आजादी के महानायक वीर मंगल पांडे से डरती थी अंग्रेजी हुकुमत - Mukhyadhara

आजादी के महानायक वीर मंगल पांडे से डरती थी अंग्रेजी हुकुमत

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आजादी के महानायक वीर मंगल पांडे से डरती थी अंग्रेजी हुकुमत

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

स्वतंत्रता संग्राम की बात हो और अमर जवान मंगल पांडे का जिक्र ना हो ऐसा संभव नहीं।मंगल पांडे भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत थे। उनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला से अंग्रेज शासन बुरी तरह हिल गया था। हालाँकि अंग्रेजों ने इस क्रांति को दबा दिया पर मंगल पांडे की शहादत ने देश में जो क्रांति के बीज बोए उसने अंग्रेजी हुकुमत को 100 साल के अन्दर ही भारत से उखाड़ फेका।भारत की समृद्धता को देखकर ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार, चतुर व्यापारी भारत में आए तो देश में चल रही राजा- महाराजाओं के आपसी फूट ने उनमें भारत पर राज करने की इच्छा पैदा की।अंग्रेजों ने इस इच्छा की पूर्ति हेतु हर हथकंडे अपनाए। देश को अपनी मुट्ठी में कर भारत की दासता को लंबा बनाया।भारतीयों पर कठोरं जुल्म ढाए। ईस्ट इंडिया कंपनी की रियासत व राज्य हड़प और ईसाई मिशनरियों द्वारा जबरन धर्मान्तरण आदि की नीति ने भारतीयों के मन में शीघ्र ही ब्रिटिश शासकों के प्रति नफरत पैदा कर दी। और सन 1757 ईस्वी से ब्रिटिश के गुलाम बने भारत में सौ वर्षों बाद ही इस दासता से मुक्ति के लिए सामूहिक संघर्ष करने की स्थितियां बनने लगीं।

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सन् 1857 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को जन-जन का मुक्ति संग्राम बनाने के लिए तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता सेनानियों ने बड़े ही व्यापक पैमाने पर तैयारी की थी। इस समवेत मुक्ति संग्राम को आरम्भ करने की तिथि भी इसके रणनीतिकारों  द्वारा 31 मई 1857 निर्धारित की गई थी।लेकिन इस तिथि से दो माह पूर्व ही गंगा की उर्वर भूमि में पड़ा क्रान्ति बीज फूट पड़ा। और 29 मार्च 1857 को कलकता के बैरकपुर छावनी में इस संग्राम के अग्रणी आगरा-अवध प्रान्त वर्तमान उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले अब बलिया जिला की बलिया तहसील के नगवा गांव निवासी अंग्रेजी फौज की 34 नम्बर देशी सेना की 39वीं पलटन के 1446 नम्बर सिपाही मंगल पाण्डेय ने ब्रिटिश सेना के दो अधिकारियों मि. बॉफ और मि. ह्यूसन को मौत के घाट उतार कर स्वाधीनता की बलिवेदी पर अपना स्थान आरक्षित कर लिया। इस महान क्रांतिकारी मंगल पाण्डेय का जन्म 19 जुलाई 1827 को आगरा व अवध के नाम से प्रसिद्ध तत्कालीन संयुक्त प्रान्त वर्तमान उत्तरप्रदेश के बलिया जिले में स्थित नगवा गांव के एक सामान्य परंतु प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

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आरोप में अंग्रेजी सरकार ने 6 अप्रैल 1857 को न्यायालय में दिए गए फैसले के अनुसार 18 अप्रैल 1857 को मंगल पाण्डेय को फांसी दिए जाने की घोषणा की। लेकिन मंगल पाण्डेय के डर से 8 अप्रैल 1957 को ही आंग्ल शासकों ने उन्हें फ़ांसी पर चढा दिया। जिससे मंगल पाण्डेय भारत
के प्रथम क्रांतिकारी, प्रथम स्वतंत्रता संग्रामी और स्वाधीनता की वेदी पर अपनी आहुति देने वाले प्रथम बलिदानी के रूप में विख्यात हो गए। मात्र 30 वर्षों की उम्र में उन्होंने अपने जीवन को देश के नाम बलिदान कर दिया था।भारत में प्रथम बार मंगल पाण्डेय के नाम के पूर्व बलिदानी अर्थात शहीद शब्द का प्रयोग किया गया। इस घटना का दूसरा असर यह हुआ कि मंगल पाण्डेय के द्वारा शुरू किया अंग्रेजों के विरुद्ध यह विद्रोह शीघ्र ही सम्पूर्ण देश में जंगल की आग की भांति फ़ैल गया। इस आग को अंग्रेजों ने बुझाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन मंगल
पाण्डेय की बलिदान की कहानी के  प्रशस्तीकरण से देश के प्रत्येक नागरिक के अंदर यह आग भड़क चुकी थी, जिसके कारण 1947 में यह देश छोड़कर उन्हें भागना पड़ा।

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मंगल पाण्डेय सन 1849 में 22वर्ष की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में शामिल हो गए। मंगल पाण्डेय बैरकपुर की सैनिक छावनी में 34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री की पैदल सेना में एक सिपाही थे।वे सामान्य रूप में अपनी सेना की सेवा में कर्तव्यनिष्ठ थे। वे अति महत्वकांक्षी व्यक्ति थे। वे अपने कार्य को पूर्ण निष्ठा व लगन से करते थे। उनकी इच्छा भविष्य में एक बड़ा कार्य करने की थी। लेकिन जब कंपनी की सेना की बंगाल इकाई में एनफील्ड पी.53राइफल में नई कारतूसों का प्रयोग शुरू हुआ तो मामला बिगड़ गया।इन कारतूसों को बंदूक में डालने से पूर्व मुंह से खोलना पड़ता था। इस बीच भारतीय सैनिकों के बीच ऐसी खबर फैल गई कि इन कारतूसों को बनाने में गाय तथा सूअर की चर्बी का
प्रयोग किया जाता है। उनके मन में यह बात घर कर गई कि अंग्रेज हिन्दुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट करने को तुले हुए हैं, क्योंकि यह हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए क्रमशः धर्मभ्रष्ट करने वाला और नापाक था। फलस्वरूपभारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना बलवती होने लगी। जिसके कारण समवेत मुक्ति संग्राम को आरम्भ करने के लिए निर्धारित तिथि 31 मई 1857 के पूर्व ही 29 मार्च 1857 को भारतीय सैनिक मंगल पाण्डेय ने ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला कर दिया। और दो ब्रिटिश अधिकारियों को मार गिराया।

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वह पहला अवसर था, जब किसी भारतीय ने ब्रिटिश अधिकारी पर हमला किया था। हमले के कुछ समय बाद ही उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई और कुछ दिन बाद उन्हें फांसी दे दी गई, लेकिन फांसी देने के बाद भी ब्रिटिश अधिकारी उनके पार्थिव शरीर के पास जाने से भी डर रहे थे। इसी कारण भारत में मंगल पाण्डेय आज भी एक महान क्रांतिकारी के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने ब्रिटिश कानून का विरोध किया। मंगल पाण्डेय चर्बी युक्त कारतूसों के विरुद्ध थे। उन्हें यह भली-भांति पत्ता था कि ब्रिटिश अधिकारी भारतीय हिन्दू सैनिकों और ब्रिटिश सैनिकों में भेदभाव करते थे। इससे परेशान होकर उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से लड़ने का बीड़ा उठाया था। और भारत के एक वीर पुत्र ने स्वाधीनता संग्राम के यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी।वीर मंगल पाण्डेय के पवित्र प्राणहव्य को पाकर स्वातंत्र्य यज्ञ की लपटें भड़क उठीं। क्रांति की ये लपलपाती हुई लपटें अंग्रेजों को लील जाने के लिए चारों ओर फैलने लगीं।

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मंगल पाण्डेय द्वारा सुलगाई गई स्वाधीनता संग्राम की यह ज्वाला अंग्रेजों के लाख प्रयासों के बाद भी नहीं बुझी। इसके ठीक एक महीने बाद ही 10 मई 1857 को मेरठ की छावनी में कोतवाल धनसिंह गुर्जर के नेतृत्व में बगावत हो गई। ओर गुर्जर धनसिंह कोतवाल इसके जनक और नायक के रूप में सामने आए।और देखते ही देखते यह संग्राम पूरे उत्तरी भारत में फैल गया। जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है, जितना वे समझ रहे थे। मंगल पाण्डेय ने स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला भारत में धधकाई थी, जिसने बाद में एक भयंकर रूप धारण कर लिया। और अंत में भारतीयों से हारकर अंग्रेजों को भारत छोड़ भागना ही पड़ा। मंगल पाण्डेय की बलिदान की कहानी धर्मभ्रष्ट से शुरू हुई उनकी कहानी पहले आत्म सम्मान की ठेस  पर और फिर आजादी की लड़ाई की एक चिंगारी में कैसे बदली यह पूरी कहानी एक बड़े परिवर्तन की ही बानगी है।

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मंगल पांडेय 1857 के आंदोलन की नींव रखने वालों में से एक कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि उस दौर में ईस्टइंडिया कंपनी के सिपाहियों का दर्द मंगल पांडेय के बलिदान में झलका और ऐसी मशाल बन गया जिसे कई और मशालों को जलने में जरा भी वक्त नहीं लगा। जिस भारतवर्ष ने संसार को मर कर भी अमर होना सिखाया है, वो कभी ग़ुलाम नहीं हो सकता। ‘स्वतंत्रता’ और’सह अस्तित्व’ का विराट दर्शन हमने ही दुनिया को दिया है। हमने ही संसार को कर्मयोग सिखाया है और आज हमारी ही स्वतंत्रता का अपहरण किया जा रहा है। लेकिन इस क्रांति का बिगुल बजाएगा कौन? भारत माता के पैरों में जकड़ी हुई बेड़ियों को तोड़ेगा कौन? मंगल पांडेय ने तय कर लिया था कि वे ही इस क्रांति की गौरवशाली मशाल को प्रज्वलित करेंगे। अब उन्हें इंतज़ार था बस सही मौक़े का, सही समय का। 9 मार्च 1857 को समय आ ही गया। ’34वीं बंगाल नेटिव इंफैंट्री’ के सैनिक मंगल पांडेय ने ‘लेफ्टिनेट बाग’ और ‘मेज़र ह्यूसन’ पर गोली चला कर ‘1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ का शंखनाद कर दिया। बहुत ही कम समय में ये क्रांति मेरठ, दिल्ली, कानपुर, बरेली, झांसी और अवध होते हुए पूरे देश में जंगल की आग की तरह फैल गई और जनक्रांति का रूप ले लिया था। सबकी ज़ुबान पर क्रांतिकारी मंगल पांडेय का ही नारा था- “मारो फ़िरंगी को”।

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इस क्रांति की धमक इतनी व्यापक थी कि भारत सहित ब्रिटिश ताज भी इससे थर्रा उठा था।मंगल पाण्डेय तो बलिदान हो गए थे लेकिन उनका बोया हुए ‘क्रांति बीज’ अक्षय रहा। आगे चलकर इसी ‘क्रांति बीज’ को भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, चंद्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे अनगिनत क्रांतिकारियों अपने रक्त से सींच कर स्वतंत्रता का वटवृक्ष बना दिया। लेकिन स्वतंत्रता कोई एक घटना नहीं, एक सतत
प्रक्रिया है। इसलिए हमें हमारी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, राष्ट्रीय और व्यक्तिगत अस्मिता और अखंडता के लिए, अपने अंदर के मंगल पांडेय को सदैव जीवित रखना होगा। मंगल पाण्डेय का ये बलिदान भारतवर्ष के माथे पर सूर्य की भांति सदैव चमकता रहेगा और हमें हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के ख़ातिर मर मिटने के लिए सदैव प्रेरित करता रहेगा।

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मंगल पांडे तो खुद फांसी पर लटक गए लेकिन उनकी मौत ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया था। उनकी फांसी के ठीक एक महीने बाद ही 10 मई सन् 1857 को मेरठ की सैनिक छावनी में भी बगावत हो गयी और यह विद्रोह देखते-देखते पूरे उत्तरी भारत में फैल गया, हालांकि इस संग्राम को अंग्रेजों ने दबा दिया लेकिन वो भारतीयों के अंदर उनके खिलाफ भरी नफरत को खत्म नहीं कर पाए और उन्हें आगे चलकर भारत को छोड़ना ही पड़ा। मंगल पांडे के जीवन के पर फिल्म और नाटक भी प्रदर्शित हुए हैं और उन पर कई पुस्तकें भी लिखी जा चुकी हैं। सन 2005 में प्रसिद्ध अभिनेता आमिर खान द्वारा अभिनित ‘मंगल पांडे: द राइजिंग’ प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म का निर्देशन केतन
मेहता ने किया था। सन 2005 में ही ‘द रोटी रिबेलियन’ नामक नाटक का भी मंचन किया गया। इस नाटक का लेखन और निर्देशन सुप्रिया करुणाकरण ने किया था। जेडी स्मिथ के प्रथम उपन्यास ‘वाइट टीथ’  में भी मंगल पांडे का जिक्र है। भारत सरकार ने 5 अक्टूबर 1984 में मंगल पांडे के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।

( लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं )

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