विनाश को विकास (Development) मान हम खुशफहमियों के भ्रमजाल में आज भी प्रासंगिक - Mukhyadhara

विनाश को विकास (Development) मान हम खुशफहमियों के भ्रमजाल में आज भी प्रासंगिक

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विनाश को विकास (Development) मान हम खुशफहमियों के भ्रमजाल में आज भी प्रासंगिक

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

पर्यावरण को नष्ट कर संवेदनशील क्षेत्रों में प्रकृति के साथ जो विध्वंस व खिलवाड़ हो रहा है, उसके दूरगामी दुष्परिणामों को लेकर आम लोग पूरी तरह बेखबर हैं। हिमालय में ज्यादातर विकास की नीतियां आत्मघाती हैं और उनके पीछे कोई दीर्घकालिक सोच नहीं दिखती।उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में ऑलवेदर रोड बनाने से पर्वतीय क्षेत्रों में धरती, जंगलों व नदियों की जो तबाही हुई है, उसका प्रखर विरोध
होना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वजह है कि इस तरह के विनाश को लोग विकास मान बैठते हैं। हम खुशफहमियों के भ्रमजाल में हैं। योजनाएं बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि इस तरह की उनकी चुप्पी और भ्रम आने वाले दौर में तबाही लेकर आएगा। जोखिम और चुनौतियां हिमालय को चौतरफा घेर रही हैं। हिमालय बेजुबान है। बावजूद इसके वह समय-समय पर हमें खतरे के संकेत दे रहा है। विडंबना यह है कि हम उसके खतरों की चिठ्ठी पत्रियों को रद्दी की टोकरियों में डाल रहे हैं।

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त्रासदियों की बात करें तो सुदूर उत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक हिमालय में 1970 में सबसे बड़ी तबाही अलकनंदा घाटी में हुई थी। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद यह सबसे बड़ी प्राकृतिक व मानवीय तबाही इतिहास में दर्ज है। २०१० में बर्फीले लद्दाख क्षेत्र में मॉनसून ने भारी तबाही मचाई और बड़ी तादाद मे लोग काल के मुंह में चले गए। पूर्वोत्तर में 2008 में नेपाल व बिहार के बीच कोसी नदी ने अपना रास्ता बदला तो बिहार में हमें भारी जानमाल का नुकसान उठाना पड़ा। नेपाल से आने वाली नदियों से जो गाद बहकर आ रही है, वह तराई में आकर हमारी नदियों के मुहानों को ऊपर उठा रही है। इससे नदियों के आसपास की विशाल आबादी धीरे-धीरे खतरों की जद में आ रही है क्योंकि पानी जितना ऊपर बहेगा, हमारे गांव व खेती व और सड़क संचार उतने ही तबाह होते जाएंगे।

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नेपाल से आने वाली घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक वाली दूसरी नदियां हमारे लिए अभिशाप बनकर आ रही हैं तो इसका एक ही बड़ा कारण है कि हम हिमालयी हलचलों व भारत के संदर्भ में उनके भावी निहितार्थों को लेकर बेखबर व उदासीन हैं। हिमालयी भूभाग में जितने भी देश हैं, वे सतह के ऊपर भले ही अलग हैं लेकिन भीतर और जल, जमीन जंगल तो आपस में सटे हुए हैं। भूगर्भीय हलचलों व मौसमी बदलावों को हम किसी भी सूरत में सीमाओं के भीतर नहीं बांध सकते। जैसे हर साल दीवाली के बाद दिल्ली और उत्तर भारत पाकिस्तान, पंजाब व हरियाणा से आने वाले धूल, धुंध से पट जाता है। इसी तरह अफगानिस्तान, नेपाल, चीन भूटान में कोई भी आपदा और विध्वंस हुआ है तो यह मानकर चलना हमारी भारी भूल होगी कि इससे हम पर क्या फर्क पड़ने वाला है।

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मैं अरसे से इस बात के लिए अपने देश की सरकारों को लिखित तौर पर व सार्वजनिक मंचों से आगाह  करता आ रहा हूं कि भारत को दक्षिण एशिया और हिमालय की रक्षा के लिए हिमालयी मुल्कों का मोर्चा बनाने के लिए आगे आना चाहिए।पहाड़ों के साथ सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि देश भले ही अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हो गया लेकिन व्यापारिक हितों के लिए हिमालयी क्षेत्रों में जंगलों का कटान और तेजी से आगे बढ़ा।
हिमालयी गांवों के लिए जंगल ही जीवन के अस्तित्व का आधार रहे हैं। कुल्हाड़ियों से जंगलों को काटने के खिलाफ सबसे पहले महिलाओं को संगठित किया। हमने जगह-जगह तय किया कि ठेकेदार के लोग पेड़ों पर जब कुल्हाड़ियां चलाएं तो हम सब सामूहिक तौर पर उन पेड़ों पर लिपट जाएं। जो पेड़ काटते थे उनके सामने ही जब लोग पेड़ों पर लिपट गए तो इसका ठेकेदार व उनके मजदूरों पर बहुत गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। वे उन जगहों को छोड़कर जाने को विवश हुए। इस तरह आंदोलन की जीत का दरवाजा खुला।

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सत्य, अहिंसा को केंद्र में रखकर हमने एक कार्यकर्ता के तौर पर जनता को साथ लेकर जिस निष्ठा के साथ बिना किसी हिंसा, विवाद के आंदोलन चलाया, उसकी मिसाल शायद ही कहीं मिलती हो। पूरे चिपको आंदोलन का हिंसा या खून खराबे से कहीं कोई ताल्लुक नहीं था। जंगलों को काटने के लिए आए श्रमिकों के प्रति हमारे लोगों का हिंसा या नफरत का कोई भाव न था। यही अंहिसा और शांतिपूर्ण प्रतिरोध हमारा अचूक हथियार बना। पूरी दुनिया का ध्यान इसीलिए इस आंदोलन की ओर गया कि कैसे गांवों के सीधे-सरल, अनपढ़ लेकिन जागरूक लोगों ने देश व राज्यों में ताकतवर सरकारों के संरक्षण में बड़े धन्ना सेठों को हिमालय के जंगलों के विनाश की कोशिशों पर हमेशा के लिए विराम लगाया उत्तराखंड व हिमांचल में लगातार बन रहे आपदा के हालात से जन जीवन पूरी तरह अस्त व्यस्त है। लगातार भूस्खलन, हिमानी झीलों के टूटने व बादल फटने जैसी घटनायें सामने आ रही है। ऐसे में वैज्ञानिक प्रकृति में तेजी से आ रहे इस बदलाव को घातक मान रहे हैं।

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वैज्ञानिकों का मानना है कि मौसम परिवर्तन व अनियोजित विकास इसके पीछे का बड़ा कारण है। तेजी से हो रहा विकास, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पर्याावरण पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। वैज्ञानिको का मानना है कि विकास की अंधाधुंध होड़, अनियोजित विकास सिर्फ पहाड़ी क्षेत्र नहीं अपितु पूरे देश व विश्व में विनाश की पटकथा को लिख रहा है भूस्खलन होना स्वभाविक है। हीं भूस्खलन के अलावा बस्तियों, सड़कों, बांधों को भी ये नुकसान पहुंचा रही है। जिससे आपदा के हालात पैदा हो रहे हैं। केंद्र व राज्य सरकारों को जंगलों के संरक्षण के बारे में अपनी नीति बदलनी पड़ी।

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यह समझना भी शायद जरूरी है कि सामाजिक आंदोलन कैसे पैदा होते हैं? कैसे सफल होते हैं? कैसे बड़ी संख्या में लोग इनसे जुड़ते जाते हैं? कौन से कारण भीड़ को एकजुट करते हैं और एक दिशा देते हैं? वे कौन से तत्त्व हैं जो लोगों को संघर्ष के लिए उत्तेजित करते हैं? इन आन्दोलनों की प्रवृत्ति और दिशा कैसे तय होती है? क्या सभी आंदोलन स्वयं स्फूर्त होते हैं या इनका कोई निश्चित सिद्धान्त और नियम है? या इनके पीछे कुछ ताकतें होती हैं, इन सब सवालों का जवाब आंदोलनों के मनोविज्ञान में छुपा है। पर्यावरण के कारण हम जीवित हैं। ऐसे में अगर पर्यावरण खतरे में पड़ेगा तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रहेगा। !लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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