मुंबई में सीए जैसा प्रतिष्ठित पेशा और जाने-माने उद्योगपति मोहन काला मायानगरी से लौटकर अपनी मातृभूमि की सेवा करने के लिए वापस उत्तराखंड के श्रीनगर क्षेत्र में लौट आए हैं। उनका कहना है कि जो सुकून अपनी मातृभूमि की सेवा करने में है, वह कहीं और नहीं। कोरोनाकाल में उन्होंने अपनी सामर्थ्य के अनुसार जरूरतमंद क्षेत्रवासियों की जो सेवा की है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। यही कारण है कि उनकी छवि क्षेत्र में एक जनसेवक के रूप में उभरी है। उन्होंने अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम और सेवा करने का लक्ष्य निर्धारित कर इसे अपनी कलम के माध्यम से बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया है। आइए उन्हीं के शब्दों में ज्यों के त्यों आपको भी रूबरू करवाते हैं:-
श्रीनगर। 5 अगस्त 2020 का दिन देश और दुनिया के इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए अजर-अमर हो गया है। विश्वभर में भगवान श्रीराम के मंदिर हैं, लेकिन जहां पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मभूमि है, वहां भगवान श्रीराम के मंदिर को लेकर विवाद चल रहा था। 5 अगस्त 2020 को इस विवाद का पटाक्षेप भी हो गया और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर का भूमिपूजन हो गया।
जन्मभूमि के प्रति हर किसी की आस्था होती है। यह मातृभूमि के प्रति लगाव ही तो है कि हर साल फीजी, मारीशस, त्रिनिदाद और टोबेगो से हजारों की तादाद में विदेशी लोग भारत भ्रमण पर आते हैं। वजह साफ है कि इन लोगों में से कइयों की जन्मभूमि रही है भारत तो कइयों के पुरखों का नाता रहा है भारत से।
और जब बात उत्तराखंड के पहाड़ के लोगों की आती है तो फिर पहाड़ी मानुष का पहाड़ प्रेम हर पल, हर दिन छलक उठता है। हम पहाड़ के लोगों का अपनी जन्मभूमि के प्रति विशेष लगाव रहता है। खुद मैं शरीर से तो मुबंई, दिल्ली और देहरादून और कहीं भी रहूं, लेकिन मन हमेशा पहाड़ के धार और खाल में ही विचरता रहता है।
आपमें से ज्यादातर लोग तो जानते ही हैं कि मैं गऱीबी में अपने गांव में पढ़ा लिखा और फिर बीते कुछ सालों से महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई मेरी कर्मभूमि रही है। जब महाराष्ट्र और आमची मुंबई जैसे माहौल में मुझ जैसे पहाड़ी मानुष ने अगर थोड़ा बहुत काम धंधा जमाया है तो उसके पीछे हिमालय की अडिगता और सागर की विराटता दोनों का ही आशीर्वाद है। जिस तरह से पहाड़ के प्रति मेरे हृदय में प्रेम है तो उसी तरह से हिन्दुस्तान के हर प्रांत और हर व्यक्ति के प्रति मेरे दिल में आदर और सम्मान का भाव है। हां यहां पर एक बात मैं बड़ी साफगोई से कहना पसंद करूंगा कि पहाड़ की बात आते ही मेरे चेहरे की चमक कुछ थोड़ी ज्यादा ही बढ़ जाती है। ऐसा मेरा भी मानना है और मुझे करीब से जानना वाले गैर उत्तराखंडी समाज के लोग भी ऐसा कहते हैं, भले ही मजाक में कहते होंगे या फिर सच में, ये तो वो लोग ही बता सकते हैं।
हाल ही में दिल्ली में एक पत्रकार ने मुझसे सवाल किया कि आप तो मुबंई के एक स्थापित सीए और बिजनेसमेन हैं तो फिर आप आए दिन पहाड़ के इतने फेरे क्यों लगाते हैं भला? बिना सोचे समझे मैंने जो जवाब दिया। वह यह था कि, ”एक मां का बच्चा महीनों-महीनों, साल-साल देश और दुनियाभर में चाहे कहीं भी घूम ले, लेकिन जो सुकून उसे अपनी मां की गोद में मिलता है, वो दुनियाभर में कहीं नसीब नहीं होता है। इसलिए पहाड़ मेरी मां है, पहाड़ मेरा पिता और पहाड़ ही मेरा परमेश्वर भी है और जो सुख मुझे वृंदावन में चौरासी कोस की परिक्रमा करके मिलता है। कुछ-कुछ वैसा ही सुख मुझे पहाड़ परिक्रमा से भी मिलता है। मैंने अगर अपनी कर्मभूमि से कर्मठता सीखी है तो अपनी जन्मभूमि से विनम्रता,त्याग और सच्चाई के संस्कार हासिल किए हैं।”
अपने पहाड़ की खूबियां अगर आपको गिनाने लग जाऊं तो फिर फेहरिस्त बड़ी लंबी हो जाएगी। आज भी मेरे पहाड़ में असंख्य ऐसे बुजुर्ग दंपत्ति मिल जाएंगे, जिनके बेटे-बहू, नाती-पोते, आपको नगरों-महानगरों में वेल सेटल्ड मिल जाएंगे, लेकिन ये बुजुर्ग लोग स्थायी तौर पर अपनी जन्मभूमि नहीं छोडऩा चाहते हैं। भले ही कभी-कभार ये लोग अपने बच्चों के पास मैदानों में आ जाएंगे, लेकिन फिर पहाड़ ही चले जाते हैं। पहाड़ के संघर्षमयी जीवन में जो सुख और शांति हमारे लोगों को मिलती है, वो भला महानगरों के वातानुकूलित कमरों में कहां? जन्मभूमि के प्रति लगाव क्या चीज होती है, यह पूछिए उस नवविवाहिता से, जिसे मायके की याद आने पर अपने मायके की चिडिय़ा भी बहुत भाती है, घुघुती भी बहुत याद आती है। मैंने अक्सर कई बुजुर्ग महिलाओं को यह कहते सुना है कि नहीं जाना है मुझे बहू-बेटों के साथ परदेस। मेरी पालकी मतलब दुल्हन की डोली इसी गांव में आई है, इसलिए मेरी सांग यानिकि अर्थी भी इसी गांव से निकलनी चाहिए। मैंने कई बुजुर्ग लोगों को यह कहते हुए सुना है कि बेटा अब तो हम झड़ते हुए पत्ते हैं, न जाने कब गिर जाएं, लेकिन एक ही इच्छा बाकी है कि मुझे उसी पैतृक घाट में अग्नि के सुपुर्द कर देना जहां मेरे बाप, दादा और परदादा सोए हुए हैं। मुझे रख देना उसी पितृकूडी में जहां अपने पितरों को हम रखते आए हैं।
भगवान श्रीराम जी की जन्मभूमि में प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर के भूमिपूजन ने मुझे अपनी जन्मभूमि की याद में डुबो दिया है, रुला दिया है। मन के जो उदगार थे उन्हें बहने से मैं थाम नहीं सका। अब तमाम रामभक्तों के पुरखों की आत्मा को इस बात की शांति भी मिलेगी कि राम लला की जन्मभूमि पर प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर बनाने का संकल्प फलीभूत हुआ है।
रामायण में एक प्रसंग आता है कि भगवान श्रीराम ने जब लंकापति रावण का वध कर लिया तो फिर अनुज लक्ष्मण को आदेश दिया कि वो विधि-विधान से विभीषण का राजतिलक करें और लंका जाकर उन्हें लंकापति के सिंहासन पर विराजमान करें। अग्रज के आदेश का पालन करते हुए लक्ष्मण जी विभीषण को लंका का महाराज के पद पर विराजमान कर देते हैं। लेकिन लंका का वैभव, लंका की सुंदरता पर लक्ष्मण जी रीझ जाते हैं।
वापस शिविर में आकर विश्राम के वक्त प्रभु श्रीराम के पांव दबाते हुए लक्ष्मण जी अपनी इच्छा श्रीराम को बताते हैं कि अगर आप अनुमति दें तो मैं कुछ दिन लंका में निवास कर लूं।
लक्ष्मण का लंका नगरी के प्रति आकर्षण देखकर श्रीराम बोले, लक्ष्मण, यह ठीक है कि लंका सचमुच स्वर्ग के समान आकर्षक है, प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है, किंतु यह ध्यान रखना कि अपनी मातृभूमि अयोध्या तो तीनों लोकों से कहीं अधिक सुंदर है।
जहां मानव जन्म लेता है, वहां की मिट्टी की सुगंध की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। लक्ष्मण अपनी जन्मभूमि अयोध्या के महत्व को समझ गए। उन्होंने कहा, प्रभु वास्तव में हमारी अयोध्या तीनों लोकों से न्यारी है।
(लेखक मोहन काला प्रतिष्ठित सी.ए. और जाने-माने उद्योगपति हैं।)