवाओं की विश्वसनीयता से समझौता करती है। उदाहरण के लिए, केरल के दवा नियामक प्राधिकरण द्वारा बनाए गए घटिया दवाओं के एक डेटाबेस में इस साल एक जेनेरिक निर्माता से पेरासिटामोल के कम से कम 10 बैचों के नमूने दर्ज किए गए जो मानक गुणवत्ता परीक्षणों में विफल रहे। व्यावहारिकता का भी सवाल है। क्या भारत के अत्यधिक बोझ से दबे चिकित्सा पेशेवरों – देश में प्रति 10,000 लोगों पर लगभग 44.5 कुशल स्वास्थ्य कर्मचारी हैं – से प्रत्येक रोगी के लिए एक दवा बनाने
वाली आठ से नौ सामान्य सामग्रियों को लिखने की उम्मीद की जा सकती है? सामान्य नामों को नोट करने में त्रुटि घातक साबित हो सकती है।उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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