स्वराज का दृष्टिकोण उत्तराखंड के विकास (Development of Uttarakhand) हेतु क्यों आवश्यक है?
दीप चन्द्र पंत
पर्वतीय राज्य का बहुत बड़ा भूभाग अत्यंत दुर्गम और विकट परिस्थितियों से घिरा हुआ है। किसी चयनित जन प्रतिनिधि, जो विकास के लिए उत्तरदाई माना जा सकता है अथवा सरकार द्वारा नियुक्त कोई भी अधिकारी न तो उन क्षेत्रों तक पहुंच पाता है और दुर्गमता के कारण जाना ही नहीं चाहता है। बड़े भूखंड में जनसंख्या का घनत्व इतना कम होता है कि सरकार द्वारा तैनात कर्मचारी यां अधिकारी वहां रहने वाले लोगों से उसकी पहुंच हो ही नहीं पाती और आवश्यकता की कई वर्तमान सुविधाओं से वह वंचित ही रह जाता है।
किसी उत्तरदाई जनप्रतिनिधि, सरकारी अधिकारी या कर्मचारी का इन दुर्गम इलाकों तक पहुंच बात कर पाना ही इन लोगों का भाग्य होता है, जिसे वे जनप्रतिनिधि, सरकारी अधिकारी या कर्मचारी भी एक थकान भरा सफर मानकर भूल जाने में ही भलाई समझते हैं। व्यय भी मानकों की तुलना में बहुत होती है। वहां पहुंचते होंगे तो वही लोग, जो उपलब्ध संसाधनों से लाभ अर्जित करने या दल विशेष के लोग कभी कभार होने वाले चुनावों में मूर्ख बनाकर उनका वोट हासिल करने। एक बार वहीं का आदमी भी सुविधाओं से भरे किसी दूसरे क्षेत्र में चले जाने पर फिर वहां लौटना नहीं चाहता। सुविधाओं का स्तर हमेशा तुलनात्मक रूप से बदलता रहता है तथा वर्तमान स्वरूप में सुविधाओं के विकास प्राकृतिक स्थितियों के साथ जनसंख्यकीय घनत्व की भी अपनी भूमिका होती है। ऐसे में तो विरलतम जनसंख्या घनत्व और दूरस्थ गांवों के आदमी तो आवश्यक सुविधाओं को तरसते रह सकते हैं।
स्वराज का दृष्टिकोण ऐसे में लोगों के समूह को स्थानीय संसाधनों के समानता पूर्वक समुचित समुपयोग, विकास की मूलभूत संस्थाओं का गठन और समस्याओं के समाधान की दिशा में बढ़ने की दिशा में सही कदम हो सकता है। हैं तो सारे मनुष्य होमो सेपियंस नामक जीव प्रजाति के ही जीव। किसी पर सुर्खाब के पर तो लगे नहीं हैं। यह तो समय और परिस्थिति के कारण संभव होता है कि किसी को औरों पर हावी होने का मौका मिल जाता है। ऐसे में पृथक राज्य बनने पर यदि स्वराज्य की अवधारणा की दिशा में बढ़ा जाए तो सचमुच पृथक राज्य के गठन का औचित्य सिद्ध होगा तथा विकास की मुख्यधारा में न आ सके लोगों को भी विकास की धारा से जुड़ने का मौका मिलेगा।
(लेखक भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं।)