सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत है कुमाउनी शास्त्रीय होली
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश भर में जहां रंगों से भरी होली फाल्गुन माह में गाई व खेली जाती है, वहीं कुमाऊं की परंपरागत कुमाउनी होली की एक विशिष्टता बैठकी होली यानी अर्ध शास्त्रीय गायकी युक्त होली है, जिसकी शुरुआत पौष माह के पहले रविवार से ही विष्णुपदी होली गीतों के साथ हो जाती है। शास्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण शास्त्रीय होली भी कही जाने वाली कुमाऊं की शास्त्रीय होली की शुरुआत करीब 10वीं शताब्दी में चंद शासनकाल से मानी जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार चंद शासनकाल में बाहर से ब्याह कर आयीं राजकुमारियां अपनी परंपराओं व रीति-रिवाजों के साथ होली को भी यहां साथ लेकर आयीं। वहीं अन्य विद्वानों के अनुसार प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह परंपरा आई है।
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कुमाऊं के प्रसिद्ध जनकवि स्वर्गीय गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने कहा था कि कुमाऊं की शास्त्रीय गायकी होली में बृज व अवध से लेकर दरभंगा तक की परंपराओं की छाप स्पष्ट रूप से नजर आती है तो नृत्य के पद संचालन में ठेठ पहाड़ी ठसक भी मौजूद रहती है। इस प्रकार कुमाउनी होली कमोबेश शास्त्र व लोक की कड़ी तथा एक-दूसरे से गले मिलने में आपसी प्रेम बढ़ाने वाले त्योहारों की झलक भी दिखाती है। साथ ही
कुमाउनी होली में प्रथम पूज्य गणेश से लेकर गोरखा शासनकाल से पड़ोसी देश नेपाल के पशुपतिनाथ शिव की आराधना और ब्रज के राधा-कृष्ण की हंसी-ठिठोली से लेकर स्वतंत्रता संग्राम और उत्तराखंड आंदोलन की झलक भी दिखती है। यानी यह अपने साथ तत्कालीन इतिहास की सांस्कृतिक विरासत को भी साथ लेकर चली हुई है।
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सामान्यतया कुमाउनी होली को भी कुमाउनी रामलीला की तरह ही करीब 150 – 200 वर्ष पुराना बताया जाता है, लेकिन जहां कई विद्वान इसे चंद शासन काल की परंपरा की संवाहक बताते हैं, वहीं प्रख्यात होली गायक और बॉलीवुड में भी प्रदेश के लोक संगीत को पहचान दिलाने वाले प्रभात साह गंगोला सहित अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इसका इतिहास प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा की स्थापना से भी पूर्व, चार शताब्दियों से भी अधिक पुराना है। इनके अनुसार कुमाउनी होली का मूल स्वरूप काली कुमाऊं से खड़ी होली के स्वरूप में आया होगा, लेकिन चंद वंशीय शासकों की राजधानी अल्मोड़ा में उस दौर के प्रख्यात शास्त्रीय गायक अमानत अली खां और गम्मन खां की शागिर्द ठुमरी गायिका राम प्यारी जैसी गायिकाएं यहीं आई और स्थानीय शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार शिव लाल वर्मा आदि उनसे संगीत सीखने लगे। वह 14 मात्रा में पूरी राग-रागिनियों के साथ होली गाते थे। ऐसे ही अन्य बाहरी लोगों के साथ कुमाउनी होली में ब्रज, अवध व मगध के अष्टछाप कवियों के ईश्वर के प्रेम में लिखे गीत आए। कालांतर में होलियों का मूल शास्त्रीय स्वरूप वाचक परंपरा में एक से दूसरी पीढ़ी में आते हुए और शास्त्रीय संगीत की अधिक गहरी समझ न होने के साथ लोक यानी स्थानीय पुट से भी जुड़ता चला गया, और कुमाउनी होली कमोबेश शास्त्र व लोक की कड़ी सी बन गई।
कुमाउनी होली की एक और खासियत यह भी है कि यह पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू होकर फाल्गुन माह की पूर्णिमा तक सर्वाधिक लंबे अंतराल तक चलती है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि (प्राचीन काल में) शीतकाल में पहाड़ों में कृषि व अन्य कार्य सीमित होते थे। ऐसे में लंबी रातों में मनोरंजन के साधन के तौर पर भी होली गायकी के रात-रात लंबे दौर चलते थे। यह परंपरा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखी जाती है। कुमाउनी होली में विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शास्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीम पलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ गाई जाती हैं।
अनेक बार सामाजिक और समयामयिक आंदोलनों में यहां के होली गीतों को माध्यम बनाने का जो अभिनव प्रयोग किया गया है। यह भी एक तरह से यहां की होली की बड़ी विशेषता है। होली गीतों की तर्ज पर कुमाऊं के कवि गौर्दा व बाद में चारू चन्द्र पाण्डे व गिर्दा ने जिन होली गीतों को रचकर सामाजिक चेतना व आन्दोलन से जोड़ा वह अद्भुत कार्य था। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गौर्दा की होलियों तथा बाद में पहाड़ के वन व शराब आन्दोलनों में गिर्दा ने जिन गीतों ने भूमिका निभाई वह बहुत महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहाड़ के लोगों में देश प्रेम की भावना पैदा करने में अल्मोड़ा के लोक कवि गिर्दा की होलियों का बड़ा योगदान माना जाता है। उनकी एक कुमाउनी होली इसतरहहै।
होली अजब खिलाई मोहन अवतार कन्हाई
सूत कातकर चरखे से मोहन खद्दर चीर पहनाई
विदेशी माल गुलाल उड़ायो स्वदेशी रंग उड़ायी
गोरे सब नाचे नाच रंग बिरंगी पिचकारी मारी
स्वराज पताका उड़ायी जी हुजुरों को भांग पिलाई..
सामाजिक एकता की प्रतीक हैं यह होलियां परम्परागत तौर पर वर्षों से यहां की होलियां सामाजिक समरसता, सामूहिक एकता व भाई-चारे का भी प्रतीक रही हैं। आज भी पहाड़ के गांवो में सामूहिक तौर पर होली गांव के हर घर के आंगन में जाती है। यही नहीं कई स्थानों पर आसपास स्थित एक दूसरे के गांवो में भी होल्यार होली गाने जाते हैं। कुमाऊं के नगरों व कस्बों में होली के पर्व.आयोजन में सभी वर्ग.संप्रदाय के लोग समान रुप से हिस्सा लेते हैं। अल्मोड़ा की पुरानी बैठी होली में बाहर से आये कई पेशेवर मुस्लिम गायकों का भी योगदान रहा है। पहाड़ से प्रवास पर गये कई लोगों ने आज भी होलियों में अपने घर गांव आने की परम्परा कायम रखी है। लखनऊ, दिल्ली व मुम्बई जैसे अन्य महानगरों में होली के पर्व में प्रवासी लोगों को यहां की परम्परागत होलियां पहाड़ लौट आने कोविवश करदेतीहैं।
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आशीष देने की निराली परम्परा मौजूद है यहां की होलियों में कुमाऊं में होल्यारों की टोली घर के आंगन में पंहुचने के बाद जब दूसरे आंगन की ओर प्रस्थान करती है तब होल्यारों के मुखिया द्वारा सभी पारिवारिक सदस्यों को स्नेह युक्त आशीष दी जाती है। आशीष के ये वचन वसुधैव कुटुम्बकम् और जीवेत शरद शतम् की अवधारणा को पूरी तरह चरितार्थ करते हैं। आशीष का भाव यह है कि बरस दीवाली बरसे फाग…जीते रहो रंग भरो….घर का मुखिया, पारिवारिक जन….बाल बृन्द सब जीते रहें….पांचों देव दाहिने रहें और बसन्त इस घर की देहरी पर उतरता रहे। कुमाऊँ में होली गायन की यह परम्परा एक लम्बे अर्से से चली आ रही है। किन्तु आज इस परम्परागत होली को मनाने में कुछ व्यवधान उत्पन्न हो रहे हैं, जिनमें पहला कारण है-मद्यपान, खास तौर से उत्तराखण्ड में नशे की लत प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अधिकतर लोग सोचते हैं कि मद्यपान के अभाव में कोई भी पर्व या उत्सव फीका है। लोगों की यह सोच उचित नहीं है।
‘छलड़ी’ वाले दिन पुरुष वर्ग तो टोलियाँ बना कर एक-दूसरे के घर जाते ही हैं, गुलाल, अबीर का टीका लगाते हैं। साथ महिलायें भी अपने-अपने मोहल्लों में टोलियाँ बना कर एक-दूसरे के घर जाती हैं लेकिन शराब पीने वालों की अधिकता के कारण महिलाओं के मन में एक भय व्याप्त रहता है कि कहीं कोई नशे में धुत हो कर अनर्गल बातें न बोले। उनका रंग भंग न हो जाये। इसी प्रकार पुरुष वर्ग की बैठी होली में भी यदि कोई व्यक्ति शराब पी कर आ जाता है, तो बैठक में रंग में भंग की स्थिति हो जाती है ऐसे में उल्लास व उमंग का माहौल बिगड़ जाता है। अतः हम सभी को प्रयास करना चाहिए कि हम अपनी कुमाउनी होली की परम्परा को अक्षुण बनाये रखने के लिए अपने युवा वर्ग को शराब की लत से दूर रहने के लिए प्रेरित करें तथा उन्हें अपनी परम्पराओं से अवगत कराते हुए उनका रुझान इस ओर आकर्षित करें कि वे सभी कुमाउनी होली की गरिमा का ध्यान रखते हुए स्वस्थ मानसिकता के साथ इस त्यौहार को मनायें तभी हम अपनी कुमाउनी होली की परम्परा को जीवित रख पायेंगे।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )