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ओखली एक विरासत पहाड़ के हर घर के आंगन में नजर आने वाली?

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ओखली एक विरासत पहाड़ के हर घर के आंगन में नजर आने वाली?

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

दीपावली पर भैया दूज का त्यौहार भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है । भैया दूज पर बहनें अपने भाईयों को टीका अक्षत करने के बाद च्यूड़े सिर में रखकर उनके दीर्घायु और सुख समृद्धि की कामना करती हैं । भैया दूज पर परंपराओं को संजोने वाले गांवों में च्यूड़े का बड़ा महत्व है । अधिकांश गांवों में च्यूड़े तैयार करते समय सामूहिकता देखनी को मिलती है जो मातृशक्ति की एकता को प्रदर्शित करती है। च्यूडें तैयार
करने के लिए पहले ही धान को भिगोने के लिए रखा जाता है फिर इन्हें कई बार ओखली में कूटने पर तैयार होते हैं च्यूड़े। इन भिगे हुऐ धानों को पहले एक बर्तन में भूना जाता है और भूने हुए धानों को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में ओखली में डाला जाता है। कूटने के बाद इनसे चिपके हुए और स्वादिष्ट चावल (च्यूड़े) निकलते हैं। इन च्यूड़ों से ही भैयादूज के दिन बहनें अपने भाइयों की सुख समृद्धि की कामना करती हैं। इन च्यूड़ो को
तैयार करने में ओखल मूसल का उपयोग किया जाता इसके लिए सर्वप्रथम ओखल की साफ सफाई लिपाई आदि कार्य को अच्छी प्रकार से निबटा लिया जाता है।

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आजकल भले ही मशीनीकरण ने पाँव पसार लिये हों किन्तु गाँवों में आज भी महिलाओं द्वारा ओखल मूसल का उपयोग अन्न कूटने में किया जाता है। राने समय में पूरे गांव की एक संयुक्त छत के नीचे कई सारी ओखलियाँ हुआ करती थी आठ बाई छह के इन कमरों में एक से अधिक ओखल हुआ करते थे। इस कमरे को ‘ओखलसारी’कहा करते थे। ओखल उत्तराखंड के जन से बड़े गहरे रूप से जुड़ा है। ओखल को पत्थर के अलावा बांज या फ्ल्यांट की मजबूत लकड़ी से बनाया जाता है। पत्थर से बने ओखल में पत्थर का वजन 50-60 किलो होता है। जिसे डांसी
पत्थर कहते हैं ओखल का पत्थर चौकोर होता है जिसे किसी आँगन में नियत स्थान पर गाढ़ा जाता है। ओखली के चारों ओर पटाल बिछा दिये जाते हैं। ओखल ऊपर से चौड़ा और नीचे की ओर संकरा होता जाता है।जो कि सात से आठ इंच गहरा होता है। दिवाली में इसकी लिपाई पुताई की जाती है और इसके पास एक दीपक जलाया जाता है।

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कहा जाता है कि यह दीपक अपने पितरों के लिए जलाया जाता है। ओखल में कूटने के लिए एक लम्बी लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जिसे मूसल कहते हैं। मूसल साल या शीशम की लकड़ी का बना होता है। मूसल की गोलाई चार से छ्ह इंच होती है ओर लंबाई लगभग पाँच से सात फीट तक होती है। मूसल बीच में पतला होता है ताकि उसे पकड़ने में आसानी हो। मूसल के निचले सिरे पर लोहे के छल्ले लगे होते हैं. जिन्हें सोंपा या साम कहते हैं। इनसे भूसा निकालने में मदद मिलती है। ओखल में महिलायें छिल्के वाले अनाज और मसाले कूटती हैं। धान ओखल में कूटा जाने वाला एक प्रमुख अनाज है। महिलायें धान को ओखल में डालती हैं और मूसल से अनाज पर चोट करती है।जब मूसल की चोट से धान बाहर छलकता है तो उसे महिलाएं पैरों से फिर से ओखल में डालती हैं।

उत्तराखण्ड में धान को कूटकर खाज्जि, सिरौला, च्यूड़े आदि बनाये जाते हैं। पहाड़ में महिलाओं का जीवन हमेशा कष्टकर रहा है. च्यूड़े, खाज्जि जंगल में उनके भोजन के पुराने साथी रहे हैं। पुराने ज़माने में पहाड़ के घरों में सास का खूब दबदबा रहता था। परिवार में बहुओं की स्थिति बड़ी ही दयनीय हुआ करती थी। भर-पेट खाना तक बहुओं को नसीब न था। ऐसे में बहुएं धान को कूटते समय कुछ चावल छुपा कर रख लेती और जंगलों, खेतों में अपनी सहेलियों और साथियों के साथ यह चावल खाती इसे ही खाजा कहते थे। आज भी पहाड़ में भाई-दूज के त्यौहार के दिन बहिनें अपने भाई का सिर च्युड़े से पूजती हैं।

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उत्तराखंड में आज अधिकांश घरों में इसकी जगह पोहा प्रयोग में लाया जाता है।च्यूड़ा बनाने के लिए कच्चे धान को पहले तीन-चार दिन पानी में भिगो कर रखते हैं। फिर इसे भूनते हैं और साथ में ही इसे कूटते हैं। जब दो औरतें बारी-बारी से एक साथ ओखल में धान कूटती हैं तो इसे दोरसारी कहते हैं। मशीनों के आने से ओखल हमारे घरों से गायब हो गए हैं। गाँवों में सन् 2000 के बाद बने किसी घर में शायद ही किसी में
ओखल भी बनाया हो. आजकल भले ही बाजारों में मशीन से तैयार च्यूड़े मिल जाते हैं, लेकिन वास्तव में ओखल में तैयार च्यूड़े पवित्र माने जाते हैं और ये खाने में भी अत्यधिक स्वादिष्ट होते हैं। ओखली में तैयार च्यूड़े लंबे समय तक घर पर रखे जाएं तो खराब नहीं होते हैं।

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देवभूमि उत्तराखंड के गाँवों से घरों से बाहर रहने वालों के लिए भी च्यूड़े भेजे जाते हैं जो देवभूमि मातृभूमि से सदा उन्हें जोड़े रखते हैं। ये बहुत पौष्टिक भी होते हैं। कुछ स्थानों पर चावल को भिगोकर तिल के साथ पकाकर च्यूड़े तैयार किये जाते हैं ये पके च्यूड़े कहलाते हैं। गांवों में भैया दूज के त्यौहार को च्यूड़ा पर्व के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन नई दुल्हनें,नव दंपंति अपने मायके में जाकर च्यूड़ा पर्व मनाते हैं। बने हुये च्यूड़ो को आसपास में बांटा जाता है जो समाज में एकता व अखण्डता को दर्शाती हैं। भारतभूमि के हर त्यौहार कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य देते हैं परंपराऐं कुछ न कुछ अवश्य सिखलाती हैं। पहाड़ के गांवों में आज भी ओखली में च्यूड़े बनाने की परंपरा कायम हैपहले के समय में गांव के लोग ओखल में भरा पानी देखकर बारिश की मात्रा का अंदाजा लगाते थे कि लेकिन वक्त के साथ अब आंगन के ओखव सुने होने लगे हैं अब कुछ ही घरों में यह पाए जाते हैं।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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