उपद्रव जल्दबाजी खुफिया रिपोर्ट (intelligence report) की अनदेखी पड़ी भारी - Mukhyadhara

उपद्रव जल्दबाजी खुफिया रिपोर्ट (intelligence report) की अनदेखी पड़ी भारी

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उपद्रव जल्दबाजी खुफिया रिपोर्ट (intelligence report) की अनदेखी पड़ी भारी

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड की संस्कृति ने कभी अपने खून के रंग को नहीं खोया था, इसे शांति और सौम्यता का प्रतीक माना जाता था। यहां के प्राचीन समुदायों ने हमेशा बाहरी आगंतुकों को आकर्षित किया है। इसलिए, उत्तराखंड में हाल ही में हुई हल्द्वानी हिंसा ने समाज को गहरे धड़कने पर मजबूर किया है। हल्द्वानी में हुई हिंसा ने संस्कृति के खिलाफ एक नई चुनौती पैदा की है। यहां की शांतिप्रिय वातावरण को ध्वस्त करने के लिए बेहोशी और अशांति का माहौल बना दिया है। इस घटना ने उत्तराखंड की मासिक जीवनशैली को भ्रष्ट कर दिया है। यहां के कई क्षेत्रों में एक बड़ी संख्या में मुस्लिम जनसंख्या निवास करती है, लेकिन वे यहां की संस्कृति का सम्मान करते हैं। उनका सहयोग उत्तराखंड की रोचक और विविध संस्कृति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

यह दिखाता है कि संस्कृति के माध्यम से लोगों के बीच संबंध और समन्वय संभव हैं, भले ही धार्मिक या सांस्कृतिक भिन्नताओं के बीच हों हल्द्वानी का बनभूलपुरा उपद्रव और दंगे की आग में नहीं सुलगता यदि खुफिया रिपोर्ट की सूचना पर अमल कर लिया गया होता। दुर्भाग्य से पुलिस और प्रशासन विभाग ने खुफिया रिपोर्ट पर काम करने की जहमत नहीं उठाई, जिसकी बहुत बड़ी कीमत शांत हल्द्वानी को चुकानी पड़ी। इतना ही नहीं दोपहर में अभियान शुरू करने के पक्ष में भी मंडल स्तर के एक बड़े अफसर सहमत नही थे छोटे अफसरों की जल्दबाजी अपरिपक्वता ने सरकार के सामने बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी जिस यूसीसी पर सरकार ने सदन से लेकर सड़क पर विजय श्री हासिल की और पूरे देश में उत्तराखंड चमक गया लेकिन ये चमक हल्द्वानी प्रकरण से 24 घंटे के भीतर ही प्रभावित भी हो गई। समन्वय कर ये अतिक्रमण हटाओ अभियान कुछ दिन बाद भी चलाया जा सकता था।

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हल्द्वानी का बनभूलपुरा उपद्रव और दंगे की आग में नहीं सुलगता यदि खुफिया रिपोर्ट की सूचना पर अमल कर लिया गया होता। दुर्भाग्य से पुलिस और प्रशासन विभाग ने खुफिया रिपोर्ट पर काम करने की जहमत नहीं उठाई,जिसकी बहुत बड़ी कीमत शांत हल्द्वानी को चुकानी पड़ी। इतना ही नहीं दोपहर में अभियान शुरू करने के पक्ष में भी मंडल स्तर के एक बड़े अफसर सहमत नही थे छोटे अफसरों की जल्दबाजी
अपरिपक्वता ने सरकार के सामने बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी जिस यूसीसी पर सरकार ने सदन से लेकर सड़क पर विजय श्री हासिल की और पूरे देश में उत्तराखंड चमक गया लेकिन ये चमक हल्द्वानी प्रकरण से 24 घंटे के भीतर ही प्रभावित भी हो गई। समन्वय कर ये अतिक्रमण हटाओ अभियान कुछ दिन बाद भी चलाया जा सकता था।

मुख्यमंत्री कार्यालय को पूरे घटनाक्रम के बारे में जो फीडबैक मिला है, उसके मुताबिक बनभूलपुरा में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई से पहले खुफिया विभाग ने अपनी रिपोर्ट जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को दे दी थी। सूत्रों के मुताबिक, खुफिया रिपोर्ट से यह अवगत करा दिया गया था कि अतिक्रमण अभियान शुरू करने से पहले वहां आबादी क्षेत्र का ड्रोन सर्वे करा लिया जाए, ताकि किसी भी तरह की उपद्रव या पथराव की संभावना का पता लगाया जा सके। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अभियान से पूर्व पर्याप्त संख्या में पुलिस और पीएसी की तैनाती कर दी जाए। यदि विवाद, उपद्रव या दंगा के हालात बनें तो कानून व्यवस्था कायम करने के लिए तत्काल एक्शन लिया जा सके।

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बताया जा रहा है कि इंटेलीजेंस ने यह भी सूचना दी थी कि अतिक्रमण कर बनाए गए जिस धार्मिक स्थल के ढांचे को तोड़ा जाना है, वहां पवित्र किताब रखी है कि नहीं, यह भी पता लगा लिया जाए। इंटेलीजेंस की रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पवित्र किताब के वहां रखे होने की सूरत में उसे पूरी सावधानी और सम्मान के साथ बाहर निकाल कर उचित स्थान पर रखने के बाद ही अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई हो।

सूत्रों के मुताबिक, इस पूरी कार्रवाई में इंटेलिजेंस की इन सभी सूचनाओं की अनदेखी हुई और अतिक्रमण अभियान शुरू कर दिया गया। पहले से पक्की तैयारी न होने के कारण पथराव में 150 पुलिस कर्मी घायल हुए। सरकारी और निजी कई वाहन और पुलिस थाने को आग के हवाले कर दिया गया। फायरिंग में कुछ लोगों की जान भी चली गई। आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक, मुख्यमंत्री कार्यालय ने इस पूरे घटनाक्रम को बहुत गंभीरता से लिया है। खासतौर पर इंटेलीजेंस की रिपोर्ट की अनदेखी को भी गंभीर माना है। सूत्रों के मुताबिक, खुफिया रिपोर्ट से यह अवगत करा दिया गया था कि अतिक्रमण अभियान शुरू करने से पहले वहां आबादी क्षेत्र का ड्रोन सर्वे करा लिया जाए, ताकि किसी भी तरह की उपद्रव या पथराव की संभावना का पता लगाया जा सके।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अभियान से पूर्व पर्याप्त संख्या में पुलिस और पीएसी की तैनाती कर दी जाए। यदि विवाद, उपद्रव या दंगा के हालात बनें तो कानून व्यवस्था कायम करने के लिए तत्काल एक्शन लिया जा सके।बताया जा रहा है कि इंटेलीजेंस ने यह भी सूचना दी थी कि अतिक्रमण कर बनाए गए जिस धार्मिक स्थल के ढांचे को तोड़ा जाना है, वहां पवित्र किताब रखी है कि नहीं, यह भी पता लगा लिया जाए। इंटेलीजेंस की रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि पवित्र किताब के वहां रखे होने की सूरत में उसे पूरी सावधानी और सम्मान के साथ बाहर निकाल कर उचित स्थान पर रखने के बाद ही अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई हो।

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उत्तराखंड के हल्द्वानी को जलाने की तैयारी पहले से ही हो चुकी थी। इसको लेकर खुफिया एजेंसी ने स्थानीय प्रशासन को रिपोर्ट भी भेजी थी, लेकिन प्रशासन ने उसको नजरअंदाज कर दिया था। जिसका नतीजा ये हुआ कि हल्द्वानी में बड़े स्तर पर हिंसा भड़क गई। राज्य के गृह विभाग के सूत्रों ने कहा कि दंगा भड़कने के बाद सीएम द्वारा वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ बुलाई गई बैठक के दौरान यह मुद्दा उठा है।

एक हफ्टे पहले ही इंटेलिजेंस ने प्रशासन को रिपोर्ट भेजी थी, जिसमें कहा गया था कि मस्जिद और मदरसे को हटाने की कार्रवाई को लेकर कट्टरपंथी लोग विरोध कर सकते हैं। एजेंसी ने बनभूलपुरा विवादित स्थल पर विरोध-प्रदर्शन के बारे में सूचित भी किया था। एजेंसी ने रिपोर्ट में बताया था कि हिंसा में महिलाएं और बच्चे भी शामिल रह सकते हैं। इंटेलिजेंस रिपोर्ट में जमीयत उलेमा हिंद और अब्दुल मलिक की कुमाऊं कमिश्नर से बातचीत का भी जिक्र किया गया था। अब्दुल मलिक ने प्रस्तावित अतिक्रमण की कार्रवाई पर रोक लगाने के लिए कहा था। रिपोर्ट में कार्रवाई के दौरान विरोध को लेकर फोटोग्राफी, पीएसी तैनाती, अतिक्रमण को तड़के हटाए जाने जैसे तरीकों को भी अपनाने की सलाह दी गई थी, लेकिन स्थानीय स्तर पर हर बिंदु पर लापरवाही दिखाई, जिसका नतीजा हल्द्वानी हिंसा रहा।

हर राज्य का परिधान उसकी संस्कृति का परिचय देता है। इसी तरह उत्तराखंड में कुमाऊं का परिधान अपनी अलग पहचान रखता है। एक दुल्हन की बात करें तो यहां पिछौड़े को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। कुमाऊं में हर विवाहित महिला मांगलिक अवसरों पर इसको पहनना नहीं भूलती है। यहां की परंपरा के मुताबिक त्यौहारों, सामाजिक समारोहों और धार्मिक अवसरों में इसे महिलाएं पहनती है। शादी के मौके पर वरपक्ष की तरफ से दुल्हन के लिए  सुहाग  के सभी सामान के साथ पिछौड़ा भेजना अनिवार्य माना जाता है। कई परिवारों में तो इसे शादी के मौके पर वधूपक्ष या फिर वर पक्ष द्वारा दिया जाता है। जिस तरह दूसरे राज्यों की विवाहित महिलाएं के परिधान में ओढनी, दुपट्टा महत्वपूर्ण जगह रखता है, ठीक उसी तरह कुमाऊंनी महिलाओं के लिए पिछौड़ा अहमियत रखता है।

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कुमाऊं की लोक संस्कृति में रंगवाली पिछौड़े का अपना अलग महत्व है। धार्मिक आयोजन हो या फिर सामाजिक, शगुन के तौर पर शादी-शुदा महिलाएं पिछौड़े हर उत्सव में पहनती हैं। सदियों से इस परंपरा का निर्वहन होते आया है। वैसे तो पारंपरिक रूप से रंगवाली पिछौड़ी हस्तनिर्मित होती है। इसमें वानस्पतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है और इसमें तमाम तरह की आकृतियां उकेरी जाती हैं। खासकर, इसे
बनाने में केवल दो रंग सुर्ख लाल व केसरिया का ही प्रयोग होता है। इन रंगों को मांगलिक भी माना गया है।कल्याणी समिति की अध्यक्ष भी लंबे समय से अपनी संस्था के जरिये पिछौड़े बनवाती हैं, जिसे आधुनिक लुक भी देती हैं। दूसरे राज्यों में रहने वाले कुमाउंनी लोग भी इस तरह के पिछौड़े की खासी डिमांड करते हैं।

अध्यक्ष बताती हैं, लाल रंग ऊर्जा का प्रतीक है और केसरिया रंग पवित्र धार्मिक माना गया है। इन दो रंगों से बनी पिछौड़ी मनभावन होती है।जब महिलाएं विवाह समारोह, यज्ञोपवीत, नामकरण संस्कार या फिर अन्य आयोजनों में पिछौड़े को पहनती हैं तो बहुत ही आकर्षक लगती हैं। अब प्रशासन ने भौगोलिक संकेतेक (जीआइ टैग) के जरिये पिछौड़े को पहचान देने की पहल की है। अध्यक्ष का कहना है कि निश्चित तौर पर इस पहला का अच्छा असर देखने को मिलेगा। इससे जहां हमारी लोक संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा, वहीं स्थानीय स्तर पर भी रोजगार मिलेगा।रंगवाली पिछौड़ा हस्त-निर्मित होता है जिसे वानस्पतिक रंजकों से रंगा जाता है, इसके बाद उस पर बूटियां व अन्य आकृतियां हाथों से उकेरी जाती हैं। इनके निर्माण में केवल दो रंग सुर्ख लाल व केसरिया ही प्रयुक्त होते हैं क्योंकि भारतीय सभ्यता में इन दोनों रंगों को मांगलिक माना गया है। सुर्ख लाल रंग ऊर्जा व वैभवमय दाम्पतिक जीवन का सूचक माना जाता है और केसरिया रंग पवित्र धार्मिकता एंव सांसारिक सुखों का
द्योतक होता है। इन दो रंगों का संयुग्म महिला को अपने वैवाहिक जीवन में सौभाग्य प्रदान करता है।

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हम सांस्कृतिक विरासत को तभी तक उच्च मांग में स्थापित कर सकेंगे या पहचान दिला सकेंगे जब तक यह अपने मौलिक स्वरूप में मौजूद रहेगी वरना बहुत जल्दी यह बाजार में मांग से अधिक एवं अपने बदले हुए स्वरूप में बिकने लगेगी और वास्तविक बाजार, समय, मांग, तत्पश्चात हमारी संस्कृति से भी यह बाहर निकल जाएगी। आने वाली पीढ़ी को इसे, इसके मौलिक स्वरूप में ही विकसित करने की कोशिश करनी होगी और इसको मजाक बनने से बचाना होगा। संस्कृति की पहचान के नाम पर जितना अपमान, इस पवित्र, गरिमामय पिछौडे,ऐपण, अल्पनाओं  का हो रहा इतना किसी भी वस्तु  का नहीं हो रहा है। जिसे देखो वही इसे अपने-अपने हिसाब से प्रस्तुत करने में लगा है। जैसे आजकल यह मास्क, फतुई (वासकट), टोपी आदि में  दिखाई देने लगा है तब वह दिन दूर नहीं जब यह पुरुषों के हेलमेट, मफलर, जैकेट,मोजे , रुमाल आदि से लेकर कहीं  भी किसी भी वस्तु में दिखाई देने लगेगा। क्या राज्य के पास पारम्परिक विरासतों के समान के प्रोडक्शन हेतु, अन्य द्वारा इसकी मौलिकता का हनन ना करने अथवा दुरुपयोग ना करने हेतु कोई पेटेंट नीति लागू की हुई है? क्या उत्तराखंड का जनजीवन स्वयं इन सब के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है? ताकि वे इसे कहां?  कैसे? कितना? किस प्रकार? उपयोग करें को लेकर स्वयं भी सोच रहे हों तांकि विरासत भी बची रहे और सांस्कृतिक प्रसार एवम् उससे जुड़ी संभावनाएं भी बनी रहे।

खैर इस बात पर कुछ लोग कहेंगे क्या फर्क पड़ता है? उपयोग से मतलब होना चाहिए या कहेंगे कि सभ्यताएं भी तो ऐसे ही परिवर्तित होती हैं, हम अपनी विरासत की मौलिकता को हनन होने से बचाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। ताकि भविष्य में खोज करने वाले समझ सकें कि विराट विरासतें यूं ही दम नहीं तोड़ती हैं। इनके पीछे संस्कृति के चौकीदार सदैव प्रयासरत रहते हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बृहद परम्पराओं की कहानियां मूल रूप से हस्तांतरित होती रहती हैं एवम् होती रहेंगी। कुछ समय पहले तक घर-घर में हाथ से  पिछौड़ा  रंगने का प्रचलन था। लेकिन अब कई परिवार परम्परा के रूप में मंदिर के लिए कपड़े के टुकड़े में शगुन कर लेते हैं। मायके वाले विवाह के अवसर पर अपनी पुत्री को यह पिछौड़ा पहना कर ही विदा करते थे। पर्वतीय समाज में पिछौड़ा इस हद तक रचा बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलायें इसे अनिवार्य रूप से पहन कर ही रस्म पूरी करती हैं।

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सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है। पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है। पिछौड़े के  पारंपरिक  डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है। रंग्वाली शब्द का इस्तेमाल इसके प्रिंट की वजह से किया जाता है क्योंकि पिछौड़े का प्रिंट काफी हद तक रंगोली की तरह दिखता है। शादी, नामकरण,जनैऊ, व्रत त्यौहार, पूजा- अर्चना जैसे मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिला सदस्य विशेष तौर से इसे पहनती है। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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