चिंता : उत्तराखंड में सिकुड़ रहे ग्लेशियर (Glacier)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालय रेंज में ब्लैक कार्बन की मात्रा में काफी वृद्धि हो रही है। इसकी मात्रा 11800 नैनोग्राम/घन मीटरदर्ज की गई।सामान्य रूप यह मात्रा लगभग एक हजार नैनोग्राम होनी चाहिए। तापमान बढ़ने से ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने का सिलसिला पहले से ही जारी है। यह कार्बन संवेदनशील ग्लेशियरों के लिए अधिक घातक साबित होगा। विश्व में तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा और सीधा प्रभाव हिमालय पर पड़ रहा है। देशभर में 37465 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में ग्लेशियर फैले हैं। इनमें से 61.8 फीसदी जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में हैं। इसके अलावा 2735 ग्लेशियर हिमाचल में, 968 उत्तराखंड में, 449 सिक्किम में और162 अरुणाचल प्रदेश में हैं। इन ग्लेशियरों पर करीब 142 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ है।उत्तराखंड के हिमालयी हिस्से में नौ सौ ग्लेशियर व तीन सौ छोटे ग्लेशियर हैं। बढ़ते तापमान से ग्लेशियरों पर संकट है। जो सिकुड़ने के साथ खिसक भी रहे हैं। हिमालय के हिमनदों के पिघलने व सिकुड़ने की गति सर्वाधिक है। हिमालय क्षेत्र में हजारों ग्लेशियर विलुप्त हो गए हैं। जिससे इन ग्लेशियरों के आसपास की ग्रामीण आजीविका, जलापूर्ति, खेती आदि गतिविधियों के साथ ही जलविद्युत परियोजनाएं, सिंचाई के साधन, पारंपरिक घराट का संचालन भी प्रभावित हो रहा है।उत्तराखंड में गंगोत्री, मिलम, पिंडारी, सतोपंथ आदि ग्लेशियर हर साल करीब 15 से 22 मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था एवं आजीविका पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
यह भी पढें : चिंता: पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है प्लास्टिक (Plastic)
जलवायु परिवर्तन व हिमालय पर दशकों से शोध के अनुसार ग्लेशियर पिघलने से उत्तर भारत के साथ ही दक्षिण एशिया के देशों में रह रही दुनिया की करीब 44 प्रतिशत आबादी प्रभावित है।अगले कुछ सालों में पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में पीने के पानी, स्वास्थ्य, खेती पर इसका प्रभाव पड़ना तय है। उन्होंने बताया कि गंगा नदी में ग्लेशियर से करीब 20 प्रतिशत पानी की आपूर्ति होती है लेकिन मध्य हिमालय के झरनों, जलस्रोतों, जंगलों से निकलने वाले धारों तथा गैर हिमानी नदियों से ८० प्रतिशत जलापूर्ति होती हैपिछले सौ साल में हिमालय क्षेत्र का तापमान 0.86 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है, जबकि 1970 से 2020 तक हर दशक में तापमान में बढ़ोत्तरी 0.46 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया है। इसका प्रभाव हिमनदों पर पड़ रहा है। प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता १२५० घनमीटर है, जबकि होनी डेढ़ हजार प्रतिघन मीटर होनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के अनुसार प्रति व्यक्ति एक हजार घनमीटर पानी की आपूर्ति जिस देश में होगी, उसको संकटग्रस्त श्रेणी में माना जाएगा।
यह भी पढें : Kafal: किसी दवा से कम नहीं है काफल
उन्होंने कहा कि हिमालय से निकलने वाली गंगा के साथ ही ब्रहमपुत्र, सिंधू नदी पर इसका प्रभाव पड़ रहा है।जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नैनीताल जिले की ग्रामीण क्षेत्रों में पड़ने लगा है। जलस्रोतों में या तो पानी कम हो रहा है, या सूख रहे हैं। इन प्रभावों के अध्ययन के लिए अब ब्रिटन की न्यू कैशल यूनिवर्सिटी के सहयोग से रामगढ़ क्षेत्र में चार स्थानों पर आटोमेटिक मौसम मापी यंत्र स्थापित कर दिए गए हैं। इन यंत्रों में सेंसर लगा है।इन यंत्रों से हर घंटे तापमान, वर्षा, वायु में आर्द्रता का ब्यौरा कंप्यूटर से मिल जाएगा। जमीन के अंदर मिट्टी की आर्द्रता का भी पता लगेगा। अब तक मैनुअल रिकार्ड मिलता था, जो अब पूरी तरह एडवांस तकनीकी पर आधारित है। अब तक चिराग संस्था की ओर से बताई दो जगहों, सतबूंगा में हिमालय आश्रम में यह यंत्र लगाए गए हैं। वाडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों के ताजा
शोध में खुलासा हुआ है कि वर्ष 1935 से2022 के बीच 87 साल में देश के बड़े ग्लेशियरों में से एक उत्तराखंड का गंगोत्री ग्लेशियर 1.7 किलोमीटर पीछे खिसक गया है। देश के हिमालयी राज्यों में 9597 ग्लेशियर हैं और कमोबेश यही हाल हिमालयी राज्यों में स्थितग्लेशियरों में से ज्यादातर का है। वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर सिमटने के कारणों का भी खुलासा किया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियरों में पहले सिर्फ बर्फबारी होती थी अब बारिश भी होने लगी है, जिससे ग्लेशियरों को नुकसान हो रहा है। पृथ्वी का औसत तापमान बढऩे के कारण भी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसके अलावा संवेदनशील क्षेत्रों में इनसानी दखल बढऩे के कारण और ग्लोबल वार्मिंग भी हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की भी प्रमुख वजह है।वाडिया इंस्टीच्यूट के वैज्ञानिक ने कहा कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बारिश का नया पैटर्न दिख रहा है। पहले ग्लेशियर में सिर्फ बर्फबारी होती थी, लेकिन अब वहां बारिश होने लगी है, जिससे बर्फ के पिघलने की रफ्तार बढ़ गई है। गौर हो कि आर्कटिक और अंटार्कटिका क्षेत्र से बाहर दुनिया का सबसे बड़ा ग्लेशियर सियाचिन है। इसके अलावा गंगोत्री ग्लेशियर, जेमू ग्लेशियर, बड़ा सीकरी, पिंडारी, काफनी, सुंदरढूंगा, अलम, नामिक, मिलन, चौराबाड़ी, हरिपर्वत, पराक्विक, नूनकुन आदि देश के कुछ बड़े ग्लेशियर हैं। जब ग्लेशियर पीछे खिसके तो उनकी जगह नदियों ने ले ली। ग्लेशियर की बर्फ पिघली तो हिमालयी क्षेत्र में बड़ी संख्या में छोटी-छोटी नदियां पैदा हो गईं। गंगोत्री ग्लेशियर से गंगा निकलती है। गौमुख ग्लेशियर से गंगा निकलती है लेकिन इसके पिघलने से गंगा का अस्तित्व भी खतरे में है। गंगा नदी करोड़ों हिन्दुओं के लिए आस्था को केंद्र है। वह उनके लिए केवल नदी नहीं बल्कि एक संस्कृति है, जो सदियों से सदानीरा बहते हुए मनुष्यों के पापों को धोती आ रही है।
गंगोत्री ग्लेशियर गंगा नदी का उद्गम स्थल है। हजारों श्रद्धालु गंगोत्री दर्शन के बाद प्रति वर्ष गोमुख पहुंचते हैं। गोमुख से ही गंगा की प्रमुख सहायक नदी भागीरथी नदी निकलती है ग्लेशियरों के पिघलने की वजह को लेकर वैज्ञानिकों के भले अलग-अलग मत हों किन्तु भारत का दूसरा सबसे बड़ा और गंगा को जीवन देने वाला गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है। ग्लोबल वार्मिंग, बदलता मौसम चक्र जैसी वजहों से ग्लेशियर का गोमुख वाला हिस्सा तेजी से पीछे खिसक रहा है। एक अध्ययन के अनुसार गंगोत्री ग्लेशियर कई मीटर प्रतिवर्ष पीछे खिसक रहा है। हालांकि इसकी चौड़ाई और मोटाई में पिघलने की रफ्तार तथा सहायक ग्लेशियरों की स्थिति को लेकर अभी तक कोई आधिकारिक अध्ययन सामने नहीं आया है। ग्लोबल वार्मिंग से पूरे हिमालय क्षेत्र के तापमान में तेज़ी से बदलाव हो रहा है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल से लेकर उत्तराखंड तक में हो रहे अलग-अलग शोध इसकी पुष्टि कर रहे हैं। हवा में बदलाव का असर ग्लेशियरों की सेहत पर भी पड़ रहा है।
ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ी है, जिससे वे सिकुड़ रहे हैं। आलम यह है कि हिमालय के कई ग्लेशियर हर साल दस से बारह मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। जहां तक गंगोत्री ग्लेशियर की बात है, तो यह ग्लेशियर हर साल अठारह मीटर पीछे खिसक रहा है। ऐसे में इन्हें बचाने के लिए जल्द प्रभावी उपाय करने की ज़रूरत है ताकि ग्लेशियर और पर्यावरण में हो रहे इस नकारात्मक बदलाव को रोका जा सके। यदि अब भी ऐसे उपाय न किए गए, तो पूरे देश के पर्यावरण पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। ग्लेशियरों को बचाने के लिए हमारे सामने ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती तो है ही, वहीं गलत मानवीय आदतें व नदियों और ग्लेशियर के प्रति बुरा व्यवहार भी एक बड़ी चुनौती है।जवाबदेही सुनिश्चित करने के साथ ही सूचना तंत्र को अधिक सशक्त किया जाए. ब्लैक कार्बन से सबसे ज्यादा खतरा गंगोत्री, मिलम, सुंदरढुंगा, नेवला और चिपा ग्लेशियरों को है क्योंकि ये कम ऊंचाई पर स्थित हैं. यह सारे ग्लेशियर ज्यादातर नदियों के स्रोत हैं. ऐसे में अगर सरकार ने जल्द ही कोई कदम नहीं उठाया तो हालात बेहद खराब होने वाले हैं. ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बता रही है कि हिमालय में कुछ भी ठीक नहीं है.लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।