सुरेश भाई
कोरोना काल में लोग घरों में लॉकडाउन है। चारो ओर कोरोना संक्रमण के कारण हजारों मौतें हो रही हैं। गाँव-2 में इस बीमारी ने अपने पैर पसार दिये हैं। चिकित्सा व्यवस्था के अभाव में दूर-दराज में स्थित गाँव के लोग दम तोड़ रहे हैं। गाँव में जीवन गंवाने वाले लोगो की कोई पॉजिटिव व निगेटिव रिपोर्ट भी कहाँ से आयेगी?
लेकिन इस विषम स्थिति में भी उन किसानों व खेतिहर मजदूरों में बहुत कुछ दम है जो हर रोज पसीना बहाकर अपनी खेती-किसानी का काम दिन भर पूरा करके ही चैन की साँस लेते हैं। ऐसी जटिल व जानलेवा परिस्थिति के बीच पर्यावरण की बहुत बर्बादी हो रही है। पहाड़ों में लॉकडाउन के समय जंगलों की हजामत बड़ी तेजी से चल रही है। वन कटान की यह स्थिति उत्तराखण्ड हिमालय के किसी भी वनरेंज में जाकर देखी जा सकती है। यहाँ वनों की व्यावसायिक कटाई बड़े पैमाने पर हो रही है।
वैसे तो नियमानुसार किसी भी वन क्षेत्र में जब पेड़ सूख जाते है या टूटकर गिर जाते है तो इनके निस्तारण के लिये स्थानीय पंचायतों से राय मशविरा करके वन विभाग के द्वारा वन निगम को टूटे व उखड़े पेड़ो के स्लिपर बनाकर राजस्व के रूप में कमाई कर सकते हैं, लेकिन यहाँ का नजारा तो बिल्कुल भिन्न है। कोई भी टिहरी, उत्तरकाशी के ऊँचाई वाले वन क्षेत्र जैसे अंयारखाल, हरून्ता, वयाली, भिलंग, गंगा और यमुना के जलग्रहण क्षेत्र और सभी सहायक नदियों के सिरहाने की बची खुची जैव विविधता को देखने जायेंगे तो कई हरे पेड़ काटकर जमीन में गिरे हुये हैं। यदि इन्हे रातों-रात सड़क मार्ग के द्वारा रायवाला या हल्द्वानी के डिपों में ट्रकों पर लादकर भेजा गया है तो भी वहाँ हरे पेड़ों के ठूंठ गवाही दे रहे हैं।
वन विभाग जब वन निगम को सूखे पेड़ों की कटाई व छंटाई करने की स्वीकृति देता है तो इसके संबंधित की कार्यवाहियां पूरी पारदर्षिता से दिखाई देगी, परन्तु जमीनी हकीकत का वन विभाग तभी मुआयना करता है, जब जनता की ओर से विरोध के स्वर उठने लगते हैं।
उत्तराखण्ड में वन निगम की गतिविधि तो वनों को काटों और बेचों के सिद्धान्त पर ही अडिग है। कई बार जाँच का सामना करते हुये इनके कई अधिकारी कर्मचारी निलंबित भी होते रहते हैं। इसके बाद भी सूखे पेड़ों के नाम पर हरे पेड़ों की कटाई करने में कोई कमी नही लाते हैं। इनके इन हौंसलों के पीछे जिनका समर्थन है, वे ही असल रूप में वनों के बीच हरे पेड़ों की निर्मम कटाई और वनाग्नि के दोषी है।
यदि चर्चा ईमानदारी से आगे बढ़ाई जाय तो वनों मे लगाई जा रही आग के पीछे का कारण भी समझा जा सकता है। यह स्थिति केवल उत्तराखण्ड में ही नही, बल्कि देष में जहाँ-2 पर वन निगम जैसी व्यवस्था है, वहाँ वनों से पैसे कमाने के लिये विनाष का अंतहीन सिलसिला जारी है।
चिपको आन्दोलन ने 70-80 के दषक में वनों की व्यावसायिक कटाई को रोकने के लिये आरी-कुल्हाड़ी लेकर जंगल में जाने वाले लोगों को रोका था। नब्बे के दशक में भी रक्षासूत्र आन्दोलन ने सन् 1994 से कई स्थानों पर वन कटान को सफलता पूर्वक रोका है।
अब पेड़ों की कटाई आरी-कुल्हाड़ी से नही हो रही है, इसके स्थान पर कटर मषीन का इष्तेमाल हो रहा है, जिसके द्वारा एक ही दिन में दर्जनों पेड़ काटकर जमीन में गिराये जा सकते हैं। स्थिति ऐसी है कि इसका विरोध करने वाले आन्दोलनकारी जंगल में पहुँचते-2 तब तक कई पेड़ कटर मषीन से काटे जा सकते हैं। जिसके बाद वन निगम का काम बहुत आसान हो जाता है। वे 12-12 फीट के स्लिपर बनाकर जंगल के रास्ते में खच्चरों की पीठ पर डालकर मोटर मार्ग तक पहुँचा रहे है। जिसे बिना किसी जाँच-पड़ताल के कई ट्रकों में भर-भरकर लकड़ी के डिपो तक पहुँचाने में बहुत अधिक समय नहीं लगता है।
पेड़ों की कटाई का राष्ता साफ करने के लिये वनों में लग रही आग की महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि आग के कारण झुलसाने वाली वन संपदा का कटान कोई नही रोक सकता है। इस नाम पर जंगल में जो हरे पेड़ होगें वह भी कटर मषीन के चुंगल से नही बच पा रहे है। देष के जिन राज्यों में जंगल हर वर्ष जल रहे है, वहाँ पर वनों को पर्यावरण न्याय दिलाने हेतु निष्पक्ष न्यायिक जाँच की जरूरत है। स्थानीय लोगों पर जंगल जलाने के आरोप भी लगते है, जिसके उदाहरण गिने-चुने है। लेकिन हरे पेड़ों के कटान को सरल व सुगम बनाने का काम तो वनों में लग रही आग के कारण ही है।
वनों की इस दुर्दशा के साथ ही नदियों में बेहिचक शवों के ढेर नजर आ रहे है। गंगा की ऐसी हालात देखी जा रही है कि उद्गम से गंगा सागर के बीच शव तैरने के मामले भी सामने आए हैं। गंदगी तटों पर जमा हो रही है। इसमें बीमारी बढ़ने का खतरा है।
( लेखक उत्तराखंड के प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं। )