जीत गई जिंदगी, मिली सफलता, उत्तराखंड को सबक और संदेश
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
ऑपरेशन सिलक्यारा की सफलता के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने राहत की सांस ली है। लेकिन सिलक्यारा सुरंग में 17 दिन तक फंसी 41 जिंदगियों को बचाने का यह अभियान दोनों सरकारों को सबक भी सिखा गया है। विशेष रूप से आपदाओं का अक्सर सामना करने वाले उत्तराखंड राज्य के लिए यह घटना कायदे से सबक सीखने वाली है। इस घटना ने बताया कि हमें भी सुरंगों के निर्माण के विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स और माइनर सुरंग एक्सपर्ट क्रिस कूपर सरीखे विशेषज्ञ तैयार करने होंगे। उत्तराखंड सरकार देश का पहला आपदा प्रबंधन मंत्रालय खोलने का श्रेय तो लेती है, लेकिन कई वर्ष बाद भी विशेषज्ञता, तकनीक और दक्ष मानव संसाधन के मामले में उतनी प्रगति नहीं हो पाई है।इस हादसे ने राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग की तैयारियों की कलई भी खोली है।
हादसे के बाद आपदा प्रबंधन विभाग इस पूरे अभियान में एक सहयोगी की भूमिका से आगे नहीं बढ़ पाया। केंद्र और उसकी एजेंसियों को ही मोर्चा संभालना पड़ा। नया राज्य होने के कारण अभी उत्तराखंड में हजारों करोड़ रुपये की परियोजनाओं का निर्माण होना हैं।इनमें कई रोपवे, सुरंगों का निर्माण प्रस्तावित हैं। ऐसे में सिलक्यारा सरीखी घटनाओं का खतरा हमेशा बना रहेगा। लेकिन क्या उन घटनाओं से निपटने के लिए उत्तराखंड सरकार और आपदा प्रबंधन विभाग उस हद तक तैयार है।जानकारों का मानना है कि सिलक्यारा सुरंग हादसे से सबक लेते हुए उत्तराखंड सीखने और सिखाने का ऐसा वातावरण तैयार कर सकता है कि राज्य में ही अर्नाल्ड डिक्स और क्रिस कूपर सरीखे विशेषज्ञ उपलब्ध हों।अर्नोल्ड डिक्स आस्ट्रेलियन हैं। उन्हें भूमिगत सुरंगों और परिवहन बुनियादी ढांचे का विशेषज्ञ माना जाता है। भूमिगत काम करने में क्या दिक्कतें आ सकती हैं, खतरे क्या हैं, उनसे कैसे बचा जाए, ये सारी सलाह अर्नोल्ड डिक्स प्रोजेक्ट से जुड़े लोगों को देते हैं।वह पूरी दुनिया में भूमिगत सुरंग बनाने के विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं।
तीन दशकों के उनके करियर में इंजीनियरिंग, भूविज्ञान, कानून और रिस्क मैनेजमेंट मामलों का एक अनूठा मिश्रण देखा गया है। वह सभी महाद्वीपों के लिए काम करते हैं। इसके साथ ही डिक्स अंडरग्राउंड वर्क्स चैंबर्स, विक्टोरियन बार, ब्रिटिश इंस्टीट्यूट ऑफ इन्वेस्टिगेटर्स के सदस्य हैं और टोक्यो सिटी यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग (सुरंगों) में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। केंद्र सरकार के अनुरोध पर उन्हें ऑपरेशन सिलक्यारा के लिए विशेष रूप से बुलाया गया। इस बचाव अभियान में दुनियाभर के जानकारों, और तकनीक का सहारा लिया गया। विदेशों से जानकार और मशीने मंगवाई गईं। हृष्ठक्रस्न, स्ष्ठक्रस्न, स्थानीय पुलिस, ग्रामीणों और सेना के जवानों की कड़ी मेहनत ने इन मजदूरों की जान बचाई। अगर यूं कहें कि इन श्रमिकों को नया जीवन मिला है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रोफेसर डिक्स को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जो दुनिया भर में सुरंग सुरक्षा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को दर्शाता है।
उत्तरकाशी के सिलक्यारा में टनल में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने में आज 16 दिन के संघर्ष के बाद कामयाबी हाथ लगी है। जल्द ही रैंप तैयार होने के बाद मजदूरों को सुरंग से बाहर निकाल लिया जाएगा। इन्हें निकालने में रैट माइनर्स ने अहम भूमिका निभाई है। ऑगर मशीन के खराब होने के बाद रैट माइनर्स ने मजदूरों को सुंरग खोदकर बाहर निकालने में बेहद ही अहम भूमिका निभाई है। अत्याधुनिक सुरंगों और सुरंग प्रणालियों की डिलीवरी और रखरखाव के माध्यम से हमारे समुदायों के विकास का समर्थन करना।हमारी आधुनिक दुनिया को समर्थन देने के लिए आवश्यक परिवहन बुनियादी ढांचे की निरंतर डिलीवरी और रखरखाव में सुरंगें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। समुदायों को जोड़ने के साथ-साथ, हमारी सड़क और रेल सुरंगें लोगों और माल ढुलाई को हमारे सड़क और परिवहन नेटवर्क में अधिक स्वतंत्र रूप से स्थानांतरित करने की अनुमति देकर चल रही जनसंख्या वृद्धि का समर्थन करने के लिए महत्वपूर्ण लिंक प्रदान करती हैं । टनलिंग अक्सर महत्वपूर्ण इंजीनियरिंग चुनौतियों का सामना करती है
जिसके लिए उपयोगी परियोजना परिणाम प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक ज्ञान, तकनीकी कौशल और प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है – और, ऑरेकॉन में, हमारे टनल सलाहकार इन चुनौतियों पर काबू पाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 17 दिन की कड़ी मशक्कत के बाद 41 मजदूरों को सफलतापूर्वक बाहर निकालने वाला ऑपरेशन सिलक्यारा किसी सुरंग या खदान में फंसे मजदूरों को निकालने वाला देश का सबसे लंबा रेस्क्यू ऑपरेशन बना गया है। इससे पहले वर्ष 1989 में पश्चिमी बंगाल की रानीगंज कोयला खदान से दो दिन चले अभियान के बाद 65 मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाला गया था।देश-दुनिया के विशेषज्ञों ने दिन-रात एक कर इस अभियान को मकाम तक पहुंचाया। 13 नवंबर 1989 को पश्चिम बंगाल के महाबीर कोल्यारी रानीगंज कोयला खदान जलमग्न हो गई थी। इसमें 65 मजदूर फंस गए थे। इनको सुरक्षित बाहर निकालने के लिए खनन इंजीनियर जसवंत गिल के नेतृत्व में टीम बनाई गईं।उन्होंने सात फीट ऊंचे और 22 इंच व्यास वाले स्टील कैप्सूल को पानी से भरी खदान में भेजने के लिए नया बोरहॉल बनाने का आइडिया दिया।
दो दिन के ऑपरेशन के बाद आखिरकार सभी मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया था। उस अभियान में गिल लोगों को बचाने के लिए खुद एक स्टील कैप्सूल के माध्यम से खदान के भीतर गए थे। 1991 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने उन्हें सर्वोत्तम जीवन रक्षा पदक से नवाजा था। उस अभियान में मजदूरों की संख्या सिलक्यारा से ज्यादा थी, लेकिन उन्हें निकालने में समय कम लगा था। सिलक्यारा में 13वां दिन बीतने के बाद मजदूर बाहर निकाले जा सके। राज्य और केंद्र सरकार की सभी एजेंसियां, अधिकारी और कर्मचारियों ने जी-तोड़ मेहनत और जज्बे से इस मिशन को मुकाम तक पहुंचाया है। केंद्र और राज्य सरकार की तमाम टीमें पूरे 17 दिन तक पूरी तन्मयता और मनोयोग से रेस्क्यू में जुटी रहीं।
मुख्यमंत्री निरंतर स्थलीय निरीक्षण करने साथ ही रेस्क्यू टीमों की हौसला-अफजाई करते रहे। रेस्क्यू ऑपरेशन में एनडीआरएफ, बीआरओ, एसडीआरएफ, आरवीएनएल, एसजेवीएनएल, ओएनजीसी, आईटीबीपी, एनएचएआईडीसीएल, टीएचडीसी, उत्तराखंड शासन, जिला प्रशासन, थल सेना, वायुसेना समेत तमाम संगठनों के अधिकारियों और कर्मचारियों ने अहम भूमिका निभाई। सिलक्यारा हादसा आपदाओं के लिए संवेदनशील उत्तराखंड राज्य को सबक भी सिखा गया कि वह आपदा में केंद्रीय एजेंसियों का बार-बार मुंह नहीं ताक सकता। उसको खुद अपने बूते पर पुख्ता तैयारियां करनी होंगी। ऑपरेशन की कामयाबी के लिए उत्तराखंड सरकार ने बेशक सहयोगी की भूमिका में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, लेकिन जानकारों का मानना है कि सरकार को इससे अधिक तैयारी करनी होगीयह पूरा घटनाक्रम प्राकृतिक आपदाओं के
लिहाज से संवेदनशील उत्तराखंड को कई सबक सिखा गया।
आपदाओं का अक्सर सामना करने वाले उत्तराखंड राज्य के लिए यह घटना कायदे से सबक सीखने वाली है। सिलक्यारा हादसा ने कई सवाल भी खड़े किए है। उत्तराखंड में हजारों करोड़ रुपये की परियोजनाओं का निर्माण होना हैं। इनमें कई रोपवे, सुरंगों का निर्माण प्रस्तावित हैं। ऐसे में सिलक्यारा सरीखी घटनाओं का खतरा हमेशा बना रहेगा। लेकिन क्या उन घटनाओं से निपटने के लिए उत्तराखंड सरकार और आपदा प्रबंधन विभाग उस हद तक तैयार है?
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )