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राजनीतिक दलों (political parties) का ध्यान खींच रहे कर्मचारी-पेंशनर्स

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राजनीतिक दलों (political parties) का ध्यान खींच रहे कर्मचारी-पेंशनर्स

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारत में लोकतंत्र के सबसे बड़े महोत्सव का आगाज हो चुका है. अलग-अलग राजनीतिक दल ताल ठोंकने लगे हैं। दावों वादों के साथ ही आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला तो पहले से ही शुरू है। इन सबके बीच क्या आप जानते हैं कि देश भर में कुल कितने राजनीतिक दल हैं, जो चुनाव के रण में ताल ठोंकते हैं? वर्तमान में ऐसी पार्टियों की संख्या ढाई हजार के पार पहुंच गई है, जो निर्वाचन आयोग में रजिस्टर्ड हैं। चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस वर्ग को लुभाने के लिए कोई भी राजनीतिक दल कोर कसर नहीं छोड़ना चाहता। यही कारण है कि सरकारें इनकी कई पेचीदा मांगों को सुलझाने में भी कोर कसर नहीं छोडऩा चाहती। वहीं, विपक्ष भी कर्मचारियों को साधने के लिए इनकी मांगों पर सुर से सुर मिलाए रहते हैं। चुनाव के समय दिखने वाले नेता  जनता के बीच लोक लुभावना भाषण देकर लोगों की समस्या सुने बगैर चले जाते हैं, जिससे जमीनी स्तर की समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता है।

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लोकसभा चुनाव में पार्टियों के घोषणा पत्र में राष्ट्रीय स्तर के साथ ही स्थानीय मुद्दे भी शामिल किए जाने चाहिए। आज स्थिति यह है कि राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी जाति के आधार पर तय करने लगे हैं। चुनावी सीजन में राजनीतिक दलों की बातें और मतदाताओं को लुभाने के लिए किये गए वादे बेहद अहम होते हैं। इसके जरिए एक तरफ राजनीतिक दल सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हैं तो मतदाता भी इसी चुनावी सीजन में अपनी मांगों को पूरा करवाने की जोर आजमाइश करते हुए दिखाई देते हैं। उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव के दौरान कर्मचारी और पेंशनर्स की मांगें भी कुछ इसी तरह का दबाव राजनीतिक दलों पर बना रही हैं। जिसको भांपते हुए राजनीतिक दल भी खुद को कर्मचारियों का सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश कर रहे हैं। चुनावी सीजन में कर्मचारियों का अपनी मांग पूरी करवाने के लिए जोर आजमाइश करना कोई नई बात नहीं है।

लोकसभा चुनाव नजदीक है, लिहाजा एक बार फिर इसी तरह के प्रयास कर्मचारियों कीतरफ से दिखाई देने लगे हैं। उधर राजनीतिक दल भी कर्मचारियों को उनका सबसे बड़ा हितैषी जताने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि राजनीतिक दल जानते हैं कि चुनाव के दौरान कर्मचारी और पेंशनर्स चुनाव के समीकरण को बना या बिगाड़ सकते हैं।ऐसे में विभिन्न कर्मचारी संगठन अपनी मांगों को राजनीतिक दलों से पूरी करने के लिए उन्हें घोषणा पत्र में शामिल करने की मांग कर रहे हैं।प्रदेश में कर्मचारियों और पेंशनर्स की कई मांगे हैं, लेकिन इसमें खास तौर पर पेंशन से जुड़े विषयों पर बड़े आंदोलन किये जा चुके हैं। कर्मचारी भी लोकसभा चुनाव को देखते हुए इन मुद्दों पर राजनीतिक दलों का ध्यान केंद्रित करना चाहती है, ताकि चुनाव के बाद जिस दल की भी सरकार आए, वह इन मांगों और गंभीरता से विचार करे। कर्मचारियों की मांगों और चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण जानकारी।

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देशभर में ही पुरानी पेंशन बहाली को लेकर कर्मचारियों का आंदोलन सालों साल पुराना है।उत्तराखंड में तो कर्मचारियों ने अब पुरानी पेंशन बहाली को राजनीतिक दलों से घोषणा पत्र में शामिल करने तक की बात कह दी है।पुरानी पेंशन स्कीम केंद्र सरकार ने 1 जनवरी 2004को बंद कर दी थी। उत्तराखंड में भी 1 अक्टूबर 2005 को पुरानी पेंशन को बंद कर दिया गया। करीब 6 साल से इसके लिए कर्मचारी आंदोलन भी कर रहे हैं। इस तरह उत्तराखंड में हजारों कर्मचारी जो पुरानी पेंशन से वंचित रह गए हैं, वह अब चुनावी सीजन में राजनीतिक दलों पर दबाव बनाकर अपनी इस मांग को पूरा करने की कोशिश में जुट गए हैं। उत्तराखंड में पूर्व सैनिकों की संख्या करीब 1 लाख 60 हज़ार है। इसी तरह प्रदेश में करीब 1 लाख 20 हज़ार राजकीय कर्मचारी हैं।पेंशनर्स की भी संख्या १ लाख से अधिक है।कर्मचारियों की इतनी बड़ी संख्या को देखते हुए ही राजनीतिक दल भी कर्मचारी संगठनों को लेकर गंभीर दिखाई दे रहे हैं।

कर्मचारियों को लेकर कांग्रेस कितनी संजीदा है, इस बात को इसी से समझा सकता है कि जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनी, उन राज्यों में उन्होंने पुरानी पेंशन को बहाल करने का फैसला लिया। इसमें हिमाचल और राजस्थान राज्यों के नाम शामिल हैं, जहां कांग्रेस सरकारों में इस तरह का फैसला लिया। उत्तराखंड के ढाई लाख कर्मचारी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाएंगे। उपनल, संविदा, आउटसोर्स के मिलाकर करीब 40 हजार कर्मचारी हैं और निगमों-निकायों के भी करीब 40 हजार कर्मचारी हैं।उत्तराखंड के ढाई लाख से ज्यादा सरकारी, संविदा, आउटसोर्स कर्मचारी राज्य में चुनावी हवा बनाने और चुनाव का रुख मोड़ने का दम रखते हैं। इन कर्मचारियों की मुख्य मांगें राष्ट्रीय स्तर भी एक साथ उठती आ रही हैं। कई सरकारों ने इनकी मांगों को प्राथमिकता दी और सत्ता में आने पर पूरा भी किया। उत्तराखंड में ढाई लाख से अधिक सरकारी और अन्य कर्मचारी हैं।

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संविदा व उपनल कर्मचारियों का नियमितीकरण और आठवें वेतन आयोग का गठन भी कर्मचारियों की मुख्य मांगों में शामिल हैं। वो कहते हैं कि भले ही इन मुद्दों का अभी तक समाधान नहीं हो पाया है, लेकिन उम्मीद है कि अब जिस भी पार्टी की सरकार आएगी, वो इनका समाधान जरूर करेगी। संविदा पर कार्यरत इन हजारों कर्मचारियों में कई ऐसे हैं जिन्हें काम करते हुए 15-20 वर्ष बीत चुके हैं, और अब उम्र के उस पडाव पर आ चुके हैं, जहां से वे किसी अन्य काम की सोच भी नहीं सकते। उनके उपर परिवार एवं बच्चों की शिक्षा का बोझ तो है ही, सरकार की ओर से कभी भी सेवा-मुक्त किये जाने का भय रह-रहकर सता रहा है। इन 25 हजार संविदा कर्मचारियों को स्थायीकरण की सौगात की कोई संभावना अभी भी बाकी है, या आने वाला भविष्य आज से और ज्यादा अंधकारमय होने जा रहा है? राज्य के विभिन्न कार्यालयों में उपनल कर्मियों के स्थान पर स्थायी नियुक्तियां की जा रही हैं मुख्य न्यायाधीश रितु बाहरी की अध्यक्षता वाली उत्तराखंड उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने वन विभाग में संविदा कर्मियों की सेवा शर्तों पर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार को विभिन्न राज्य विभागों में तैनात सभी आउटसोर्स संविदा कर्मियों का डेटा पेश करने का निर्देश दिया। ताकि उनके कल्याण के लिए एक नीति बनाई जा सके।

अदालत ने जानकारी उपलब्ध कराने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया और मामले को मई में अगली सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया। वन
विभाग के संविदा और तदर्थ कर्मियों ने बताया कि कई वर्षों से काम करने के बावजूद उन्हें न तो नियमित किया गया है और न ही न्यूनतम वेतन का लाभ मिल रहा है। 2016 तक सात साल में आउटसोर्सिंग के रूप में कार्य करने वाले कर्मचारियों को संविदा पर रखने का निर्णय लिया गया। सरकार की ओर से लिए गए इन निर्णयों को कोर्ट में चुनौती दी गई थी। इस संबंध में दायर अपील पर अंतरिम आदेश देते हुए हाईकोर्ट ने शासन को इन पर रोक लगाने के निर्देश दिए। हाईकोर्ट के निर्णय के क्रम में शासन ने सभी विभागों को पत्र लिखकर संविदा कर्मियों के विनियमितीकरण पर फिलहाल कोई कार्यवाही न करने को कहा था। शासन के इस कदम को राजनीति से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।

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जानकारों की मानें तो प्रदेश में तकरीबन दस हजार से अधिक संविदा कर्मी और बीस हजार से अधिक आउटसोर्स कर्मचारी हैं। मतदान से पहले यदि इस पर कोई आदेश जारी होता तो इस पर राजनीतिक नफा नुकसान हो सकता था। यह आशंका भी जताई जा रही है कि संभवत: शासन ने दबाव में आकर यह निर्णय पहले जारी नहीं किया। हालांकि, अधिकारी ऐसे किसी दबाव से इन्कार कर रहे हैं। उत्तराखंड के 2.5 लाख से अधिक सरकारी, संविदा और आउटसोर्स कर्मचारी राज्य में चुनावी हलचल पैदा करने और चुनाव का रुख बदलने की ताकत रखते हैं. आरटीआई में मिली जानकारी से उपनल के नाम पर चल रही मनमानी स्पष्ट हो रही है। वैज्ञानिक से लेकर लाइनमैन, जेई तक के पदों पर भारी भरकम वेतन पर कर्मचारी व अधिकारी रखे गए हैं जबकि उपनल के पदों में ये पद शामिल ही नहीं हैं। कोटेश्वर हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट टिहरी में एसएसओ व लाइनमैन, सिडकुल मुख्यालय देहरादून में स्टेना, जेई, असिस्टेंट आर्किटेक्ट, एई, विधि असिस्टेंट जैसे पदों पर 15 हजार से 46 हजार वेतन तक लोग रखे गए हैं।

देहरादून स्मार्ट सिटी लिमिटेड में जेई के पदों पर 34 हजार से ऊपर वेतन पर उपनल के माध्यम से रखे गए हैं। स्टेट बायोटेक डिपार्टमेंट में टेक्निकल ऑफिसर, कंप्यूटर ऑपरेटर, साइंटिफिक असिस्टेंट, अकाउंटेंट, साइंटिस्ट-बी जैसे पदों पर 49607  रुपये वेतन तक पर लोग रखे गए हैं।उत्तराखंड तकनीकी विवि में भी सिस्टम मैनेजर, असिस्टेंट अकाउंटेंट, पीए, प्रवर सहायक के पदों पर 24333 रुपये वेतन तक कर्मचारी रखे गए हैं। यूजेवीएनएल मुख्यालय में भी चपरासी, श्रमिक जैसे पदों पर 37 हजार तक वेतन पर भर्तियां की गई हैं। ये सभी वे पद हैं, जो कि उपनल के दायरे में ही नहीं आते। विभागों ने अपने स्तर से पद बनाकर भर्तियां कर दी हैं।

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विनोद कवि का कहना है कि विभागों ने अपने हिसाब से उपनल भर्ती के नियम बदल दिए हैं। उन्होंने कहा कि निदेशालय सैनिक कल्याण, उत्तराखंड स्टेट सीड एंड प्रॉडक्शन सर्टिफिकेशन एजेंसी जैसे विभागों ने तो उपनल कर्मचारियों को विभागीय संविदा पर ले लिया है लेकिन कई विभाग वेतन भी पूरा नहीं दे रहे हैं। ऊर्जा निगमों में उपनलकर्मियों का जोखिमभरा काम होने के चलते बोर्ड ने प्रस्ताव पास करके शासन को
भेजा था लेकिन शासन ने महंगाई भत्ते का आदेश रोका हुआ है। वहीं इसके पीछे राजनीतिक लोगों की कमजोर इच्छा शक्ति और अधिकारियों में दूरदर्शिता की कमी भी साफ तौर पर देखी जा सकती है इससे कर्मचारी हतोत्साहित हो रहे हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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