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बेरीनाग की जीआई चाय (GI Tea) उपेक्षा के चलते नष्ट हो गए बागान

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बेरीनाग की जीआई चाय (GI Tea) उपेक्षा के चलते नष्ट हो गए बागान

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

जब भारत में अंग्रेजों का शासन था तब उत्तराखंड के बेरीनाग की चाय देश-विदेशों में प्रसिद्ध थी और आजादी के बाद राज्य के सभी चाय के बाग खत्म हे गए। 1996 में जब ये उत्तरप्रदेश का हिस्सा था, उस समय की सरकार ने यहां फिर से चाय के उत्पादन को शुरू करने का निर्णय लिया, अलग राज्य बनने  के बाद यहां की सरकारों ने कौसानी, बेरीनाग, चमोली और चंपावत के साथ-साथ कुछ जगहों पर टी-गार्डन को प्रोत्साहन दिया। इसका नतीजा ये हुआ कि आज कौसानी, बेरीनाग, चंपावत और चमोली में खूबसूरत टी-गार्डन मौजूद हैं, जो अच्छा उत्पादन कर रहे हैं, इन जगहों की ऑर्गेनिक टी की तो सीधे विदेशों में मांग है।

बेरीनाग की चाय किसी दौर में इंग्लैंड के चाय शौकीनों की पसंदीदा चाय थी इस कारण उसकी अत्यधिक मांग बनी रहती थी। उस दौर में बेरीनाग चाय लंदन के चाय घरों में एक अत्यधिक मांग वाली चाय थी यह चाय नब्बे के दशक तक लंदन टी हाउस में अत्यधिक मांग वाली चाय थी। अफसोस की बात है कि आज पुरानी पीढ़ी को छोड़कर इस ब्रांड को भुला दिया गया है। चाय दुनिया में सर्वाधिक लोकप्रिय पेय में से एक है और दुनिया के लगभग हर कोने में आसानी से उपलब्ध है। उत्तराखण्ड में चाय की खेती का इतिहास 150 वर्ष पुराना है। उत्तराखण्ड में चाय की खेती यूरोपियनों के आने के बाद ही शुरू हुई। सन 1824 में ब्रिटिश लेखक बिशप हेबर ने कुमाऊं क्षेत्र में चाय की सम्भावना व्यक्त करते हुए कहा था कि यहां की जमीन पर चाय के पौधे प्राकृतिक रूप में उगते हैं लेकिन काम में नहीं लाए जाते हैं।

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हेबर ने कहा था कि कुमाऊं की मिट्टी का तापमान तथा अन्य मौसमी दशाएं चीन के चाय बागानों से काफी मेल रखती हैं। वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर के अधीक्षक डा. रोयले उत्तराखण्ड में चाय की सफल खेती से पूर्णतः सहमत थे। चूंकि ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों को कुमाऊं में निजी संपत्ति रखने की अनुमति नहीं थी इसलिए कुछ ब्रिटिश लोगों द्वारा उन्हें उत्तराखंड में निजी संपत्ति देने की मांग उठाई गई। सन 1827 में डा. रोयाले ने सरकार से अनुरोध किया कि कुमाऊं की विशाल भूमि जहां कोई खेती नहीं हो रही है चाय बागानों के लिए यूरोपीय लोगों को दी जानी चाहिए। तत्पश्चात सन 1834 में भारत में एक चाय समिति का गठन किया गया और सन 1837 में ब्रिटिश संसद ने अंग्रेजों को भारत में निजी संपत्ति रखने की अनुमति देने वाला एक विधेयक पारित कर दिया।

कुमाऊं और गढ़वाल के आयुक्त लार्ड बैटन ने आदेश जारी किया कि कुमाऊं और गढ़वाल की उपयुक्त जलवायु परिस्थितियों के साथ पहाड़ी की चोटी अंग्रेजों को मुफ्त में दी जा सकती है। यह उन्हें वहां रहने और चाय की बागवानी करने की सहूलियत देगा क्योंकि वहां कुछ चाय के पौधे प्राकृतिक रूप से उगते हैं। सन 1850 के दशक के दौरान बेरीनाग में एक चाय बागान स्थापित किया गया था। तब बेरीनाग चाय कंपनी के प्रबंधक ने चीनी ईंट चाय के निर्माण का रहस्य खोजा और उनकी चाय को चीनी किस्म से कहीं बेहतर माना गया। बेरीनाग चाय पूरी तरह से ऑक्सीडाइज्ड नहीं होती है। यह चाय अपने अद्वितीय स्वाद, सुगंध और रंग के लिए मशहूर है जोकि असम के बागानों को कड़ी चुनौती देती है। इसका वुडी स्वाद अन्य चाय के समान नही होता है यही कारण है कि इस चाय को चाय का शैम्पेन भी माना जाता है। ब्रिटिश दौर में उत्तराखंड के सभी उद्यानों में बेरीनाग और चौकोरी उद्यान के चाय की गुणवत्ता और स्वाद सर्वाधिक लोकप्रिय थी।

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चौकोरी और बेरीनाग उद्यानों को बाद में ठाकुर दान सिंह बिष्ट ने खरीद लिया था। उनकी चाय को  भोटिया व्यापारियों ने ल्हासा के रास्ते पश्चिमी तिब्बत में निर्यात किया और तिब्बतियों ने महसूस किया कि तिब्बत में चीन से आयातित चाय से बेरीनाग की चाय कहीं बेहतर मानी थी। उस दौर में बेरीनाग की चाय के जायके की प्रसिद्धी दूर-दूर तक फैलने लगी।अपने देश भारत में बेरीनाग की चाय लोकप्रिय हो गई थी इसके अतिरिक्त ब्रिटेन व चीन में भी  बेरीनाग की चाय का डंका बजने लग गया था। उत्तराखंड में चाय की खेती को बढ़ावा देने के लिए भले ही लाख दावे किए गए हों, लेकिन हकीकत इन दावों से मेल खाती नजर नहीं आ रही है। एक दौर में दुनिया को नंबर वन क्वालिटी की चाय मुहैया कराने वाले बेरीनाग के चाय बागान नष्‍ट हो रहे है।

चाय बागानों की इस बदहाली ने जहां रोजगार को प्रभावित किया है, वहीं एक पहचान को भी इतिहास के पन्नों में समेट दिया है। खंडर में तब्दील बेरीनाग की ऐतिहासिक चाय फैक्ट्री यहां के उजड़ते चाय उद्योग की दास्तां बयां कर रही है। 1864 में बिट्रिश व्यवसायी हिली ने यहां चाय बागान और फैक्ट्री की शुरूआत की थी। आजादी के बाद भी यहां चाय का उत्पादन होता रहा था, बेरीनाग की चाय इंग्लैंड, स्वीडन सहित कई यूरोपीय मुल्कों की पहली पसंद रही है। आज भी यहां करीब सौ एकड़ की भूमि पर चाय बागान बचे हैं, लेकिन प्रभावशाली लोग आए दिन चाय बागानों को तबाह कर अपनी इमारतें खड़ी कर रहे हैं। इस गोरखधंधे को रोकने की न तो कभी प्रशासन ने कोशिश की और न ही टी.बोर्ड बागानों की बचाने की सुध ली।

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चाय बागानों की दुर्दशा देखकर कहा जा सकता है कि उत्तराखंड को टी.स्टेट बनाने का दावा झूठा साबित हो रहा है। ऐसे में अगर कोई ठोस कदम नही उठाया गया तो, वो दिन दूर नहीं जब यहां के चाय बागानों पर पूरी तरह भू.माफियों का कब्जा हो जाएगा। एक दौर में दुनिया को नंबर वन क्वालिटी की चाय मुहैया कराने वाले बेरीनाग के चाय बागान नष्ट हो रहे है। चाय बागानों की इस बदहाली ने जहां रोजगार को प्रभावित
किया है, वहीं एक पहचान को भी इतिहास के पन्नों में समेट दिया है। खंडर में तब्दील बेरीनाग की ऐतिहासिक चाय फैक्ट्री यहां के उजड़ते चाय उद्योग की दास्तां बयां कर रही है। 1864 में बिट्रिश व्यवसायी हिली ने यहां चाय बागान और फैक्ट्री की शुरूआत की थी।

आजादी के बाद भी यहां चाय का उत्पादन होता रहा था लेकिन भूमि विवाद हुक्मरानों की अपेक्षा के चलते आज ये उद्योग पूरी तरह खत्म हो गया है। यहां चाय का कारखाना खुला और यहां की चाय विदेशों में जाने लगी। बाद में मालदार परिवार भी इसका रखरखाव नहीं कर पाया तो धीरे- धीरे यहां के चाय बागान उजड़ने लगे अब तो यहां सिपर्फ अतीत की यादें भर शेष रह गई हैं। उत्तराखंड में क्रमशः अदलती-बदलती सरकारों मे शीर्ष नेतृत्व के अभाव, तथा प्रदेश की समृद्धि व जनसरोकारों हेतु स्थापित सरकारों का विजन न होने से, प्रदेश के प्रबुद्ध जनमानस के सम्मुख घोर निराशा ही प्रकट हुईलेकिन भूमि विवाद हुक्मरानों की अपेक्षा के चलते आज ये उद्योग पूरी तरह खत्म हो गया है। बेरीनाग की
चाय इंग्लैंड, स्वीडन सहित कई यूरोपीय मुल्कों की पहली पसंद रही है।

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आज भी यहां करीब सौ एकड़ की भूमि पर चाय बागान बचे हैं, लेकिन प्रभावशाली लोग आए दिन चाय बागानों को तबाह कर अपनी इमारतें खड़ी कर रहे हैं। इस गोरखधंधे को रोकने की न तो कभी प्रशासन ने कोशिश की और न ही टी-बोर्ड बागानों की बचाने की सुधली। वहीं
उत्तराखंड टी बोर्ड के निदेशक का कहना है कि बेरीनाग के चाय बागानों के लिए अभी तक किसी भी कास्तकार का कोई प्रस्ताव नही है। अगर भविष्य में कोई प्रस्ताव आए तो इस पर विचार किया जाएगा। चाय बागानों की दुर्दशा देखकर कहा जा सकता है कि उत्तराखंड को टी-स्टेट बनाने का दावा झूठा साबित हो रहा है। ऐसे में अगर कोई ठोस कदम नही उठाया गया तो, वो दिन दूर नहीं जब यहां के चाय बागानों पर पूरी तरह भू-माफियों का कब्जा हो जाएगा।

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के चौकोड़ी व बेरीनाग की चाय का स्वाद कभी सात समुंदर पार अंग्रेज भी लिया करते थे। अपनी अलग महक और स्वाद के कारण विदेशों में इसकी खासी मांग थी। यहां के चाय की खुश्बू दर्जीलिंग की चाय को भी टक्कर देती थी। लेकिन शासन-प्रशासन की उपेक्षा के चलते सारे चाय बागान उजड़ चुके हैं। चाय बागान कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके हैं। उत्तराखंड सरकार प्रदेश में चाय उत्पादन की बात तो कहती है परंतु सरकार की चाय उत्पादन पर विचार किया है। उत्तर भारत भौगोलिक संकेतांक (जीआई) महोत्सव में उत्तराखंड ने पहला स्थान प्राप्त किया। इस महोत्सव में राज्य की ओर से जीआई पंजीकृत सात उत्पादों की प्रदर्शित लगाई गई थी। जीआई उत्पादों में बेरीनाग चाय, ऐपण और च्यूरा उत्पाद आकर्षण का केंद्र रहे।

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वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय और उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से वाराणसी में 16 से 21अक्तूबर तक उत्तर भारत जीआई महोत्सव आयोजित किया गया। जिसमें उत्तर भारत के 11 राज्यों की ओर से 100 जीआई उत्पादों की प्रदर्शनी लगाई गई। उत्तराखंड ने जीआई पंजीकृत कुमाऊं च्यूरा ऑयल, मुनस्यारी राजमा, भोटिया दन, ऐपण, रिंगाल क्राफ्ट, ताम्र उत्पाद व थुलमा समेत अन्य उत्पाद प्रदर्शित किए। उद्योग निदेशक ने बताया कि महोत्सव में जीआई उत्पादों में बेरीनाग चाय, ऐपण और च्यूरा ऑयल को लोगों ने खूब सराहा। प्रदर्शन में उत्तराखंड ने पूरे उत्तर भारत में पहला स्थान हासिल किया है। उन्होंने कहा कि भौगोलिक संकेतांक किसी क्षेत्र विशेषता वाले उत्पादों को कानूनी संरक्षण प्राप्त करता है।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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