उत्तराखंडी संस्कृति : उत्तराखंड में इगास की धूम, अपनी संस्कृति को लेकर जागरूक होने लगे पर्वतीय अंचल के वासी - Mukhyadhara

उत्तराखंडी संस्कृति : उत्तराखंड में इगास की धूम, अपनी संस्कृति को लेकर जागरूक होने लगे पर्वतीय अंचल के वासी

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मामचन्द शाह/देहरादून
“भैलो रे भैलो, स्वाल पकोड़ खैलो” का नाम सुनते ही उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल वासियों के जेहन में इगास-बग्वाल का उल्लास उमड़ जाता है। इसे वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार कहें तो गलत नहीं होगा। किंतु सच है कि ज्यों-ज्यों शिक्षा का ग्राफ बढ़ता गया, लोग भी स्वयं को सभ्य समाज का दर्शाते हुए अपनी प्राचीन संस्कृति से विमुख होने लगे। आज की युवा पीढ़ी से इगास के बारे में पूछा जाए तो संभवत: उनका जवाब इस तरह होगा कि ये इगास क्या है, हां सुना तो है पर … कॉन्फिडेंट नहीं हूं, गांव में दादा-दादी मनाते हैं, पर हमें नहीं पता, कभी मम्मी-पाता इगास मनाने ले ही नहीं गए… इत्यादि.. इत्यादि।
जी हां! यह कड़वा सच है कि आज की युवा पीढ़ी का यही जवाब आपको सुनने को मिलेगा, किंतु जिन्होंने इन पलों को जिया होगा, उनके दिलों की धड़कनें अपनी संस्कृति को लेकर इगास-बग्वाल जैसे अवसरों पर आज भी धड़कती हैं।
खैर, कहते हैं ‘जब जागे, तब सवेराÓ- आप विदित ही हैं कि इस बार उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री ने उत्तराखंडियों की वर्षों पुरानी मांग पर इगास का सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है। इससे कम से कम सरकारी सेवकों की बांछें खिलनी तो स्वाभाविक हैं ही, साथ ही स्कूली बच्चों की उछल-कूद भी इस छुट्टी ने बढ़ा दिया है।
यहां उल्लेख करना चाहेंगे कि उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने सर्वप्रथम इगास को लेकर प्रदेश में अलख जगाई थी। वे दिल्ली से इगास के अवसर पर सीधे अपने पौड़ी गढ़वाल स्थित डांडानागराजा के पास नकोट गांव पहुंचे थे और अपने गांव वालों के साथ इगास मनाई थी। इस बार भी संयोग बना तो वे अपने गांव में इगास मनाने पहुंचे हैं। उन्होंने इगास के अवसर पर सीएम धामी द्वारा अवकाश घोषित करने वाले फैसले को काफी सराहा है। उनकी प्रेरणा से युवा पीढ़ी में भी काफी जागरूकता आई है और अब लोग इगास मनाने अपने गांव पहुंच रहे हैं।
धाद संस्था का भी इगास को लेकर काफी समय से बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा कई और लोगों एवं संस्थाओं ने भी अपने-अपने माध्यमों से इगास की अलख जगाने का नि:संदेह कठिन प्रयास किया है, जिसके परिणामस्वरूप आज गांवों के साथ ही मैदानी क्षेत्रों में भी इगास को बड़े समारोह के रूप में मनाया जा रहा है। अकेले देहरादून में ही कई स्थानों पर आज इगास को बड़े-हर्षोल्लास के रूप में मनाया जा रहा है। इसके अलावा सभी जिला मुख्यालयों, कोटद्वार श्रीनगर सहित कुमाऊं क्षेत्र में भी बूढी दिवाली को धूमधाम से मनाया जा रहा है।
क्यों मनाई जाती है
इगास मान्यताओं के अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम रावण का वध कर कार्तिक अमावस्या के दिन अयोध्या वापस लौटे थे। इस पर अयोध्यावासी खुशी से झूम उठे और उन्होंने पूरी नगरी में घी के दीपक जलाए। तभी से दीपावली का पर्व इस दिन बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। कहा जाता है कि तब यह सूचना पहाड़ों में दीपावली के ठीक 11 दिन बाद पहुंची थी। इस कारण ग्रामीणों ने उस दिन को इगास के रूप में मनाया और दीपक जलाकर चहुंओर रोशन किया। तभी से यह परंपरा निर्बाध जारी है।
इसके अलावा इगास मनाने को लेकर एक अन्य कथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि 17वीं शताब्दी में गढ़वाल के प्रख्यात वीर भड़ माधो सिंह भंडारी तिब्बत आक्रमण पर गए थे।
तब दीपावली का पर्व आया पर माधो सिंह वापस नहीं लौटे। इस पर क्षेत्रवासी उनका इंतजार करते रहे। दीपावली के ठीक 11 दिन बाद एकादशी के दिन माधो सिंह तिब्बत रण फतह कर वापस लौटे। इस पर पूरे क्षेत्रवासी खुशी से झूम उठे और पूरे क्षेत्र को दीपकों की जगमगाहट से रोशन कर दिया गया। साथ ही भैलो खेलकर जश्न मनाया गया। तभी से उत्तराखंड में इगास (बूढ़ी दिवाली) बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है।
बताते चलें कि वीर भड़ माधो सिंह भंडारी का गांव मलेथा देवप्रयाग से श्रीनगर की ओर जाते समय बीच में पड़ता है। बताया जाता है कि माधो सिंह ने अपने गांव में सिंचाई नहर लाने के लिए एक पहाड़ी को काटकर वहां नहर पहुंचा दी थी। पूरी मेहनत के बाद भी उक्त नहर से जब खेतों में पानी नहीं पहुंचा तो उन्होंने गांव की खातिर अपने इकलौते पुत्र का बलिदान कर दिया। जिसके बाद गांव में पानी पहुंच गया और माधो सिंह भंडारी अपने त्याग, बलिदान और तपस्या से युगों-युगों तक के लिए अमर हो गए।
क्या है भैलो
भैलो अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग चीजों से बनाए जाते हैं, किंतु उनको खेलने का तरीका सभी जगह एक सा ही है। चीड़, भीमल, सुराही, तिल व भीमल के छिल्लों के गठ्ठर को सिराल या भीमल के रेशों से कसकर बांधा जाता है। रात्रि के समय दीपक जलाकर पूजा-अर्चना करने व स्वाल-पकौड़े खाने के बाद खेतों या बड़ा पंचायत चौक में ढोल-दमाऊं के मंडाण के साथ पूरे ग्रामवासी एकत्रित होते हैं। पहले से तैयार किए गए बड़े-बड़े आड़ों पर आग जलाई जाती है। इसी अग्नि में भैलों को दोनों सिरों से जलाया जाता है और इसे हाथों से पकड़कर या कमर पर बांधकर चारों ओर घुमाया जाता है। युवा वर्ग भैलो को आपस में लड़वाकर इसकी प्रतियोगिता भी करवाते हैं। इस दौरान गांव में भाईचारा और जश्न मनाकर स्वाल-पकौड़ों के साथ मिठाई बांटकर एक दूसरे को शुभकामनाएं दी जाती हैं।
पुनर्जीवित होती लोक परंपरा
इस लोक परंपरा को पुनर्जीवित करने में उत्तराखंड के प्रख्यात लोक गायक नरेंद्र सिंह के प्रयासों को भला कौन भूल सकता है। आज भी उनका प्रयास रहता है कि उत्तराखंड की लोक संस्कृति को संजोये रखने में वे कुछ योगदान दे सकें। उन्होंने अपने ही अंदाज में इस बार भी युवाओं को इगास के प्रति जागरूक किया है।
जागर सम्राट डा. प्रीतम भरत्वाण ने गीत के माध्यम से उत्तराखंडवासियों को इगास की बधाई एवं शुभकामनाएं दी हैं।
उत्तराखंड जौनसार का लाल एवं बालीवुड सिंगर जुबिन नौटियाल ने भी अपने ही अंदाज में इगास का गीत गाकर युवाओं को इगास मनाने की प्रेरणा दी है।
देहरादून स्थित छह नंबर पुलिया पर रायपुर विधायक उमेश शर्मा काऊ के सौजन्य से इगास के अवसर पर आज 14 नवंबर 2021 को एक भव्य समारोह आयोजित किया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर आज कारगीचौक स्थित सोशल बलूनी पब्लिक स्कूल में भी इगास-बग्वाल के अवसर पर एक विशाल समारोह भैलो रे भैलो का आयोजन किया जा रहा है। इसके अलावा प्रदेशभर के विभिन्न क्षेत्रों में इगास (बूढ़ी दीपावली) को भव्य तरीके से मनाया जा रहा है। निश्चित रूप से यह पहल भविष्य में और निखार बनकर उभरेगी और आने वाली पीढिय़ों को अपनी लोक परंपराओं को सीखने, समझने व महसूस करने का अवसर लेकर आएंगी।
कुल मिलाकर लोक परंपराएं व लोक संस्कृति किसी भी समाज की ऐसी अनमोल धरोहर होती हैं, जो अपनी समृद्ध विरासतों को नई पीढिय़ों को एहसास कराती हैं। ऐसे में सभी की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी पारंपरिक संस्कृति को संजोये रखने में अपना योगदान दें। उम्मीद की जानी चाहिए कि इगास के भैलों से प्रज्वलित अग्नि   अपनी संस्कृति के संरक्षण के प्रति हम सभी को प्रेरणा देते रहेंगे।

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