वनराजि (Vanaraji) के अस्तित्व पर क्यों मंडरा रहा संकट?
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
घुमंतू जीवन शैली वाले राजी या वनरावत कभी ‘जंगल के राजा’ कहलाते थे। जंगल उनके स्वाभाविक ठिकाने और आजीविका के साधन थे। वे इस हिमालयी भू-भाग के सबसे पुराने वाशिंदों में हैं लेकिन ‘सभ्यता के विकास’ और आधुनिक ‘प्रगति’ के चलते वे धीरे-धीरे जंगलों से बेदखल किए गए। जिनके कारण जंगल, बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति सुरक्षित और वंदनीय थी, वे ही उसके विनाश के लिए जिम्मेदार ठहराए और उजाड़े जाते रहे। आज तो वे चंद सैकड़ा संख्या में बचे हैं और मुख्य धारा का हिस्सा बनकर अपनी बोली-बानी, प्रकृति और संस्कृति, सब कुछ खो चुके हैं।
वनरावत जनजाति पिथौरागढ़ के डीडीहाट, धारचूला विकासखंड के कूटा चौरानी, मदनपुरी, किमखोला, कमतोली, जमतड़ी समेत करीब आठ गांवों में निवास करती हैं। यह राज्य की एकमात्र आदिम जनजाति है। यह जनजाति तेजी से विलुप्ति की कगार पर पहुंच रही है। इसे लेकर केंद्र सरकार और अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनेस्को भी चिंता जता चुके हैं। इस जनजाति का साक्षरता दर मात्र 35 फीसद है। यहां स्वास्थ्य सेवाएं भी न के बराबर हैं। विलुप्ति की कगार पर पहुंच रही उत्तराखंड की एकमात्र वनरावत जनजाति आदिम जनजाति को लेकर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग एनसीपीसीआर ने चिंता जताई है।
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दरअसल, एनसीपीसीआर ने एक खबर का संज्ञान लिया है, जिसमें पिथौरागढ़ की वनरावत जनजाति के घटने के लिए वहां की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को उजागर किया गया है। उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चंपावत और ऊधमसिंह नगर के कुछ इलाकों में आदिम राजी जनजाति सदियों से रहती है. लेकिन इस जनजाति पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। राज्य में अब राजी जनजाति के अब सिर्फ 249 परिवार ही बचे हैं। तीनों जिलों में इस जनजाति के सिर्फ 1075 लोग ही जीवित हैं। भयंकर गरीबी और पिछड़ेपन के कारण इस जनजाति के ज्यादातर लोग समय से पहले ही दुनिया को अलविदा कहने को मजबूर हैं। राजी जनजाति की औसत आयु 55 साल से भी कम आंकी गई है।
यही वजह है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट को भी इस मामले का संज्ञान लेना पड़ा। सुविधाओं की कमी और कठिन जीवन शैली इस जनजाति की सबसे बड़ी समस्या है। कमला देवी का कहना है कि उनके पास न तो रहने के लिए घर है, ना ही रोजगार का कोई साधन। पीने के पानी के लिए वे बरसात पर निर्भर हैं। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य सेवाओं का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। इन्हीं सब कारणों से उनके समुदाय के लोग कम हो रहे हैं। राजी जनजाति के लिए काम कर रही अर्पण संस्था का कहना है कि राजी जनजाति के वर्तमान हालात के लिए सिर्फ आर्थिक कारण जिम्मेदार हैं।
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हालात सुधारने पर ध्यान दिया गया तो इनकी जनसंख्या निश्चत रूप से बढ़ेगी। इस आदिम जनजाति की कम हो रही औसत आयु को लेकर उत्तराखंड हाईकोर्ट ने भी चिंता जाहिर की है। ये लोग पुराने समय से ही यहां पर घनघोर जंगलों के बीच पर्वतीय गुफाओं को आश्रय बनाकर, कंदमूल एवं शिकार कर जीते आ रहे हैं। राजकिरात के नाम से जाने जाने वाले ये गुहाश्रयी लोग कभी इस क्षेत्र के अधिपति हुआ करते थे। इसका संकेत वाराही संहिता के उन प्रकरण में मिलता है, जिसमें अमरवन तथा चीड़ा के मध्यस्थ क्षेत्र में राज्य किरातों की स्थिति बताई गई है उत्तराखंड का कमजोर होता आदिवासी समुदाय वनरावत , जो हमेशा बाकी दुनिया से कटा रहता था, को अपनी आवाज नैनीताल हाई कोर्ट में मिली है।
कोर्ट ने राज्य सरकार और केंद्र से सवाल किया कि समुदाय को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों से क्यों वंचित रखा गया है। नैनीताल हाई कोर्ट ने बुधवार को केंद्र और उत्तराखंड सरकार से पूछा कि उधमसिंह नगर, चंपावत और पिथौरागढ़ जिलों के वन क्षेत्रों में बमुश्किल 850 सदस्यों वाली यह आदिवासी आबादी दशकों तक जन कल्याण योजनाओं से अछूती क्यों रही। कुछ दिन पहले जिला विधिक सेवा प्राधिकरण पिथौरागढ़ ने वनरावत आदिवासियों का सर्वे किया था। जिसके बाद इस रिपोर्ट के जरिए उत्तराखंड स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी को कई बातों का पता लगा हैं। उन्होंने मामले में की गंभीरता को देखते हुए कोर्ट में इस मामले को दर्ज कराया। इस याचिका में बताया गया की इन आदिवासियों का मुख्यधारा से कोई भी संपर्क नहीं है। इसके अलावा वनरावत जनजाति कोई भी मूलभूत सुविधाओं का लाभ नहीं उठाती।
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वनरावत आदिवासी उत्तराखंड के तीन जिले पिथौरागढ़, चम्पावत और उधम सिंह नगर में रहते हैं। साथ ही इनका मुख्यधारा से कोई भी संपर्क नहीं है इन आदिवासियों की जनसंख्या 850 है। इसका मतलब की यह आदिवासी समुदाय लुप्त होने की कगार पर है।इसके अलावा यह किसी भी मूलभूत सुविधाएं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, बिजली और सड़क का लाभ नहीं उठाते हैं। साथ ही इन्हें सरकार की कोई भी हेल्थ केयर योजनाओं के साथ अन्य किसी भी योजना का लाभ नहीं मिलता. इसलिए इनकी औसत आयु 55 वर्ष ही रह गई है वहीं पूरे देश की औसत आयु 70.19 वर्ष है।
रिपोर्ट के मुताबिक इन आदिवासियों के लिए शिक्षा तो बहुत दूर की बात है इन्हें सही तरीके से चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिल पा रही है।पृथक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण एक पृथक वर्ग के रूप में माना जाता है। इनकी प्रजातीयता एवं जातीयता के विषय में इतिहासज्ञ, नृविज्ञानी एवं समाजशात्री एकमत नहीं हैं। कोई भाषा के आधार पर इनका संबंध आग्नेय (मुंडा) परिवार आए मानता है तो कोई राजकिरात कहे जाने के कारण (रावत, राउत, रौत) कहते हैं।
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फलतः इनके संबंध में प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार इन्हें अस्कोट के रजवार शासकों के द्वारा इस क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने से पूर्व तक इस क्षेत्र पर इस वनरौतों का अधिकार था। किंतु रजवारों द्वारा इस क्षेत्र को अधिकृत करने के बाद या तो ये स्वयं इस क्षेत्र को छोड़कर जंगलों में चले गए या इन्हें खदेड़ दिया गया। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी यहां से 20 से 25 किलोमीटर की दूरी पर है। अगर सरकार ने जल्द ही कोई एक्शन नहीं लिया तो हो सकता है की उत्तराखंड की यह जनजाति लुप्त न हो जाए..
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )