खाद्य सुरक्षा और जलवायु के लिए लाभकारी समाधान है मोटे अनाज (coarse grains)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर अंतर्सरकारी पैनल के मुताबिक़, अगले दो दशकों में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस या इससे भी ज़्यादा गर्मी के स्तर तक पहुंच सकता है। मौसम में आ रहे इस बदलाव से निपटने के लिए जो उपाय अभी किए जा रहे हैं, ऐसे में ऐसी आपातकालीन नीतियां लागू करने की ज़रूरत है जो हमें ग्लोबल वार्मिंग से सुरक्षा दे सकें। ग्लोबल वार्मिंग का दूरगामी असर न केवल पानी की उपलब्धता पर पड़ेगा, बल्कि ये कृषि और खाद्य सुरक्षा पर भी असर डालेगा। भूगर्भ जल का 89 प्रतिशत हिस्सा अकेले कृषि क्षेत्र ही उपयोग करता है। ऐसे में खेती बाड़ी के तरीक़ों में ऐसे बदलाव करने होंगे, जिससे पोषण और पीने के पानी की सुरक्षा सुनिश्चित हो और इसकी सामाजिक क़ीमत भी कम से कम चुकानी पड़े।
भारत पानी की भयंकर क़िल्लत वाली अर्थव्यवस्था है। यहां दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है, मगर कुल वैश्विक जल संसाधनों का केवल 4 प्रतिशत ही भारत में लंबे समय से भूगर्भ जल संसाधनों के दोहन की वजह से इसमें भारी कमी आ गई है, इससे बदलाव की ऐसी नीतियों को तुरंत लागू करने की ज़रूरत रेखांकित होती है, जिससे भूगर्भ जल का उचित प्रबंधन किया जा सके।वैसे तो अटल भूजल योजना जैसे कार्यक्रम भूगर्भ जल के प्रबंधन को कुशल बनाने के लिए तो आवश्यक हैं ही लेकिन, खेती में पानी की खपत कम करने पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए। कुछ अनाजों की फसलें, जिन्हें उगाने में बहुत पानी लगता है, उनकी बाज़ार में सबसे अधिक हिस्सेदारी है। इससे खाद्य सुरक्षा और पानी की उपलब्धता में से एक के चुनाव की चुनौती पैदा होती है। खाने और पानी के बीच चुनाव की इस चुनौती से बचने में मिलेट जैसी सूखी फसलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
भारत में खेती के तरीक़ों को वैश्विक स्तर पर लागू किया जा सकता है। खाने और पानी के बीच चुनाव की इस चुनौती से बचने में मिलेट जैसी सूखी फसलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। धान, गेहूं और गन्ने की फ़सलें पानी पर सबसे अधिक निर्भर होती हैं और भारत की लगभग 90 प्रतिशत उपज इन्ही फ़सलों की होती है। भारत,चावल का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। हर एक किलो चावल उगाने में लगभग 3,500 लीटर पानी लगता है। इससे धान के उत्पादन की सामाजिक क़ीमत में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो जाती है। दुनिया में मीथेन गैस के उत्सर्जन के 10 फ़ीसद हिस्से के लिए चावल ही ज़िम्मेदार है और दक्षिण एशिया में 30 प्रतिशत मीथेन गैस का उत्सर्जन इसी की वजह से होता है।इसके बावजूद, चावल और गेहूं की खेती को बढ़ावा देने वाली भारत की हरित क्रांति ने किसानों की ज़मीनों और खाने वालों की प्लेट से मिलेट का सफाया कर दिया है।
धरती के बढ़ते तापमान और घटते जलस्तर को देखते हुए खाने के मुख्य अनाज के तौर पर मोटे अनाजों का चलन दोबारा बढ़ाने की ज़रूरत को स्वीकार किया जा रहा है। चावल की तुलना में ज्वार, बाजरा और रागी जैसे मोटे अनाजों को उगाने में बारिश की ज़रूरत तक कम होती है। वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी को देखते हुए गेहूं की खेती अव्यवहारिक होने वाली है। ऐसे में मोटे अनाज एक टिकाऊ विकल्प बन सकते
हैं, जो सूखे और अधिक तापमान वाले हालात में भी उगाए जा सकते हैं। ये भी पाया गया है कि चावल से तुलना की जाए, तो मोटे अनाजों में 30 से 300 प्रतिशत तक अधिक पोषक तत्व होते हैं। यानी अगर मोटे अनाज उगाए जाते हैं, तो जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद तो मिलेगी ही, पोषण की सुरक्षा से भी कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा। मांग को दोबारा बढ़ाने के लिए ग्राहकों को मोटे अनाजों की पोषण संबंधी गुणवत्ता से परिचित कराने की ज़रूरत है।
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ग्लूटेन मुक्त होने के अलावा, मिलेट्स आयरन, कैल्शियम और ज़िंक से भरपूर होते हैं। ग्लाइसेमिक इंडेक्स में निचले स्तर पर होने के कारण ये आकलन किया गया है कि मोटे अनाज, दुनिया भर में डायबिटीज़ की रोकथाम और शरीर का वज़न और हाइपरटेंशन को नियंत्रित करने में काफ़ी कारगर साबित हो सकते हैं। यही नहीं, मोटे अनाजों में लगभग 65 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पॉलीसैकराइड्स और पोषक फाइबर होते हैं। ऐसे में जो लोग नियमित रूप से मोटे अनाज खाते हैं, उनमें दिल की बीमारियां होने की आशंका कम हो जाती है। चावल की तुलना में मोटे अनाजों में कैल्शियम की मात्रा ज़्यादा होती है और इनमें आयरन तो गेहूं और चावल से भी अधिक होता है।
भारत दुनिया में मोटे अनाजों का सबसे बड़ा उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। पिछले पांच दशकों में भारत में कृषि लायक़ ज़मीन 56 प्रतिशत घट गई है। मगर बढ़ी हुई उत्पादकता और उन्नत तकनीक की वजह से देश में मिलेट्स का उत्पादन 1.13 करोड़ टन से बढ़कर 1.69 करोड़ टन पहुंच गया। भारत द्वारा मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के प्रयासों, नीतिगत ढांचे और इनकी खेती से जुड़ी जानकारी को भी प्रचारित किया जाना चाहिए, ताकि इन्हें कहीं और भी अपनाया जा सके। पिछले पांच दशकों के दौरान भारत के रिसर्च की वजह से लगभग 80 से 200 तक बेहतर उपज वाली प्रजातियों का राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर आविष्कार किया गया है।इन नस्लों से अनाज भी अधिक होता है और इनकी जैविक और अजैविक प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक है। चारे के लिए उगाई जाने वाली ज्वार की नई प्रजाति के अनाज को पचाना भी आसान होता है और ये सायनोजेन से भी सुरक्षित हैं और पुरानी प्रजातियों की तुलना में इनकी फ़सलों को नुक़सान भी कम होता है।
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वहीं दूसरी तरफ़, कमज़ोर किसानों को खाना, पोषक और आर्थिक सुरक्षा देने के लिए बायोफोर्टिफाइड बाजरे को विकसित किया गया है। बाजरा पोषक तत्वों से भरपूर होता है और उस पर मौसम की मार भी कम पड़ती है। इससे उन सूखे और अर्धशुष्क क्षेत्रों के किसानों के लिए इसकी फ़सल महत्वपूर्ण हो जाती है, जहां पर जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव पड़ने वाला है। खाद्य सुरक्षा और संसाधनों के दोहन की मौजूदा दुविधा से निपटने के लिए मोटे अनाज एक कुशल समाधान उपलब्ध कराते हैं। हालांकि, मिलेट्स उद्योग का उत्पादन बढ़ाने के लिए बाज़ार को पूरी तरह संचालित होने से पहले उचित नीतियां बनाने की ज़रूरत है। छोटे मिलेट्स की बेहतर उपज वाली प्रजातियां विकसित करने के लिए प्रभावी रिसर्च ज़रूरी है क्योंकि किसानों को इनको बोने के कारण उत्पादकता की चुनौती का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके मुनाफ़े में काफ़ी कमी आ जाती है।इन फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और सब्सिडी की शक्ल में किसानों को सहायता दी जा सकती है।
इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स का इस्तेमाल वैश्विक स्तर पर प्राथमिकताओं को ढालने और उनको मिलेट्स से मिलने वाले पोषण और टिकाऊ विकास के लाभों से भी परिचित कराया जाना चाहिए। आख़िर में, तेज़ी से गर्म होती दुनिया में दूसरे देशों की सरकारों को मोटे अनाजों का उत्पादन करने और इनकी खपत बढ़ाने के लिए, मिलेट्स के जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलेपन की ख़ूबी पर ज़ोर दिया जाना चाहिए।मोटे अनाज को प्रचलन में लाने के लिए सरकार द्वारा प्रचार प्रसार किया जा रहा है। लोगों को इसके प्रति जागरूक किया रहा है। मोटा अनाज भारत में काल से चलता आ रहा है। लेकिन समय के साथ लोग मोटे आनाज को भूलते गए और हमारी थाली से गायब हो गया। जबकि मोटे अनाज
का वर्णन हमारे प्रचीन साहित्यों में भी मिलता है। कभी उत्तर प्रदेश का अंग रहे इस हिमाचली राज्य को बनाने के लिए शुरू हुए जनांदोलनों में “कोदा झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे” का नारा जन जन की जुबान पर था।
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राज्य गठन का वह स्वप्न तो साकार हुआ ही, कोदा, झंगोरा को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिल गई। आदिकाल से पहाड़ में मोटे अनाज की भरमार हुआ करती थी। लेकिन तब मोटे अनाज को खाने वालों को दूसरे दर्जे का समझा जाता था। उस समय मोटे अनाज की उपयोगिता और इसके गुणों से लोग ज्यादा विंज्ञ नहीं थे। जानकारी का भी अभाव था। समय के साथ-साथ मोटे अनाज की पैदावार भी कम होने लगी, क्योंकि लोगों ने मोटे अनाज की जगह दूसरी फसलों को तवज्जो देना शुरू कर दिया और समाज की धारणा के अनुसार लोग चावल धान की फसल की ओर बढ़ गए। समय फिर लौट के आया और स्वस्थ स्वास्थ्य के लिए मोटे अनाज के भरपूर गुणों से लोग परिचित हुए। सेहत के लिए सभी तरह से फायदेमंद होने व लाइलाज बीमारी के इलाज में मोटे अनाज का सेवन रामबाण साबित होता है। इसलिए फिर से बाजार में इस पहाड़ी मोटे अनाज की भारी मांग होने लगी है। बाजार में मोटे अनाज की डिमांड मांग ज्यादा होने लगी तो मोटा अनाज फिर से खेतों में लौटने लगा। ग्रामीण भी मोटे अनाज की फसलों को उगाने में रुचि दिखाने लगे हैं। आज पहाड़ों के बाजार से मोटा अनाज प्राप्त करना भी अपने आप में एक चमत्कार है। बाजार में मोटा अनाज कम और मांग ज्यादा है। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )