हिमालय (Himalayas) के लिए खतरा हैं ग्लेशियरों का सिकुड़ना व कम होना - Mukhyadhara

हिमालय (Himalayas) के लिए खतरा हैं ग्लेशियरों का सिकुड़ना व कम होना

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हिमालय (Himalayas) के लिए खतरा हैं ग्लेशियरों का सिकुड़ना व कम होना

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

जलवायु परिवर्तन की मानीटरिंग के लिए हिमालय प्राकृतिक प्रयोगशाला है। जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमालय का तापमान 1991 से 2014 तक 0.11 प्रतिशत बढ़ा है। शोध अध्ययनों के अनुसार भविष्य में सर्दियों में हिमालय का तापमान दो से 3.5 डिग्री सेल्सियस व गर्मियों में 1.9 डिग्री सेल्सियस से 3.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। हिमालय में छह हजार मीटर ऊंचाई की करीब सौ चोटियां जबकि करीब 50
हजार ग्लेशियर हैं। हिमालय दुनिया में 240 मिलियन आबादी को पानी व शुद्ध हवा देता है। निष्कर्ष निकाला है कि हिमालय क्षेत्र में हो रहे परिवर्तन व उनके प्रभावों की सतत निगरानी की सख्त आवश्यकता है।लाखों लोग हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लाभार्थी हैं। हिमालय पर्वतमाला पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में म्यांमार तक पाकिस्तान, भारत, चीन, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश से गुजरते हुए आठ से अधिक देशों तक फैली है। जलवायु परिवर्तन इस क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है।

हिमालय में बर्फ, ग्लेशियर की गतिशीलता की स्पष्ट समझ सीमित है। सामाजिक-राजनीतिक रूप से, यह क्षेत्र सीमा विवादों से घिरा हुआ है।
क्षेत्रीय अनुसंधान कार्यक्रमों के लिए अंतरराष्ट्रीय सहायता की आवश्यकता है। क्षेत्र में स्थिरता के लिए अनुसंधान और प्रबंधन दोनों परिणामों में सीमा-पार सहयोग को लागू किया जाना चाहिए। हिमालय में राजनीतिक और प्राकृतिक संसाधन स्थिरता दोनों को प्राप्त करने में जलवायु परिवर्तन की गतिशीलता, प्रवृत्तियों और प्रभावों और इसके महत्व के अध्ययन और निगरानी के दृष्टिकोण को रेखांकित किया जाना चाहिए।

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हिमालय के आठ देशों को इस दिशा में समन्वयक के साथ प्रोग्राम बनाकर अध्ययन की सख्त जरूरत है।शोध के अनुसार हिमालय अनेक खतरों का सामना कर रहा है। सबसे बड़ा खतरा ग्लेशियरों का सिकुड़ना व कम होना है। जिससे भविष्य में जलापूर्ति के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। हिमालयी क्षेत्र में वनों की कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, अवैध शिकार, कृषि संस्कृति व आनुवांशिक संसाधनों की हानि, मानव वन्य जीव संघर्ष आदि बढ़े खतरे के रूप में उभर रहे हैं। इस वजह से मिट़्टी का क्षरण हो रहा है शोध पत्र के अनुसार हिमालयी पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए संसाधनों का अत्यधिक दोहन गंभीर चिंता बन रहा है। मसलन ईंधन की लकड़ी, वाणिज्यिक इमारती लकड़ी के लिए झाड़ियों व जंगलों का दोहन, गैर इमारती वन उत्पादों का अत्यधिक दोहन या अत्यधिक खनन, औषधीय पौधों की अवैध कटाई से खतरा लगातार बढ़ रहा है।

वन्य जीवों के शिकार से हिमालयी पारिस्थितिकीय तंत्र को खतरा है। हिमालयी क्षेत्र में बाघ, गैंडा, कस्तूरी मृग, लाल पांडा का अवैध शिकार पूरे हिमालयी क्षेत्र में व्यापक रूप से फैला हुआ है। हिमालयी क्षेत्र में वनस्पतियों की विशेष प्रजातियां का अस्तित्व खतरे में है। शोध के अनुसार हिमालय जलवायु परिवर्तन के लिए अत्यधिक संवेदनशील है। इस क्षेत्र में वार्षिक औसत सतह का तापमान बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघलने से यह 25 प्रतिशत प्रभावित होता है। ग्लेशियरों के सिकुड़ने से मानवता के लिए भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं। चीनी विज्ञानी के शोध का
हवाला देते हुए बताया है कि तिब्बती पठार के ग्लेशियर 1995 से 2035 तक पांच लाख किमी तक सिकुड़ने की संभावना है।

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सरकार ने माना है कि ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों के बहाव में अंतर तो आएगा ही. साथ ही कई तरह की आपदाएं आएंगी। हिमनद झीलें, ग्लेशियर के पिघलने और उसके निकट इस पानी के जमा होने से बनती हैं। हिमनद झील बाढ़ तब आती है, जब ग्लेशियर के पिघलने से अचानक पानी उस झील से बाहर आता है। इसके परिणामस्वरूप निचले इलाके में अचानक बाढ़ आ जाती है। यह बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के लोगों और पर्यावरण, दोनों के लिए बेहद विनाशकारी और खतरनाक हो सकती है। सूत्र ने कहा कि चूंकि हिमनद झीलें दूरदराज और ऊंचाई वाले इलाकों में स्थित हैं, ऐसे में जमीनी सर्वेक्षण करना चुनौतीपूर्ण काम है। इसलिए इस कार्य में विशेषज्ञ दल की सहायता ली जाएगी।

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उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण प्रदेश में कई बार आपदा जैसे हालात बन जाते हैं। यही वजह है कि उत्तराखंड सरकार तमाम ऐतिहात भी बरत रही है।ताकि भविष्य की चुनौतियों को पार पाया जा सके लेकिन दूसरी तरफ वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन एक
गंभीर समस्या बन रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण उच्च हिमालय क्षेत्रों में समय से बर्फबारी और बारिश न होने से तापमान बढ़ रहा है। इससे ग्लेशियर भी लगातार पिघल रहे हैं और ग्लेशियर झील की संख्या और उनका आकार भी बढ़ रहा है। लिहाजा ये भविष्य के लिए काफी खतरनाक साबित हो सकते हैं। लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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