पहाड़ का सवाल कब मुद्दा माना जाएगा - Mukhyadhara

पहाड़ का सवाल कब मुद्दा माना जाएगा

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पहाड़ का सवाल कब मुद्दा माना जाएगा

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हिमालयी राज्य उत्तराखंड में भूकंप का खतरा भी कम नहीं है। भूकंपीय दृष्टि से उत्तराखंड अति संवेदनशील जोन पांच व चार के अंतर्गत आता है। यहां के पांच जिले उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग (अधिकांश भाग), पिथौरागढ़ व बागेश्वर अति संवेदनशील जोन पांच में हैं। पौड़ी, हरिद्वार, अल्मोड़ा, चंपावत, नैनीताल व ऊधमसिंह नगर जोन चार में हैं। टिहरी और देहरादून ऐसे जिले हैं, जो दोनों जोन में आते हैं। यही कारण है कि
भूकंप का केंद्र कहीं रहे, उसका असर उत्तराखंड में भी दिखता है। विश्व के इस नवीनतम पर्वतीय क्षेत्र में हमेशा भूकंप, बाढ़, भूस्खलन,एवलांच , सूखा और आग आदि घटनाएं होती रही हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों में जुलाई 1720 में दिल्ली, 1803 के बदरीनाथ के भूकंप से लेकर वर्तमान तक कई बार उत्तराखंड की धरती हिलती रही है।

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1809 में गढ़वाल, 26 मई 1816 में गंगोत्री, पांच मार्च 1842 को मसूरी, 11 अप्रैल 1865 को पुनः मसूरी में, 25 जुलाई 1869 नैनीताल, 28 अक्तूबर 1916 में 7.5 पैमाने पर भूकंप आया। इसी प्रकार 1937 में आठ की तीव्रता का भूकंप देहरादून में, 27 जुलाई 1966 में कपकोट-धारचुला, 21 मई 1979 को सेराघाट में, 21 जुलाई 1980 को धारचुला, 20 अक्तूबर 1999 को उत्तरकाशी, 29 मार्च 1999 को चमोली में बड़े भूकंप के अलावा छोटे-छोटे भूकंप ने बार-बार राज्य के सीने पर जख्म दिए हैं। प्रदेश में कई प्राकृतिक आपदाओं में करीब 400 गांव इतने संवेदनशील हैं कि इनका सुरक्षित स्थानों पर विस्थापन और पुनर्वास होना जरूरी है, लेकिन बजट की कमी भी बाधक है। प्रभावित परिवारों के विस्थापन के लिए अच्छी-खासी धनराशि की जरूरत होती है और राज्य की आर्थिक स्थिति किसी से छिपी नहीं है।

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ऐसे में राज्य की स्थिति का वास्ता देते हुए केंद्र सरकार में मजबूती से यहां का पक्ष रखना चाहिए, ताकि वहां से आर्थिक मदद मिल सके और आपदा प्रभावितों का विस्थापन हो सके। बजट पर तब असर पड़ता है जब केंद्र व राज्य में अलग-अलग सरकारें होती हैं। वैसे प्रदेश में आपदा प्रभावितों के विस्थापन एवं पुनर्वास की नीति लागू है। वर्ष 2011 में अस्तित्व में आई नीति के तहत अब तक 85 गांवों के 1458 परिवारों का ही विस्थापन-पुनर्वास हो पाया है। इसमें भी 83 गांवों के 1447 परिवारों का विस्थापन-पुनर्वास पिछले पांच वर्षों के दौरान हुआ। इस पर 61.02 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई। केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा, जोशीमठ आपदासमेत तमाम ऐसे जख्म हैं, जिनमें सैकड़ों घरों के चिराग
बुझ गए। हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों का नुकसान अलग हुआ। इन आपदाओं के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए फौरीतौर पर सरकारों ने प्रयास किए, लेकिन आपदाओं के जोखिम को कम करने के उपायों के बारे में राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों ने कभी गंभीर चुनावी चर्चा नहीं की।

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लगातार दरकते पहाड़ और खतरों के साये में जी रहे लोग, ये सवाल पूछे रहे हैं कि आपदा को कब मुद्दा माना जाएगा। राजनीतिक दलों की उपलब्धियों, राष्ट्रीय और राज्य के अवस्थापना और बुनियादी विकास से जुड़े मुद्दों के शोर में आपदा का मुद्दा हमेशा नेपथ्य में रहा, जबकि हिमालयी राज्य उत्तराखंड हर साल बाढ़, भूस्खलन, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलता रहा है। भारत में भूकंप की घटनाओं में बीते एक दशक में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। उत्तर भारत के कई राज्य भूकंप के खतरनाक जोन में हैं जिनमें से एक दिल्ली भी है। भूकंप की आवृत्ति बढ़ने के पीछे टेक्टोनिक प्लेटों का खिसकना एक बड़ी वजह माना जाता है, लेकिन भूगर्भ विज्ञानी और सिस्मोलॉजिस्ट ने बीते कई सालों के अध्ययन के आधार पर यह दावा किया है कि भारत हर साल 5 सेंटीमीटर यूरेशिया (जिसमें यूरोप और एशिया के महाद्वीप आते हैं) की तरफ बढ़ रहा है। इसे भूकंप के बड़े कारणों में से एक माना जा रहा है।

भूगर्भ विज्ञानियों का दावा है कि आने वाले समय में एक बड़ा भूकंप उत्तर भारत में आ सकता है, हालांकि इससे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं। इस तरह के शक्तिशाली भूकंप पहले भी आए हैं लेकिन देश के 2.3 करोड़ निवासियों पर इनका असर सीमित ही रहा है।

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विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा इसलिए हैं क्योंकि यहां भूकंप के प्रति मुस्तैदी उत्कृष्ट स्तर की है। हमारी वैज्ञानिक हमेशा से हिमालय पर अलग -अलग जगह पर जगह बनाई ना के रखे हैं और उनकी मूवमेंट को रोज स्टडी करते आ रहे हैं ताकि भूकंप से आने से पहले हुई उसके प्रति  पूर्व अनुमान लगाया जा सके उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार से है कि हम दोनों के बीच में है तो यह तो तय है कि जब भी भूकंप आएगा तो यहां पर इसका ठीक-ठाक प्रभाव रहेगा। हमें भूकंप से बचने के लिए सरकार द्वारा वैज्ञानिकों द्वारा बताए हुए भवन निर्माण की ओर जाना चाहिए  जिससे जानमाल की क्षति कम हो।

( लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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